निर्मला/२२

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निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
[ २५५ ]
 

बाईसवाँ

परिच्छेद

निर्मला न बिगड़ कर पूछा-इतनी देर कहाँ लगाई?

सियाराम ने ढिठाई से कहा-रास्ते में एक जगह सो गया था।

निर्मला-यह तो मैं नहीं कहती;पर जानते हो कै बज गए हैं? दस कभी के बज गए। बाजार कुछ दूर भी तो नहीं है।

सिया०-कुछ दूर नहीं। दरवाजे ही पर तो है।

निर्मला-सीधे से क्यों नहीं बोलते? ऐसा बिगड़ रहे हो जैसे मेरा ही कोई काम करने गए हो।

सिया०-तो आप व्यर्थ की बकवाद क्यों करती हैं? लिया हुआ सौदा लौटाना क्या आसान काम है। बनिये से घण्टों हुज्जत करनी पड़ी। वह तो कहो एक बाबा जी ने कह-सुन कर फेरवा दिया; नहीं तो किसी तरह न फेरता। रास्ते में एक मिनिट भी कहीं नहीं रुका,सीधा चला आता हूँ। [ २५६ ]निर्मला-घी के लिए गए-गए तो तुम ग्यारह बजे लौटे हो,लकड़ी के लिए जाओगे तो साँझ ही कर दोगे!'तुम्हारे बाबू जी,विना खाए ही चले गए। तुम्हें इतनी देर लगाना था,तो पहले ही क्यों न कह दिया। जाते हो लकड़ी के लिए?

सियाराम अब अपने को न सँभाल सका।झल्ला कर बोला-लकड़ी किसी और से मँगाइए।मुझे स्कूल जाने की देर हो रही है।

निर्मला-खाना न खाओगे?

सिया-न खाऊँगा।

निर्मला-मैं खाना बनाने को तैयार हूँ। हाँ,लकड़ी लाने नहीं जा सकती। सिया०-भुगी को क्यों नहीं भेजती?

निर्मला-भुङ्गी का लाया सौदा क्या तुमने कभी देखा। नहीं है?

सिया-तो मैं तो इस वक्त न जाऊँगा।

निर्मला-फिर मुझे दोप न देना।

सियाराम कई दिनों से स्कूल नहीं गया था। बाजार-हाट के मारे उसे किताबें देखने का समय ही न मिलता था। स्कूल जाकर झिड़कियाँ खाने,वैञ्च पर खड़े होने या ऊँची टोपी देने के सिवा और क्या मिलता। वह घर से कितावें लेकर चलता; पर शहर के बाहर जा कर किसी [ २५७ ]वृक्ष की छांह में बैठा रहता या पल्टनों की कवायद देखता। तीन बजे घर लौट आता।आज भी वह घर से चला;लेकिन बैठने में उसका जी न लगा-उस पर अतें अलग जल रही थीं। हा!अब उसे रोटियों के भी लाले पड़ गए। दस बजे क्या खाना न बन सकता था। माना कि बाबू जी चले गए थे। क्या मेरे लिए घर मे दो-चार पैसे भी न थे?अम्मॉ होती,तो इस तरह बिना कुछ खाए-पिए आने देती? मेरा अब कोई नहीं रहा!

सियाराम का मन बाबा जी के दर्शनों के लिए व्याकुल हो उठा। उसने सोचा-इस वक्त वह कहाँ मिलेंगे? कहाँ चल कर दस? उनकी मनोहर वाणी,उनकी उत्साह-प्रद सान्त्वना उसके मन को खींचने लगी। उसने आतुर होकर कहा-मैं उनके साथ ही क्यों न चला गया? घर पर मेरे लिए क्या रक्खा था?

वह आज यहाँ से चला,तो घर न जाकर सीधा घी वाले साह जी की दुकान पर गया। शायद बाबा जी से वहाँ मुलाक़ात हो जाय। पर वहाँ बाबा जी न थे। बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा लौट आया।

घर आकर बैठा ही था कि निर्मला ने आकर कहा-आज देर कहाँ लगाई। सवेरे खाना नहीं बना,क्या इस वक्त भी उपवास होगा। जाकर बाजार से कोई तरकारी लाओ।

सियाराम ने झल्ला कर कहा-दिन भर का भूखा चला आता हूँ, कुछ पानी पीने तक को नहीं लाई। ऊपर से बाजार जाने का हुक्म दे दिया। मैं नहीं जाता बाजार! किसी का नौकर [ २५८ ]
निर्मला
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नहीं हूँ। आखिर रोटियाँ ही तो खिलाती हो या और कुछ? ऐसी रोटियाँ जहाँ मेहनत करूँगा, वहीं मिल जायँगी। जब मजूरी ही करनी है, तो आपकी न करूँगा। जाइए, मेरे लिए खाना न बनाइएगा।

निर्मला अवाक् रह गई। लड़के को आज यह क्या हो गया? और दिन तो चुपके से जाकर काम कर लाता था, आज क्यों त्योरियाँ बदल रहा है? अब भी उसको यह न सूझी कि सियाराम को दो-चार पैसे कुछ खाने को दे दे। उसका स्वभाव इतना कृपण हो गया था। बोली―घर का काम करना तो मजूरी नहीं कहलाती। इसी तरह मैं भी कह कि दूँँ मैं खाना नहीं पकाती; तुम्हारे बाबू जी कह दें―मैं कचहरी नहीं जाता, तो क्या हो; बताओ? नहीं जाना चाहते मत जाओ, भुङ्गी से मँगा लूँगी। मैं क्या जानती थी कि तुम्हें बाज़ार जाना बुरा लगता है, नहीं तो बला से पैसे की चीज़ धेले की आती, तुम्हें न भेजती। लो, आज से कान पकड़ती हूँ।

