सामग्री पर जाएँ

निर्मला/२३

विकिस्रोत से
निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ २६२ से – २७० तक

 
 

तेईसवाँ परिच्छेद

मुन्शी जी पाँच बजे कचहरी से लौटे; और अन्दर आकर चारपाई पर गिर पड़े। बुढ़ापे की देह उस पर आज सारे दिन भोजन न मिला। मुँह सूख गया था। निर्मला समझ गई, आज दिन खाली गया।

निर्मला ने पूछा—आज कुछ न मिला?

मुन्शी जी—सारा दिन दौड़ते गुज़रा; पर हाथ कुछ न लगा।

निर्मला—फौज़दारी वाले मामले में क्या हुआ?

मुन्शी जी—मेरे मुवक्किल को सज़ा हो गई।

निर्मला—और पण्डित वाले मुक़दमे में?

मुन्शी जी—पण्डित पर डिग्री हो गई।

निर्मला—आप तो कहते थे दावा ख़ारिज हो जायगा।

मुन्शी जी—कहता तो था; और अब भी कहता हूँ कि दावा ख़ारिज हो जाना चाहिए था; मगर उतना सिर-मग़ज़न कौन करे? निर्मला -- और उस सीर वाले दावे में?

मुन्शी जी -- उसमें भी हार हो गई।

निर्मला -- तो आज आप किसी अभागे का मुँह देख कर उठे थे।

मुन्शी जी से अब काम बिलकुल न हो सकता था। एक तो उनके पास मुक़दमे आते ही न थे; और जो आते भी थे, वह बिगड़ जाते थे। मगर अपनी असफलताओं को वह निर्मला से छिपाते रहते थे। जिस दिन कुछ हाथ न लगता, उस दिन किसी से दो-चार रुपए उधार लाकर निर्मला को दे देते। प्रायः सभी मित्रों से कुछ न कुछ ले चुके थे। आज वह डौल भी न लगा।

निर्मला ने चिन्तापूर्ण स्वर में कहा -- आमदनी का यह हाल है, तो ईश्वर ही मालिक है; उस पर बेटे का यह हाल है कि बाज़ार जाना मुश्किल। भुङ्गी ही से सब काम कराने का जी चाहता है। घी लेकर ग्यारह बजे लौटे। कितना कह कर हार गई कि लकड़ी लेते आओ; पर सुना ही नहीं।

मुन्शी जी -- तो खाना नहीं पकाया?

निर्मला -- ऐसी ही बातों से तो आप मुक़दमे हारते हैं। ईंधन के बिना किसी ने खाना बनाया है कि मैं ही बना लेती!

मुन्शी जी -- तो बिना कुछ खाए ही चला गया?

निर्मला -- घर में और क्या रक्खा था जो खिला देती?

मुन्शी जी ने डरते-डरते कहा -- कुछ पैसे-वैसे न दे दिए?

