निर्मला/१७

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निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
[ १९७ ]
 

सत्रहवाँ परिच्छेद

कृष्णा के विवाह के बाद सुधा चली गई; लेकिन निर्मला मैके ही में रह गई। वकील साहब बार-बार लिखते थे; पर वह न जाती थी। वहाँ जाने को उसका जी ही न चाहता था। वहाँ कोई ऐसी चीज़ न थी, जो उसे खींच ले जाय। यहाँ माता की सेवा और छोटे भाइयों की देख-भाल में उसका समय बड़े आनन्द से कट जाता था। वकील साहब ख़ुद आते, तो शायद वह जाने पर राज़ी हो जाती; लेकिन इस विवाह में मुहल्ले की कई स्त्रियों ने उनकी वह दुर्गति की थी कि बेचारे आने का नाम ही न लेते थे। सुधा ने भी कई बार पत्र लिखा; पर निर्मला ने उससे भी हीले-हवाले किए। आख़िर एक दिन सुधा ने नौकर को साथ लिया; और स्वयं आ धमकी!

जब दोनों गले मिल चुकीं, तो सुधा ने कहा—तुम्हें तो वहाँ जाते मानो डर लगता है। [ १९८ ]निर्मला-हाँ बहिन, डर तो लगता है। ब्याह की गई तीन साल में आई; अब की तो वहाँ उम्र ही खतम हो जायगी; फिर कौन बुलाता है;और कौन आता है?

सुधा-आने को क्या हुआ; जब जी चाहे चली आना। वहाँ वकील साहब बेचैन हो रहे हैं।

निर्मला-बहुत बेचैन, रात को शायद नींद न आती हो?

सुधा-बहिन, तुम्हारा कलेजा पत्थर का है। उनकी दशा देख कर तरस आता है। कहते थे, घर में कोई पूछने वाला नहीं, न कोई लड़का न बाला, किससे जी बहलावें? जब से दूसरे मकान में उठ आए हैं, बहुत दुखी रहते हैं।

निर्मला-लड़के तो ईश्वर के दिए दो-दो हैं।

सुधा-उन दोनों की तो बड़ी शिकायत करते थे। जियाराम तो अब बात ही नहीं सुनता-तुरकी बतुरकी जवाब देता है। रहा छोटा, वह भी उसी के कहने में है। वेचारे बड़े लड़के को याद करके रोया करते हैं!

निर्मला-जियाराम तो शरीर न था, वह बदमाशी कब से सीख गया? मेरी तो कोई बात न टालता था-इशारे पर काम करता था।

सुधा-क्या जाने बहिन! सुना, कहता है आप ही ने भैया को जहर देकर मार डाला-आप हत्यारे हैं। कई बार तुमसे विवाह करने के लिए ताने दे चुका है। ऐसी-ऐसी बातें कहता है कि [ १९९ ]वकील साहव रो पड़ते हैं। अरे और तो क्या कहूँ, एक दिन पत्थर उठा कर मारने दौड़ा था!

निर्मला ने गम्भीर चिन्ता में पड़ कर कहा-यह लड़का तो वड़ा शैतान निकला। उससे यह किसने कहा कि उसके भाई को उन्होंने जहर दे दिया है।

सुधा-वह तुम्हीं से ठीक होगा।

निर्मला को यह नई चिन्ता पैदा हुई! अगर जिया का यही रङ्ग है-अपने वाप से लड़ने पर तैयार रहता है,तो मुझसे क्यों दवने लगा? वह रात को बड़ी देर तक इसी फिक्र में डूबी रही। मन्साराम की आज उसे बहुत याद आई। उसके साथ जिन्दगी आराम से कट जाती। इस लड़के का जब अपने पिता के सामने ही यह हाल है,तो उनके पीछे उसके साथ कैसे निबाह होगा। घर हाथ से निकल ही गया। कुछ न कुछ क़र्ज़ अभी सिर पर होगा ही! आमदनी का यह हाल!! ईश्वर ही बेड़ा पार लगावेंगे! आज पहली बार निर्मला को बच्ची की फिक्र पैदा हुई! इस वेचारी का न जाने क्या हाल होगा? ईश्वर ने यह विपत्ति भी सिर डाल दी! मुझे तो इसकी ज़रूरत न थी। जन्म ही लेना था,तो किसी भाग्यवान् के घर जन्म लेती। बच्ची उसकी छाती से लिपटी हुई सो रही थी। माता ने उसको और भी चिमटा लिया, मानो कोई उसके हाथ से उसे छीने लिए जाता है!!

