निर्मला/२१

विकिस्रोत से
निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
[ २४४ ]
 

इक्कीसवाँ परिच्छेद

रूक्मिणी ने निर्मला से त्योरियाँ बदल कर कहा-क्या नङ्गे पाँव ही मदरसे जायगा?

निर्मला ने बच्ची के बाल गूँथते हुए कहा-मैं क्या करूँ,मेरे पास रुपए नहीं हैं।

रुक्मिणी-गहने बनवाने को रुपए जुड़ते हैं,लड़के के जूतों के लिए रुपयों में आग लग जाती है। दो तो चले ही गए,क्या तीसरे को भी रुला-रुला कर मार डालने का इरादा है?

निर्मला ने एक साँस खींच कर कहा-जिसको जीना है जिएगा, जिसको मरना है मरेगा; मैं किसी को मारने-जिलाने नहीं जाती?

आजकल एक न एक बात पर निर्मला और रुक्मिणी में रोज़ ही एक झपट हो जाती थी। जब से गहने चोरी गए हैं, निर्मला का स्वभाव बिलकुल बदल गया है! वह एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ने लगी है। सियाराम रोते-रोते चाहे जान दे दे, [ २४५ ]मगर उसे मिठाई के लिए पैसे नहीं मिलते; और वह वर्ताव कुछ सियाराम ही के साथ नहीं है,निर्मला स्वयं अपनी जरूरतों को टालती रहती है। धोती जब तक फट कर तार-तार न हो जाय, नई धोती नहीं आती, महीनों सिर का तेल नहीं मँगाया जाता, पान खाने का उसे शौक था, अब कई-कई दिन तक पानदान खाली पड़ा रहता है, यहाँ तक कि बच्ची के लिए दूध भी नहीं आता। नन्हें से शिशु का भविष्य विराट रूप धारण करके उसके -विचार क्षेत्र पर मँडराता रहता है।

मुन्शी जी ने अपने को सम्पूर्णतः निर्मला के हाथों में सौंप दिया है। उसके किसी काम में दखल नहीं देते। न जाने क्यों उससे कुछ दवे रहते हैं। वह अब बिला नागा कचहरी जाते हैं। इतनी मेहनत उन्होने जवानी में भी न की थी। ऑखें खराब हो गई हैं, डॉक्टर सिन्हा ने रात को लिखने-पढ़ने की मुमानियत कर दी है, पाचन-शक्ति पहले ही दुर्वल थी, अब और भी खराब हो गई है, दम की शिकायत भी पैदा हो चली है; पर वेचारे सबेरे से आधी रात तक काम करते रहते हैं। काम करने को जी चाहे या न चाहे, तबीयत अच्छी हो या न हो, काम करना ही पड़ता है। निर्मला को उन पर जरा भी दया नहीं आती। वही भविष्य की भीषण चिन्ता उसके आन्तरिक सद्भ़ावों का सर्वनाश कर रही है। किसी भिक्षुक की आवाज सुन कर वह झल्ला पड़ती है। वह एक कौड़ी भी खर्च नहीं करना चाहती।

एक दिन निर्मला ने सियाराम को घी लाने के लिए बाजार [ २४६ ]भेजा। भुङ्गी पर उसका विश्वास न था,उससे अब कोई सौदा न मँगाती थी। सियाराम में काट-कपट की आदत न थी। आने के पौने करना न जानता था। प्रायः बाजार का सारा काम उसी को करना पड़ता। निर्मला एक-एक चीज़ को तोलती,जरा भी कोई चीज़ तोल में कम पड़ती, तो उसे लौटा देती। सियाराम का, बहुत सा समय इसी लौटा-फेरी में बीत जाता था। बाजार वाले उसे जल्दी कोई सौदा न देते। आज भी वही नौबत आई। सियाराम अपने विचार से तो बहुत अच्छा घी, कई दूकान देख कर लाया;लेकिन निर्मला ने उसे सूँघते ही कहा-घी खराब है। लौटा आओ।

सियाराम ने झुँझला कर कहा-इससे अच्छा घी बाजार में नहीं है, मैं सारी दूकानें देख कर लाया हूँ?

निर्मला-तो मैं झूठ कहती हूँ।

सिया-यह मैं नहीं कहता, लेकिन बनिया अब घी वापिस न लेगा। उसने मुझसे कहा था, जिस तरह देखना चाहो, यहीं देखो; माल तुम्हारे सामने है। बोहनी-बट्टे के वक्त मैं सौदा वापिस न लूंगा। मैं ने सूंघ कर,चख कर देख लिया। अब किस मुँह से लौटाने जाऊँ?