निर्मला ने भौंहें सिकोड़ कर कहा -- घर में पैसे फलते हैं न?
मुन्शी जी ने कुछ जवाब न दिया। जरा देर तक तो प्रतीक्षा करते रहे कि शायद जल-पान के लिए कुछ मिलेगा; लेकिन जब निर्मला ने पानी तक न मँगवाया, तो बेचारे निराश होकर बाहर चले गए। सियाराम के कष्ट का अनुमान करके उनका चित्त चञ्चल हो उठा। सारा दिन गुज़र गया, बेचारे ने अभी तक कुछ नहीं खाया। कमरे में पड़ा होगा। एक बार भुङ्गी ही से लकड़ी मँगा ली जाती, तो ऐसा क्या नुकसान हो जाता। ऐसी किफ़ायत भी किस काम की कि घर के आदमी भूखे रह जायँ। अपना सन्दूक़चा खोल कर टटोलने लगे कि शायद दो-चार आने पैसे मिल जायँ। उसके अन्दर के सारे काग़ज़ निकाल डाले, एक-एक खाना देखा,नीचे हाथ डाल कर देखा; पर कुछ न मिला। अगर निर्मला के सन्दूक में पैसे न फलते थे,तो इस सन्दूक़चे में शायद इसके फूल भी न लगते हों; लेकिन संयोग ही कहिये कि काग़ज़ों को झाड़ते हुए एक चवन्नी गिर पड़ी। मारे हर्ष के मुन्शी जी उछल पड़े। बड़ी-बड़ी रक़में इसके पहले कमा चुके थे; पर यह चवन्नी पाकर इस समय उन्हें जितना आह्लाद हुआ, उतना पहले कभी न हुआ था। चवन्नी हाथ में लिए हुए सियाराम के कमरे के सामने आकर पुकारा। कोई जबाब न मिला। तब कमरे में जाकर देखा। सियाराम का कहीं पता नहीं -- क्या अभी स्कूल से नहीं लौटा? मन में यह प्रश्न उठते ही मुन्शी जी ने अन्दर जाकर भुङ्गी से पूछा। मालूम हुआ कि स्कूल से लौट आए।

मुन्शी जी ने पूछा -- कुछ पानी पिया है?
भुङ्गी ने कुछ जवाब न दिया। नाक सिकोड़ कर मुँह फेरे हुए चली गई।

मुन्शी जी आहिस्ता-आहिस्ता आकर अपने कमरे में बैठ गए। आज पहली बार उन्हें निर्मला पर क्रोध आया; लेकिन एक ही क्षण में क्रोध का आघात अपने ऊपर होने लगा। उस अँधेरे कमरे में फ़र्श पर लेटे हुए वह अपने को पुत्र की ओर से इतने उदासीन हो जाने पर धिक्कारने लगे। दिन भर के थके थे। थोड़ी ही देर में उन्हें नींद आ गई।

भुङ्गी ने आकर पुकारा -- बाबू जी, रसोई तैयार है। मुन्शी जी चौंक कर उठ बैठे। कमरे में लैम्प जल रहा था।

पूछा -- कै बज गए भुङ्गी। मुझे तो नींद आ गई थी।

भुङ्गी ने कहा -- कोतवाली के घण्टे में तो नौ बज गए हैं; और हम नाहीं जानित।

मुन्शी जी -- सिया बाबू आए?

भुङ्गी -- आए होंगे तो घर ही में न होंगे।

मुन्शी जी ने झुॅझला कर पूछा -- मैं पूछता हूॅ आए कि नहीं? और तू न जाने क्या-क्या जवाब देती है? आए कि नहीं?

भुङ्गी -- मैंने तो नहीं देखा, झूठ कैसे कह दूॅ।

मुन्शी जी फिर लेट गए और बोले -- उनको आ जाने दे,तब चलता हूँ।

आध घण्टे तक द्वार की ओर आँख लगाए मुन्शी जी लेटे रहे। तब वह उठ कर बाहर आए; और दाहिने हाथ कोई दो

फ़र्लाङ्ग तक चले। तब लौट कर द्वार पर आए और; पूछा -- सिया बाबू आ गए?

अन्दर से जवाब आया -- अभी नहीं।

मुन्शी जी फिर बाँईं ओर चले और गली के नुक्कड़ तक गए। सियाराम कहीं न दिखाई दिया। वहाँ से फिर घर लौटे; और द्वार पर खड़े होकर पूछा -- सिया बाबू आ गए?