निर्मला के पास ही सुधा की चारपाई भी थी। निर्मला तो चिन्ता-सागर में गोता खा रही थी;और सुधा मीठी नींद का [ २०० ]आनन्द उठा रही थी। क्या उसे अपने बालक की फिक्र सताती है? मृत्यु तो बूढ़े और जवान का भेद नहीं करती;फिर सुधा को क्यों कोई चिन्ता नहीं सताती। उसे तो कभी भविष्य की चिन्ता से उदास नहीं देखा!

सहसा सुधा की नींद खुल गई। उसने निर्मला को अभी तक जागते देखा,तो बोली-अरे! अभी तुम सोई नहीं?

निर्मला-नींद ही नहीं आती!

सुधा-आँखें बन्द कर लो, आप ही नींद आ जायगी। मैं तो चारपाई पर आते ही मर सी जाती हूँ। वह जागते भी हैं, तो खबर नहीं होती। न जाने मुझे क्यों इतनी नींद आती है? शायद कोई रोग है।

निर्मला-हाँ, बड़ा भारी रोग है। इसे राज-रोग कहते हैं। डॉक्टर साहब से कहो-दवा शुरू कर दें। .

सुधा-तो आखिर जाग कर क्या सोचूँ। कभी-कभी मैके की याद आ जाती है,तो उस दिन जरा देर में आँख लगती है।

निर्मला डॉक्टर साहब की चाद नहीं आती?

सुधा-कभी नहीं, उनको याद क्यों आए? जानती हूँ कि टेनिस खेल कर आए होंगे; खाना खाया होगा और आराम से लेटे होंगे।

निर्मला-लो,सोहन भी जाग गया। जब तुम जाग गई,तो भला वह क्यों सोने लगा?

सुधा-हाँ वहिन,इसकी अजीब आदत है। मेरे साथ सोता [ २०१ ]है और मेरे ही साथ जागता है। उस जन्म का कोई तपस्वी है। देखो,इसके माथे पर तिलक का कैसा निशान है। बाँहो पर भी ऐसे ही निशान हैं। जरूर कोई तपस्वी है।

निर्मला-तपस्वी लोग तो चन्दन-तिलक नहीं लगाने। उस जन्म का कोई धूर्त पुजारी होगा। क्यों रे,तू कहाँ का पुजारी था? बता!

सुधा-इसका व्याह में बच्ची से करूँगी!

निर्मला-चलो बहिन,गाली देती हो। बहिन से भी भाई का व्याह होता है?

सुधा-मैं तो करूँगी,चाहे कोई कुछ कहे। ऐसी सुन्दर बहू और कहाँ पाऊँगी। जरा देखो तो बहिन,इसकी देह कुछ गर्म है या मुझ ही को मालूम होती है!

निर्मला ने सोहन का माथा छूकर कहा-नहीं,नहीं,देह गर्म है। यह ज्वर कब आ गया? दूध तो पी रहा है न?

सुधा-अभी सोया था,तब तो देह ठण्डी थी। शायद सर्दी लग गई, ओढ़ा कर सुलाए देती हूँ। सवेरे तक ठीक हो जायगा।

सबेरा हुआ तो सोहन की दशा और भी खराब हो गई। उसकी नाक बहने लगी और बुखार और भी तेज हो गया। आँखें चढ़ गई और सिर झुक गया। न वह हाथ पैर हिलाता था, न हँसता-बोलता था;बस चुपचाप पड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उसे इस वक्त किसी का बोलना अच्छा नहीं लगता। [ २०२ ]कुछ-कुछ खाँसी भी आने लगी। अब तो सुधा घबराई। निर्मला की भी राय हुई कि डॉक्टर साहब को बुलाया जाय;लेकिन उसकी बूढ़ी माता ने कहा-डॉक्टर-हकीम का यहाँ कुछ काम नहीं। साफ तो देख रही हूँ कि बच्चे को नजर लग गई है। भला डॉक्टर आकर क्या करेगा?

सुधा-अम्माँ जी,भला यहाँ नज़र कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहर कहीं गया भी नहीं!

माता-नज़र कोई लगाता नहीं बेटी,किसी-किसी आदमी की दीठ ही बुरी होती है-आप ही आप लग जाती है। कभी-कभी माँ-बाप तक की नजर लग जाती है। जबसे आया है,एक बार भी नहीं रोया। चोचले बच्चों की यही गति होती है। मैं तो इसे हुमकते देख कर डरी थी कि कुछ न कुछ अनिष्ट होने वाला है। आँखें नहीं देखती हो कितनी चढ़ गई हैं। यही नजर की सबसे बड़ी पहिचान है।

बुढ़िया महरी और पड़ोस की पण्डिताइन ने इस कथन का अनुमोदन कर दिया। बस,मँहगू ओझा बुला लिया गया। मँहगू ने आकर बच्चे का मुंह देखा और हँस कर बोला-मालिकिन,यह दीठ है और कुछ नहीं। जरा पतली-पतली तीलियाँ तो मँगवा दीजिए। भगवान् ने चाहा,तो सझा तक बच्चा हँसने-खेलने लगेगा।