निर्मला ने दाँत पीस कर कहा-घी में साफ चरबी मिली हुई है; और तुम कहते हो घी अच्छा है। मैं इसे रसोई में न ले जाऊँगी, तुम्हारा जी चाहे लौटा दो चाहे खा जाओ।

घी की हाँडी वहीं छोड़ कर निर्मला घर में चली गई। सियाराम [ २४७ ]क्रोध और क्षोभ से कातर हो उठा। वह कौन मुँह लेकर लौटाने जाय। बनिया साफ कह देगा-मैं नहीं लौटाता। तब वह क्या करेगा? आसपास के दस-पाँच बनिये और सड़क पर चलने वाले आदमी खड़े हो जायँगे। उन सभों के सामने उसे लज्जित होना पड़ेगा। बाजार में यों ही कोई बनिया उसे जल्द सौदा नहीं देता, वह किसी दूकान पर खड़ा नहीं होने पाता। चारों ओर से उसी पर लताड़ पड़ेगी। उसने मन ही मन झुँझला कर कहा--पड़ा रहे घी, मैं लौटाने न जाऊँगा।

मातृ-विहीन बालक के समान दुखी, दीन प्राणी संसार में दूसरा नहीं होता। और सारे दुख भूल जाते हैं, बालक को माता की याद कभी नहीं भूलती। सियाराम को इस समय माता की याद आई। अम्माँ होती तो क्या आज मुझे यह सब सहना पड़ता। भैया भी चले गए,जियाराम भी चले गए, मैं ही अकेला यह विपत्ति सहने के लिए क्यों बच रहा? सियाराम की आँखों से आँसू की झड़ी लग गई। उसके शोक-कातर कण्ठ से एक गहरे निश्वास के साथ मिले हुए ये शब्द निकल आए-अम्माँ! तुम मुझे क्यों भूल गई, क्यों मुझे नहीं बुला लेतीं।

सहसा निर्मला फिर कमरे की तरफ आई। उसने समझा था सियाराम चला गया होगा। उसे बैठे देखा तो गुस्से से बोली-तुम अभी तक बैठे ही हो? आखिर खाना कब बनेगा?

सियाराम ने ऑखें पोंछ डाली। बोला-मुझे स्कूल जाने को, देर हो जायगी। [ २४८ ]निर्मला-एक दिन देर ही हो जायगी, तो कौन हरज है ? यह भी तो घर ही का काम है।

सिया-रोज तो यही धन्धा लगा रहता है । कभी वक्त पर नहीं पहुँचता । घर पर भी पढ़ने का वक्त नहीं मिलता। कोई सौदा वे दो-चार बार लौटाए नहीं लिया जाता । डाँट तो मुझ पर पड़ती है; शर्मिन्दा तो मुझे होना पड़ता है, आपको क्या ?

निर्मला-हाँ, मुझे क्या ? मैं तो तुम्हारी दुश्मन ठहरी अपना होता तब तो उसे दुख होता । मैं तो ईश्वर से मनाया करती हूँ कि तुम पढ़-लिख न सको। मुझमें तो सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं तुम्हारा कोई कुसूर नहीं । विमाता का नाम ही बुरा होता है। अपनी माँ विष भी खिलाए तो अमृत है । मैं अमृत भी पिलाऊँ तो विष हो जाय । तुम लोगों के कारण मिट्टी में मिल गई, रोते-रोते उम्र कटी जाती है। मालूम ही न हुआ कि भगवान ने किस लिए जन्म दिया था; और तुम्हारी समझ में मैं बिहार कर रही हूँ। तुम्हें सताने से मुझे मज़ा आता है । भगवान् भी नहीं पूछते कि सारी विपत्ति का अन्त हो जाता।

यह कहते-कहते निर्मला को आँखें भर आई। अन्दर चली गई । सियाराम उसको रोते देख कर सहम उठा । उसे ग्लानि तो नहीं आई; हाँ, यह शङ्का हुई कि न जाने कौनसा दण्ड मिले। चुपके से हाँडी उठा ली; और घी लौटाने चला, इस तरह जैसे कोई कुत्ता किसी नए गाँव में जाता है। उसी कुत्ते की भाँति उसकी मनोगत वेदना उसके एक-एक भाग से प्रकट हो रही [ २४९ ]थी। उसे देख कर साधारण बुद्धि का मनुष्य भी अनुमान कर सकता था कि यह अनाथ है।

सियाराम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था,आने वाले संग्राम के भय से उसकी हृदय-गति बढ़ती जाती थी। उसने निश्चय किया-बनिये ने घी न लौटाया,तो वहां;घी वहीं छोड़ कर चला आएगा। मखमार कर वनिया आप ही बुलावेगा। बनिये को डाटने के लिए भी उसने शब्द सोच लिए। वह कहेगा-क्यों साह जी, आँखों में धूल झोंकते हो? दिखाते हो चोखा माल और देते हो रद्दी माल? पर यह निश्चय करने पर भी उसके पैर आगे बहुत धीरे-धीरे उठते थे। वह यह न चाहता था कि बनिया उसे आता हुआ देखे, वह अकस्मात ही उसके सामने पहुँच जाना चाहता था। इसलिए वह चक्कर काट कर ।दूसरी गली से बनिये की दूकान पर गया।

बनिये ने उसे देखते ही कहा-हमने कह दिया था, हम सौदा वापिस न लेंगे। बोलो कहा था कि नहीं?