अन्दर से जवाब मिला -- नहीं।

कोतवाली के घण्टे में दस बजने लगे।

मुन्शी जी बड़े वेग से कम्पनी बाग की तरफ़ चले। सोचने लगे शायद वहाँ घूमने गया हो; और घास पर लेटे-लेटे नींद आ गई हो। बारा में पहुँच कर उन्होंने हरेक वैञ्च को देखा, चारों तरफ़ घूमे, बहुत से आदमी घास पर पड़े हुए थे; पर सियाराम का निशान न था। उन्होंने सियाराम का नाम ले लेकर ज़ोर से पुकारा; पर कहीं से आवाज़ न आई।

ख्याल आया शायद स्कूल में कोई तमाशा हो रहा हो। स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था। स्कूल की तरफ़ चले; पर आधे रास्ते ही से लौट पड़े। बाज़ार बन्द हो गया था। स्कूल में इतनी रात तक तमाशा नहीं हो सकता। अब की उन्हें आशा हो रही थी कि सियाराम लौट आया होगा। द्वार पर आकर उन्होंने पुकारा -- सिया बाबू आए? किवाड़ बन्द थे। कोई आवाज़ न आई। फिर ज़ोर से पुकारा। भुङ्गी किवाड़ खोल कर बोली -- अभी तो नहीं आए। मुन्शी जी ने धीरे से भुङ्गी को अपने पास
बुलाया;और करुण-स्वर में बोले तू तो घर की सब बात जानती है;बता आज क्या हुआ था?

भुङ्गी-बाबू जी,झूठ न बोलूँगी; मालिकिन छुड़ा देंगी और क्या, दूसरे का लड़का इस तरह नहीं रक्खा जाता। जहाँ कोई काम हुआ,बस बाजार भेज दिया। दिन भर बाज़ार दौड़ते बीतता था। आज लकड़ी लाने न गए, तो चूल्हा ही नहीं जला। कहो तो मुंह फुलावें। जब आप ही नहीं देखते,तो दूसरा कौन देखेगा। चलिए भोजन कर लीजिए,बहू जी कब से बैठी हैं।

मुन्शी जी कह दे इस वक्त न खायेंगे।

मुन्शी जी फिर अपने कमरे में चले गए; और एक लम्बी साँस ली। वेदना से भरे हुए ये शब्द उनके मुँह से निकल पड़े-ईश्वर, क्या अभी दण्ड पूरा नहीं हुआ? क्या इस अन्धे की लकड़ी का भी हाथ से छीन लोगे?

निर्मला ने आकर कहा-आज सियाराम अभी तक नहीं आए। कहती रही कि खाना बनाए देती हूँ,खा लो; मगर न जाने कब उठ कर चल दिए। न जाने कहाँ घूम रहे हैं। बात तो सुनते ही नहीं। अब कब तक उनकी राह देखा करूँ। आप चल कर खा लीजिए। उनके लिए खाना उठा कर रख दूंगी।

मुन्शी जी ने निर्मला की ओर कठोर नेत्रों से देख कर कहा-अभी कै बजे होंगे?

निर्मला-क्या जाने,शायद दस बजे होंगे।

मुन्शी जी-जी नहीं,बारह बजे हैं। निर्मला-बारह! बारह बज गए! इतनी देर तो कभी न करते थे। तो अब कब तक उनकी राह देखोगे! दोपहर को भी तो कुछ नहीं खाया था। ऐसा सैलानी लड़का मैंने नहीं देखा।

मुन्शी जी-जी तुम्हें बहुत दिक़ करता है,क्यों?

निर्मला-देखिए न,इतनी रात गई; और घर की सुध ही नहीं।

मुन्शी जी-शायद यह आखिरी शरारत हो।

निर्मला-कैसी बातें मुंह से निकालते हैं। जायँगे कहाँ? किसी यार दोस्त के घर पड़ रहे होंगे।

मुन्शी जी-शायद ऐसा ही हो। ईश्वर करे ऐसा ही हो।

निर्मला-सबेरे आवें; तो ज़रा तम्बीह कीजिएगा।

मुन्शी जी-खूब अच्छी तरह करूँगा।

निर्मला-चलिए खा लीजिए,देर बहुत हुई।

मुन्शी जी-सवेरे उसकी तम्वीह करके खाऊँगा। कहीं न आया, तो तुम्हें ऐसा ईमानदार नौकर कहाँ मिलेगा।

निर्मला ने ऐंठ कर कहा-तो क्यामैंने भगा दिया?