सरकण्डे के पाँच टुकड़े लाए गए। मँहगू ने उन्हें बराबर करके एक डोरे से बाँध दिया और कुछ बुदबुदा कर उसी पोले [ २०३ ]हाथों से पाँच बार सोहन का सिर सुहलाया। अब जो देखा,तो पाँचों तीलियाँ छोटी-बड़ी हो गई थी। सव स्त्रियाँ यह कौतुक देख कर दङ्ग रह गई। अब नजर में किसे सन्देह हो सकता था? मँहगू ने फिर बच्चे को तीलियों से सुहलाना शुरू किया। अब की तीलियाँ बराबर हो गई। केवल थोड़ा सा अन्तर रह गया। यह इस बात का प्रमाण था कि नज़र का असर अब थोड़ा सा और रह गया है। मॅहगू सबको दिलासा देकर शाम को फिर आने का वायदा करके चला गया। बालक की दशा दिन को और भी खराब हो गई। खाँसी का जोर हो गया। शाम के समय मँहगू ने आकर फिर तीलियों का तमाशा किया। इस वक्त पाँचों तीलियाँ वरावर निकलीं। स्त्रियाँ निश्चिन्त हो गई लेकिन सोहन को सारी रात खाँसते गुजरी। यहाँ तक कि कई वार उसकी आँखें उलट गई। सुधा और निर्मला दोनों ने बैठ कर सवेरा किया। खैर,रात कुशल से कट गई। अब वृद्धा माता जी नया रङ्ग लाई। मॅहगू नज़र न उतार सका,इसलिए अब किसी मौलवी से फूंक डलवाना जरूरी हो गया। सुधा फिर भी अपने पति को सूचना न दे सकी। महरी सोहन को एक चादर से लपेट कर एक मस्जिद में ले गई; और फूंक डलवा लाई। शाम को भी फूंक छोड़ी गई,पर सोहन ने सिर न उठाया। रात आ गई, सुधा ने आज मन में निश्चय किया कि रात कुशल से बीतेगी,तो प्रातःकाल पति को तार दूंगी।

लेकिन रात कुशल से न बीतने पाई! आधी रात जाते-जाते [ २०४ ]बच्चा हाथ से निकल गया!! सुधा की जीवन-सम्पत्ति देखते-देखते उसके हाथों से छिन गई!!!

वही जिसके विवाह का दो दिन पहले विनोद हो रहा था, आज सारे घर को रुला रहा है। जिसकी भोली-भाली सूरत देख कर माता की छाती फूल उठती थी,उसी को देख कर आज माता की छाती फटी जाती है। सारा घर सुधा को समझाता था;पर उसके आँसू न थमते थे, सब न होता था। सबसे बड़ा दुख इस बात का था कि पति को कौन मुँह दिखाऊँगी। उन्हें खबर तक न दी!

रात ही को तार दे दिया गया और दूसरे दिन डॉक्टर सिन्हा नौ बजते-बजते मोटर पर आ पहुँचे। सुधा ने उनके आने की खबर पाई, तो और भी फूट-फूट कर रोने लगी। बालक की जल-क्रिया हुई, डॉक्टर साहब कई बार अन्दर आए; किन्तु सुधा उनके पास न गई। उनके सामने कैसे जाय? उन्हें कौन मुँह दिखाए? उसने अपनी नादानी से उनके जीवन का रत्न छीन कर दरिया में डाल दिया। अब उनके पास जाते उसकी छाती के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे। बालक को उसकी गोद में देख कर पति की आँखें चमक उठती थीं। बालक उमक कर पिता की गोद में चला जाता था। माता फिर बुलाती, तो पिता की छाती से चिमट जाता था; और लाख चुमकारने-दुलारने पर बाप की गोद न छोड़ता था। तब माँ कहती थी-बड़ा मतलबी है। आज वह किसे गोद में लेकर पति के पास जायगी! उसकी सूनी गोद [ २०५ ]देखकर कही वह चिल्ला कर रो नपड़ें! पति के सम्मुख जाने की अपेक्षा उसे मर जाना कहीं आसान जान पड़ता था। वह एक क्षण के लिए भी निर्मला को न छोड़ती थी कि कहीं पति से सामना न हो जाय!

निर्मला ने कहा-बहिन, अब जो होना था वह तो हो ही चुका; अब उनसे कब तक भागती फिरोगी। रात ही को चले जायेंगे, अम्मां कहती थीं।

सुधा ने सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा-कौन मुँह लेकर उनके पास जाऊँ? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरे पाँव न थर्राने लगें और मैं गिर न पड़ूं!