सियाराम ने बिगड़ कर कहा-तुमने वह घी कहाँ दिया, जो दिखाया था? दिखाया एक माल, दिया दूसरा माल; लौटाओगे कैसे नहीं? क्या कुछ राहजनी है?

साह-इससे चोखा घी बाजार में निकल आवे,तो जरीबाना दूं। उठा लो हाँडी और दो-चार दूकान देख आओ।

सिया-हमें इतनी फुर्सत नहीं है। अपना घी लौटा लो।

साह-घी न लौटेगा।

बनिये की दूकान पर एक जटाधारी साधु बैठा हुआ यह तमाशा [ २५० ]देख रहा था। उठ कर सियाराम के पास आया;और हाँडी का घी सूंघ कर बोला-बच्चा,धी तो बहुत अच्छा मालूम होता है।


साह ने शह पाकर कहा-बाबाजी,हम लोग तो आपही इनको घटिया सौदा नहीं देते। खराब माल क्या जाने-सुने गाहकों को दिया जाता है?

साधु-घी ले जाव बच्चा, बहुत अच्छा है।

सियाराम रो पड़ा। घी को बुरा सिद्ध करने के लिए उसके पास अक क्या प्रमाण था? बोला-वही तो कहती हैं घी अच्छा नहीं है; लौटा आओ। मैं तो कहता था घी अच्छा है।

साधु-कौन कहता है?

साह-इनकी अम्माँ कहती होंगी। कोई सौदा उनके मन ही नहीं भाता। बेचारे लड़के को बार-बार दौड़ाया करती हैं! सौतेली माँ हैं न! अपनी माँ हो तो कुछ ख्याल भी करे। साधु ने सियाराम को सदय नेत्रों से देखा; मानो उसे त्राण देने के लिए उसका हृदय विकल हो रहा है। तब करुण स्वर में बोला-तुम्हारी माता का स्वर्गवास हुए कितने दिन हुए बच्चा?

सियाराम-छठा साल है।

साधु-तब तो तुम उस वक्त बहुत ही छोटे रहे होगे। भगवान् तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है। इस दुधमुंहे बालक को तुमने मातृ-प्रेम से वञ्चित कर दिया। बड़ा अनर्थ करते हो;भगवान्! हा,छः साल का बालक और राक्षसी विमाता के पाले पड़े!धन्य हो दयानिधि! साह जी,बालक पर दया करो-धी लौटा लो;नहीं तो [ २५१ ]इसकी माता इसे घर में रहने न देगी। भगवान् की इच्छा से तुम्हारा धी जल्द विक जायगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा।

साह जी ने रुपए न वापस किए । आखिर लड़के को फिर घी लेने आना ही पड़ेगा । न जाने दिन में कितनी बार चकर लगाना पड़े और किस जालिए से पाला पड़े। उसकी दूकान में जो घी सबसे अच्छा था, वह उसने सियाराम को दिया । सियाराम दिल में सोच रहा था, बाबा जी कितने दयालु हैं। इन्होंने न सिफारिश की होती, तो साह जी क्यों अच्छा घी देते ।

सियाराम घी लेकर चला तो बाबा जी भी उसके साथ हो लिए । रास्ते में मीठी-मीठी बातें करने लगे :

बच्चा, मेरी माता भी मुझे तीन साल का छोड़ कर परलोक सिधारी थी। तभी से मातृ-विहीन बालकों को देखता हूँ, तो मेरा हृदय फटने लगता है।

सियाराम ने पूछा-आपके पिता जी ने भी दूसरा विवाह कर लिया था ?

साधु-हाँ बच्चा, नहीं तो आज साधु क्यों होता । पहले तो पिता जी विवाह न करते थे। मुझे बहुत प्यार करते थे। फिर न जाने क्यों मन बदल गया-विवाह कर लिया । साधु हूँ, कटु वचन मुंह से नहीं निकालना चाहिए; पर मेरी विमाता जितनी ही सुन्दरी थी, उतनी ही कठोर थी। मुझे दिन-दिन भर खाने को न देती, रोता तो मारती । पिता जी की आँखें भी फिर गई । उन्हें मेरी सूरत से घृणा होने लगी। मेरा [ २५२ ]रोना सुन कर मुझे पीटने लगते। अन्त को मैं एक दिन घर से निकल खड़ा हुआ।

सियाराम के मन में भी घर से निकल भागने का विचार कई बार हुआ था। इस समय भी उसके मन में यही विचार उठ रहा था। बड़ी उत्सुकता से बोला-घर से निकल कर आप कहाँ गए?

