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निर्मला/१६

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निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ १८९ से – १९६ तक

 
 

सोलहवाँ परिच्छेद

महीना कटते देर न लगी! विवाह का शुभमुहूर्त आ पहुँचा! मेहमानों से घर भर गया। मुन्शी तोताराम एक दिन पहले ही आ गए; और उनके साथ निर्मला की सहेली भी आई। निर्मला ने तो बहुत आग्रह न किया था—वह खुद ही आने को उत्सुक थी। निर्मला को सबसे बड़ी उत्कण्ठा यही थी कि वर के बड़े भाई के दर्शन करूँगी, और हो सका, तो उनकी सुबुद्धि पर धन्यवाद दूँगी!

सुधा ने हँस कर कहा—तुम उनसे बोल सकोगी?

निर्मला—क्यों, बोलने में क्या हानि है। अब तो दूसरा ही सम्बन्ध हो गया। और मैं न बोल सकूँगी, तो तुम तो हो ही!

सुधा—न भाई, मुझसे यह न होगा। मैं पराये मर्द से नहीं बोल सकती। न जाने कैसे आदमी हों?

निर्मला—आदमी तो बुरे नहीं हैं; और फिर तुम्हें उनसे कुछ विवाह तो करना नहीं, जरा सा बोलने में क्या हानि है? डॉक्टर साहब यहाँ होते तो मैं तुन्हें आज्ञा दिला देती!

सुधा-जो लोग हदय के उद्धार होते हैं,क्या चरित्र के भी अच्छे होते हैं? पराई बी को घूरने में तो किसी मर्द को सङ्कोच नहीं होता।

निर्मला-अच्छा न बोलना, मैं ही बातें कर लूंगी,घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा; बस,अब तो राजी हुई।

इतने में कृष्ण आकर बैठ गई। निर्मला ने मुस्करा कर कहा तब बत्ता कृष्णा, तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?

कृष्णा-जीजा जी बुला रहे हैं,पहले जाकर सुन आओ, पीछे गपे लड़ाना। बहुत बिगड़ रहे हैं।

निर्मला क्या है, तूने कुछ पूछा नहीं?

कृष्णा-कुछ बीमार से मालूम होते हैं। बहुत दुबले हो गए हैं।

निर्मला--तो जरा बैठ कर उनका मन बहला देती, यहाँ दौड़ी क्या चली आई। यह कहो ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुष तुझे भी मिलता! जरा बैठ कर बातें तो करो। बुड्ढे वाते बड़ी लच्छेदार करते हैं। जबान इतने डीगियल नहीं होते!

कृष्णा नहीं बहिन,तुम जाओ; मुझसे दो वहाँ नहीं बैठा जाता।

निर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा-अब तो बारात आ गई होगी। द्वार-पूजा क्यों नहीं होती? कृष्णा-क्या जाने वहिन,शास्त्री जी सामान इकट्ठा कर रहे हैं।

सुधा-सुना है, दूल्हा की भावज बड़ी कड़े स्वभाव की स्त्री है।

कृष्णा-कैसे मालूम?

सुधा-मैं ने सुना है,इसलिए चेताए देती हूँ। चार वातें ग़म खाकर रहना होगा।

कृष्णा-मेरी झगड़ने की आदत ही नहीं। जब मेरी तरफ से कोई शिकायत ही न पावेंगी,तो क्या अनायास ही विगड़ेंगी?

सुधा- हाँ, सुना तो ऐसा ही है। झूठमूठ लड़ा करती हैं।

कृष्णा-मैं तो सौ बात की एक बात जानती हूँ-नम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है।

सहसा शोर मचा-वारात आ रही है। दोनों रमणियाँ खिड़की के सामने आ बैठी। एक क्षण में निर्मला भी आ पहुंची।

वर के बड़े भाई को देखने की उसे वड़ी उत्सुकता हो रही थी।

सुधा ने कहा- कैसे पता चलेगा कि बड़े भाई कौन हैं?

निर्मला-शास्त्री जी से पूछ तो मालूम हो। हाथी पर तो कृष्णा के ससुर महाशय हैं। अच्छा, डॉक्टर साहब यहाँ कैसे आ पहुँचे। वह घोड़े पर क्या हैं, देखती नहीं हो?

सुधा-हाँ, हैं तो वही।

निर्मला-उन लोगों से मित्रता होगी। कोई सम्बन्ध तो नहीं है? .

सुधा-अव भेंट हो, तो पूछ। मुझे तो कुछ नहीं मालूम। निर्मला-पालकी में जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हा के भाई जैसे नहीं दीखते।

सुधा-बिलकुल नहीं, मालूम होता है, सारी देह में पेट ही पेट है।

निर्मला-दूसरे हाथी पर कौन बैठा हुआ है, समझ में नहीं आता।

सुधा-कोई हो, दूल्हा का भाई नहीं हो सकता। उसकी उम्र नहीं देखती हो-चालीस के ऊपर होगी।

निर्मला-शास्त्री जी तो इस वक्त द्वार-पूजा की फिक्र में हैं, नहीं तो उनसे पूछती।

संयोग से नाई आ गया। सन्दूकों की कुञ्जियाँ निर्मला ही के पास थीं। इस वक्त द्वार-चार के लिए कुछ रुपए की जरूरत थी, माता ने भेजा था। यह नाई भी पण्डित मोटेराम जी के साथ तिलक लेकर गया था। निर्मला ने कहा-क्या अभी रुपए चाहिए?

नाई-हाँ वहिन जी, चल कर दे दीजिए।

निर्मला-अच्छा चलती हूँ। पहले यह वता, तू दूल्हा के बड़े भाई को पहचानता है?

नाई-पहचानता काहे नहीं, वह क्या सामने हैं।

निर्मला-कहाँ, मैं तो नहीं देखती?