मुन्शी जी-नहीं, यह कौन कहता है? तुम उसे क्यों भगाने लगी? तुम्हारा तो काम करता था। शामत आ गई होगी।

निर्मला ने और कुछ नहीं कहा। बात बढ़ जाने का भय था। भीतर चली आई। सोने को भी न कहा। जरा देर में भुङ्गी ने अन्दर से किवाड़ भी बन्द कर दिए! क्या मुन्शी जी को नींद आ सकती थी? तीन लड़कों में केवल एक बच रहा था। वह हाथ से निकल गया, तो फिर जीवन में अन्धकार के सिवा और क्या है? कोई नाम लेने वाला भी न रहेगा। हा! कैसे-कैसे रत्न हाथ से निकल गए। मुन्शी जी की आँखों से यदि इस समय अश्रुधारा वह रही थी, तो कोई आश्चर्य है? उस व्यापक पश्चात्ताप, उस सघन ग्लानि-तिमिर में आशा की एक हलकी-सी रेखा उन्हें संभाले हुए थी! जिस क्षण यह रेखा लुप हो जायगी, कौन कह सकता है-उन पर क्या वीतेगी? उनकी उस वेदना की कल्पना कौन कर सकता है?

कई बार मुन्शी जी की आँखें झपकी, लेकिन हर बारसियाराम की आहट के धोखे में चौंक पड़े!

सबेरा होते ही मुन्शी जी फिर सियाराम को खोजने निकले। किसी से पूछते शर्म आती थी। किस मुंह से पूछे? उन्हें किसी से सहानुभूति की आशा न थी। प्रकट न कह कर मन में सद यही कहेगे-जैसा किया, वैसा भोगो। सारे दिन वह स्कूल के मैदानों, बाजारों और वागीचों का चकर लगाते रहे। दो दिन निराहार रहने पर भी उन्हें इतनी शक्ति कैसे हुई,यह वही जानें।

रात के बारह वजे मुन्शी जी घर लौटे,दरवाजे पर लालटेन जल रही थी,निर्मला द्वार पर खड़ी थी। देखते ही बोली-कहा भी नहीं, न जाने कब चल दिए? कुछ पता चला?

मुन्शी जी ने आग्नेय नेत्रों से ताकते हुए कहा-हट जाओ सामने से, नहीं तो बुरा होगा। मैं आपे में नहीं हूँ। यह तुम्हारी करनी है। तुम्हारे ही कारण आज मेरी यह दशा हो रही है। आज से छः साल पहले क्या इस घर की यही दशा थी? तुमने मेरा बना-बनाया घर बिगाड़ दिया,तुमने मेरे लहलहाते हुए बारा को उजाड़ डाला। केवल एक ढूँठ रह गया है। उसका निशान मिटा कर तभी तुम्हें सन्तोष होगा। मैं अपना सर्वनाश करने के लिए तुम्हें अपने घर नहीं लाया था। सुखी जीवन को और भी सुखमय बनाना चाहता था। यह उसी का प्रायश्चित्त है। जो लड़के पान की तरह फेरे जाते थे,उन्हें मेरे जीते जी तुमने चाकर समझ लिया;और मैं आँखों से सब कुछ देखते हुए भी अन्धा बना बैठा रहा। जाओ,मेरे लिए थोड़ा सा सहिया भेज दो। बस,यही कसर गई है; वह भी पूरी हो जाय।

निर्मला ने रोते हुए कहा-मैं तो अभागिन हूँ ही,आप कहेंगे तब जानूँगी? न जाने ईश्वर ने मेरा जन्म क्यों दिया था। मगर यह आपने कैसे समझ लिया कि सियाराम अब आगे ही नहीं?

मुन्शी जी ने अपने कमरे की ओर जाते हुए कहा-जलाओ मत, जाकर खुशियाँ मनाओ। तुम्हारी मनोकामना पूरी होगई!