निर्मला-चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ। तुम्हें सँभाले रहूँगी।

सुधा-मुझे छोड़ कर भाग तो न आ ओगी?

निर्मला-नहीं-नहीं, भागेंगी नहीं।

सुधा-मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है। मैं इतना घोर वजृपात होने पर भी बैठी हूँ, मुझे यही आश्चर्य हो रहा है! सोहन को वह बहुत प्यार करते थे; बहिन! न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आप ही रोती रहूँगी। क्या रात ही को चले जायेंगे?

निर्मला-हाँ, अम्माँ जी कहती थीं, छुट्टी नहीं ली है। दोनों सहेलियाँ मर्दाने कमरे की ओर चली; लेकिन कमरे के द्वार पर पहुँच कर सुधा ने निर्मला को विदा कर दिया। अकेली कमरे में दाखिल हुई।

डॉक्टर साहव घवरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा [ २०६ ]हो रही है! भाँति-भाँति की शङ्काएँ मन में आ रही थीं! जाने को तैयार तो बैठे थे; लेकिन जी न चाहता था! जीवन शून्य सा मालूम होता था। मन ही मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी। वह आजन्म निस्सन्तान रह सकते थे; पर सन्तान पाकर उससे वञ्चित हो जाना उन्हें असह्य जान पड़ता था। 'क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव-जीवन का महत्व है! वह केवल बालकों का. घरोंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है, न बिगड़ने का। फिर बालकों को भी तो अपने घरोंदों से-अपनी कागज़ की नावों से-अपने लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है! अच्छे खिलौने को वह जान के पीछे छिपा कर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है, तो विचिन्न बालक है!"

किन्तु बुद्धि तो ईश्वर का यह रूप स्वीकार नहीं करती। अनन्त सृष्टि का कर्ता उद्दण्ड बालक नहीं हो सकता। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्धि की पहुँच से बाहर हैं । खिलाड़ीपन तो उन महान गुणों में नहीं! क्या हँसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना कोई खेल है? क्या ईश्वर ऐसे पैशाचिक खेल खेलता है।

सहसा सुधा दबे पाँव कमरे में दाखिल हुई! डॉक्टर साहब . 'उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले-तुम कहाँ थीं सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था! [ २०७ ]सुधा की आँखों में कमरा तैरता हुआ जान पड़ा। पति की गर्दन में हाथ डाल कर उसने उनकी छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी; लेकिन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैर्य और सान्त्वना का अनुभव हो रहा था। पति के वक्षस्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र स्फूर्ति और बल का सञ्चार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक अञ्चल की आड़ में आ गया हो!

डॉक्टर साहब ने रमणी के अनु-सिञ्चित कपोलों को दोनों हाथों में लेकर कहा-सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था; फिर वह क्यों बैठा रहता। जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है। लेकिन पवन के प्रवल झोकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भॉति प्रणय भी दुख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी में साथ हँसने वाले बहुतेरे मिल जाते हैं। रज में जो साथ रोये, वही हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीव हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जाने? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिलकुल मिटा दिया।आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरूप देखा है!

सुधा ने सिसकते हुए कहा-मैं नज़र के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुंह भी नहीं देखने पाए!! न जाने इन दिनों उसे इतनी समझ कहाँ से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता, तो अपने कष्ट भूल कर मुस्करा देता। तीसरे ही दिन मेरे लाडले की आँखें बन्द हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पाई। [ २०८ ]यह कहते-कहते सुधा के आँसू फिर उमड़ आए। डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगा कर करुणा से काँपती हुई आवाज में कहा-प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्ध न मरा होगा, जिसके घर वालों को उसके दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई हो!

सुधा-निर्मला ने मेरी बड़ी मदद की! मैं तो एकाध झपकी ले भी लेती थी; पर उनकी आँखें नहीं झपकी। रात-रात लिए बैठी या टहलाती रहती थी। उसके एहसान कभी न भूलूंगी। क्या तुम आज ही जा रहे हो?

डॉक्टर-हाँ, छुट्टी लेने का मौका न था। सिविल-सर्जन शिकार खेलने गया हुआ था।

सुधा-यह सब हमेशा शिकार ही खेला करते हैं?

डॉक्टर-राजाओं का और काम ही क्या है?

सुधा-मैं तो आज न जाने दूंगी।

डॉक्टर-जी तो मेरा भी नहीं चाहता।

सुधा--तो मत जाओ; तार दे दो! मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। निर्मला को भी लेती चलूँगी।।

सुधा वहाँ से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हलका हो गया था! पति की प्रेमपूर्ण कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और सन्ताप को हरण कर लिया था। प्रेम में असीम विश्वास है, असीम धैर्य है। और असीम बल है!!