बाबा जी ने हँस कर कहा-उसी दिन मेरे सारे कष्टों का अन्त हो गया। जिस दिन घर के मोह-बन्धन से छूटा; और भय मन से निकला,उसी दिन मानो मेरा उद्धार हो गया। दिन भर तो मैं एक पुल के नीचे बैठा रहा। सन्ध्या समय मुझे एक महात्मा मिल गए। उनका नाम स्वामी परमानन्द जी था। वे बाल-ब्रह्मचारी थे। मुझ पर उन्होंने दया की, और अपने साथ रख लिया। उनके साथ मैं देश-देशान्तरों में घूमने लगा। वह बड़े अच्छे योगी थे। मुझे भी उन्होंने योग-विद्या सिखाई। अब तो मेरे को इतना अभ्यास हो गया है कि जब इच्छा होती है, माता जी के दर्शन कर लेता हूँ। उनसे बातें कर लेता हूँ।

सियाराम ने विस्फरित नेत्रों से देख कर पूछा-आपकी माता का तो देहान्त हो चुका था?

साधु-तो क्या हुआ बच्चा, योग-विद्या में यह शक्ति है कि जिस मृत-आत्मा को चाहे बुला ले।

सियाo-मैं योग-विद्या सीख लूं, तो मुझे भी माता जी के दर्शन होंगे? [ २५३ ]साधु-अवश्य! अभ्यास से सब कुछ हो सकता है। हॉ, योग्य गुरु चाहिए। योग से बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। जितना धन चाहो,पलमात्र में मॅगा सकते हो। कैसी ही बीमारी हो,उसकी औषधि बता सकते हो।

सिया०-आपका स्थान कहाँ है?

साधु-बच्चा,मेरे को स्थान कहीं नहीं है। देश-देशान्तरों में रमता फिरता हूँ। अच्छा बच्चा,अव तुम जाव,मैं जरा स्नान-ध्यान करने जाऊँगा।

सिया-चलिए मैं भी उसी तरफ चलता हूँ। आपके दर्शनों से जी नहीं भरा।

साधु-नहीं बच्चा,तुम्हें पाठशाले जाने को देर हो रही है।

सिया-फिर आपके दर्शन कब होंगे?

साधु-कभी आ जाऊँगा बच्चा,तुम्हारा घर कहाँ है?

सियाराम प्रसन्न होकर बोला-चलिएगा मेरे घर;बहुत नज़दीक है। आपकी बड़ी कृपा होगी।

सियाराम कदम बढ़ा कर आगे-आगे चलने लगा। इतना प्रसन्न था, मानो सोने की गठरी लिए जाता हो। घर के सामने पहुँच कर बोला-आइए,बैठिए कुछ देर ।

साधु-नहीं बच्चा,बैठूंगा नहीं।फिर कल-परसों किसी समय आ जाऊँगा,यही तुम्हारा घर है?

सिया०-कले किस वक्त.आइएगा।

साधु-निश्चय नहीं कह सकता। किसी समय आ जाऊँगा। [ २५४ ]साधु आगे बढ़े तो थोड़ी ही दूर पर उन्हें एक दूसरा साधु मिला। इसका नाम था हरिहरानन्द।

परमानन्द ने पूछा-कहाँ-कहाँ.की शैर की? कोई शिकार फँसा?

हरिहरानन्द-इधर तो चारों तरफ घूम आया,कोई शिकार न मिला। एकाध मिला भी तो मेरी हँसी उड़ाने लगा।

परमानन्द-मुझे तो एक मिलता हुआ जान पड़ता है। फंस जाय तो जानें।

हरिहरानन्द-तुम योंही कहा करते हो। जो आता है,दो-एक दिन के वाद निकल भागता है।

परमानन्द-अबकी भागेगा,देख लेना। इसकी माँ मर गई है। बाप ने दूसरा विवाह कर लिया है। माँ भी सताया करती है। घर से ऊबा हुआ है।

हरिहरानन्द-हाँ,यह मामला है तो अवश्य फंसेगा। लासा लगा दिया है न?

परमानन्द-खूब अच्छी तरह। यही तरकीब सबसे अच्छी है।पहले इसका पता लगा लेना चाहिए कि मुहल्ले में किन-किन घरों में विमाताएँ हैं। उन्हीं घरों में फन्दा डालना चाहिए।