नाई-अरे, वह क्या घोड़े पर सवार हैं? वही तो हैं।

निर्मला ने चकित होकर कहा-क्या कहता है, घोड़े पर दूल्हा के भाई हैं! पहचानता है या अटकल से कह रहा है? नाई-अरे वहिन जी, क्या इतना भूल जाऊँगा? अभी तो जल-पान का सामान दिए चला आता हूँ।

निर्मला-अरे, यह तो डॉक्टर साहब हैं, मेरे पड़ोस में रहते हैं।

नाई-हाँ हाँ, वही तो डॉक्टर साहब हैं।

निर्मला ने सुधा की ओर देख कर कहा-सुनती हो बहिन इसकी बातें?

सुधा ने हँसी रोक कर कहा-झूठ बोलता है।

नाई-अच्छा साहब, झूठ ही सही; अब बड़ों के मुँह कौन लगे। अभी शास्त्री जी से पुछवा दूंगा, तब तो मानिएगा?

नाई के आने में देर हुई, तो मोटेराम ख़ुद आँगन में आकर शोर मचाने लगे-इस घर की मर्याद रखना ईश्वर ही के हाथ है। नाई घण्टे भर से आया हुआ है, और अभी तक रुपए नहीं मिले।

निर्मला-जरा यहाँ चले आइएगा; शास्त्री जी? कितने रुपए दरकार हैं, निकाल दूँ?

शास्त्री जी भुनभुनाते और ज़ोर-ज़ोर से हाँफते हुए ऊपर आए; और एक लम्बी साँस लेकर बोले-क्या है? यह बातों का समय नहीं है। जल्दी से रुपए निकाल दो।

निर्मला-लीजिए, निकाल तो रही हूँ। अब क्या मुँह के, वल गिर पड़ें। पहले यह बताइए कि दूल्हा के बड़े भाई कौन हैं।

शास्त्री जी-राम-राम, इतनी सी बात के लिए मुझे आकाश पर लटका दिया। नाई क्या न पहचानता था? निर्मला-नाई तो कहता है कि वह जो घोड़े पर सवार हैं, वही है।

शास्त्री जी-तो फिर और किसे बता दे? वही तो हैं ही।

नाई-घड़ी भर से कह रहा हूँ; पर बहिन जी मानती ही नहीं। निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, ममता, विनोद और कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा-अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र-खेल रही थीं। मैं जानती तो तुम्हें यहाँ बुलाती ही नहीं। ओफ्कोह! बड़ा गहरा पेट है तुम्हारा!! तुम महीनों से मेरे साथ यह शरारत करती चली आती हो; और कभी भूल से भी इस विषय का एक शब्द तुम्हारे मुँह से नहीं निकला । मैं तो दो-चार ही दिन में उबल पड़ती।

सुधा-तुम्हें मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहाँ आती ही क्यों? '

निर्मला-गज़ब रे गज़ब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूँ। तुम्हारे ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा। देखी कृष्णा तूने अपनी जेठानी की शरारत? यह ऐसी मायाविनी हैं, इनसे डरती रहना!

कृष्णा-मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढ़ाऊँगी। धन्य भाग कि उनके दर्शन हुए?

निर्मला-अब समझ गई। रुपए भी तुम्हीं ने भेजवाए होंगे। अब सिर हिलाया तो सच कहती हूँ, मार बैठूँगी।

सुधा-अपने घर बुला कर मेहमान का अपमान नहीं किया जाता। निर्मला—देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरें लेती हूँ। मैंने तुम्हारा मान रखने को ज़रा सा लिख दिया था; और तुम सचमुच आ पहुँची। भला वहाँ वाले क्या कहते होंगे?

सुधा—सब से कह कर आई हूँ।

निर्मला—अब तुम्हारे पास कभी न आऊँगी। इतना तो इशारा कर देती कि डॉक्टर साहब से परदा रखना।

सुधा—उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई। न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़ कर कैसी चीज़ खोदी! अब तो तुम्हें देख कर लाला जी हाथ मल कर रह जाते हैं। मुँह से तो कुछ नहीं कहते; पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं।

निर्मला—अब तुम्हारे घर कभी न जाऊँगी।

सुधा—अब पिण्ड नहीं छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नहीं देखी है।

द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठे जल-पान कर रहे थे। मुन्शी तोताराम की बग़ल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे। निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें बैठे देखा और कलेजा थाम कर रह गई। एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, दूसरा......इस विषय में कुछ न कहना ही उचित है।

निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था; पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार यही जी चाहता था कि बुला कर खूब फटकारूँ, ऐसे-ऐसे ताने मारूँ कि वह भो याद करें,रुला-रुला कर छोडूँ मगर सहम करके रह जाती थी। बारात जनवासे चली गई थी। भोजन की तैयारी हो रही थी। निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी, सहसा महरी ने आकर कहा-बिट्टी, तुम्हें सुधा रानी बुला रही हैं। तुम्हारे कमरे में बैठी हैं।

निर्मला ने थाल छोड़ दिए और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अन्दर कदम रखते ही ठिठक गई-डॉक्टर सिन्हा खड़े थे।

सुधा ने मुस्करा कर कहा-लो बहिन,बुला दिया। अब जितना चाहो,फटकारो। मैं दरवाजा रोके खड़ी हूँ,भाग नहीं सकते।

डॉक्टर साहब ने गम्भीर भाव से कहा-भागता कौन है यहाँ तो सिर झुकाए खड़ा हूँ।

निर्मला ने हाथ जोड़ कर कहा-इसी तरह सदा कृपा-दृष्टि रखिएगा,भूल न जाइएगा! यही मेरी विनय है!!