सियाराम दिल में कुछ लज्जित तो हुआ; पर बाज़ार न गया। उसका ध्यान बाबा जी की ओर लगा हुआ था। अपने सारे दुखों का अन्त और जीवन की सारी आशाएँ उसे अब बाबा जी के आशीर्वाद में मालूम होती थीं। उन्हीं की शरण जाकर उसका यह आधारित जीवन सार्थक होगा। सूर्यास्त के समय वह अधीर हो गया। सारा बाज़ार छान मारा; लेकिन बाबा जी का कहीं पता न मिला। दिन भर का भूखा-प्यासा, वह अबोध बालक दुखते हुए दिल को हाथों से दबाए, आशा और भय की मूर्ति बना हुआ [ २५९ ]
दूकानों,गलियों और मन्दिरों में उस आशय को खोजता फिरता था,जिसके बिना उसे अपना जीवन दुस्सह हो रहा था। एक वार एक मन्दिर के सामने उसे कोई साधु खड़ा दिखाई दिया। उसने समझा वही हैं।हर्षोल्लास से वह फूल उठा।दौड़ा और जाकर साधु के पास खड़ा हो गया;पर यह कोई और ही महात्मा थे। निराश होकर आगे बढ़ गया।

धीरे-धीरे सड़कों पर सन्नाटा छा गया,घरों के द्वार वन्द होने लगे। सड़क की पटरियों पर और गलियों में बसखटे या बोरे विछा-विछा कर भारत की प्रजा सुख-निद्रा में मग्न होने लगी;लेकिन सियाराम घर न लौटा।उस घर से उसका दिल फट गया था,जहाँ किसी को उससे प्रेम न था,जहाँ वह किसी पराश्रित की भाँति पड़ा हुआ था । केवल इसीलिए कि उसे और कहीं शरण नहीं थी। इस वक्त भी उसके घर न जाने की किसे चिन्ता होगी? बाबू जी भोजन करके लोटे होंगे,अम्माँ जी भी आराम करने जा रही होंगी। किसी ने मेरे कमरे की ओर झाँक कर देखा भी न होगा। हाँ,बुआ जी घबड़ा रही होंगी। वही अभी तक मेरी राह देखती होंगी। जब तक मैं न जाऊँगा,भोजन न करेंगी।

रुक्मिणी की याद आते ही सियाराम घर की ओर चला। वह अगर और कुछ न कर सकती थी,तो कम से कम उसे गोद में चिमटा कर रोती तो थी। उसके वाहर से आने पर हाथ-मुँह धोने के लिए पानी तो रख देती थी। संसार में सभी वालक दूध की कुल्लियाँ नहीं करते, सभी सोने के कौर नहीं खाते। कितनों [ २६० ]
को पेट भर भोजन भी नहीं मिलता; पर घर से विरक्त वही होते हैं, जो मातृ-स्नेह से वञ्चित हैं।

सियाराम घर की ओर चला ही था कि सहसा बाबा परमानन्द एक गली से आते दिखाई दिए।

सियाराम ने जाकर उनका हाथ पकड़ लिया। परमानन्द ने चौंक कर पूछा -- बच्चा, तुम यहाँ कहाँ?

सियाराम ने बात बना कर कहा -- एक दोस्त से मिलने आया था। आपका स्थान यहाँ से कितनी दूर है?

परमानन्द -- हम लोग तो आज यहाँ से जा रहे हैं, बच्चा हरिद्वार की यात्रा है।

सियाराम ने हतोत्साह होकर कहा -- क्या आज ही, चले जाइएगा?

परमानन्द -- हाँ बच्चा, अब लौट कर आऊँगा तो दर्शन दूँगा।

सियाराम ने कातर कण्ठ से कहा -- लौट कर!

परमानन्द -- जल्द ही आऊँगा; बच्चा!

सियाराम ने दीन-भाव से कहा -- मैं भी आपके साथ चलूँगा।

परमानन्द -- मेरे साथ! तुम्हारे घर के लोग जाने देंगे?

सियाराम -- घर के लोगों को मेरी क्या पर्वाह है। इसके आगे सियाराम और कुछ न कह सका। उसके अश्रु-पूरिव नेत्रों ने उसकी करुण-गाथा उससे कहीं विस्तार के साथ सुना दी, जितनी उसकी वाणी कर सकती थी। [ २६१ ]परमानन्द ने बालक को कण्ठ से लगा कर कहा-अच्छा बच्चा, तेरी इच्छा है तो चल। साधु सन्तों की सङ्गति का भी आनन्द उठा। भगवान् की इच्छा होगी, तो तेरी इच्छा पूरी होगी।

दाने पर मँडराता हुआ पत्ती अन्त को दाने पर गिर पड़ा। उसके जीवन का अन्त पिंजरे में होगा या व्याध की छुरी के तले–यह कौन जानता है?