निर्मला/२५

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निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
[ २७६ ]
 

पच्चीसवाँ परिच्छेद

दिन गुज़रने लगे। एक महीना पूरा निकल गया; लेकिन मुन्शी जी न लौटे। कोई ख़त भी नहीं भेजा। निर्मला को अब नित्य यही चिन्ता बनी रहती कि वह लौट कर न आए तो क्या होगा? उसे इसकी चिन्ता न होती थी कि उन पर क्या बीत रही होगी, वह कहाँ मारे-मारे फिरते होंगे, स्वास्थ्य कैसा होगा? उसे केवल अपनी और इससे भी बढ़ कर बच्ची की चिन्ता थी। गृहस्थी का निर्वाह कैसे होगा? ईश्वर कैसे बेड़ा पार लगावेंगे? बच्ची का क्या हाल होगा? उसने कतर-ब्योंत करके जो रुपये जमा कर रक्खे थे, उसमें कुछ न कुछ रोज़ ही कमी होती जाती थी। निर्मला को उसमें से एक-एक पैसा निकालते इतनी अखर होती थी, मानो कोई उसकी देह से रक्त निकाल रहा हो। झुँझला कर मुन्शी जी को कोसती। लड़की किसी चीज़ के लिए रोती, तो उसे अभागिन, कलमुँही कह कर झल्लाती। यही नहीं, [ २७७ ]रुक्मिणी का घर में रहना उसे ऐसा कष्टकर जान पड़ता था, मानो वह उसकी गर्दन पर सवार है । जब हृदय जलता है, तो वाणी भी अग्निमय हो जाती है । निर्मला बड़ी मधुर-भषिणी स्त्री थी; पर अब उसकी गणना कर्कशाओं में की जा सकती थी। दिन भर उसके मुख से जली-कटी बातें ही निकला करती थीं । उसके शब्दों की कोमलता न जाने क्या हो गई । भावों में माधुर्य का कहीं नाम ही नहीं। भुड़ी बहुत दिनों से इस घर में नौकर थी । स्वभाव की सहनशीला थी ; पर यह आठों पहर की बक-झक उससे भी न सही गई । एक दिन उसने भी घर की राह ली। यहाँ तक कि जिस बच्ची को वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, उसकी सूरत से भी घृणा हो गई । बात-बात पर घुड़क पड़ती, कभी-कभी मार बैठती । रुक्मिणी रोती हुई बालिका को गोद में उठा लेती ; और चुमकार-दुलार कर चुप करती । उस अनाथ के लिए अब यही एक आश्रय रह गया था।

निर्मला को अब अगर कुछ अच्छा लगता था, तो वह सुधा से बातें करना था । वह वहाँ जाने का अवसर खोजती रहती थी। बच्ची को अब वह अपने साथ न ले जाना चाहती थी। पहले जब बच्ची को अपने घर सभी चीजें खाने को मिलती थी, तो वह वहाँ जाकर हँसती-खेलती थी। अब वहाँ जाकर उसे भूख लगती थी। निर्मला उसे घूर-चूर कर देखती, मुट्ठियाँ बाँध कर धमकाती; पर लड़की भूख की रट लगाना न छोड़ती थी। इसीलिए अब निर्मला उसे साथ न ले जाती थी । सुधा के पास बैठ कर उसे मालूम होता [ २७८ ]
था कि मैं भी आदमी हूँ। उतनी देर के लिए वह चिन्ताओं से मुक्त हो जाती थी। जैसे शरावी को शराब के नशे में सारी चिन्ताएँ. भूल जाती हैं,उसी तरह निर्मला को सुधा के घर जाकर सारी बातें भूल जाती थीं। जिसने उसे उसके घर पर देखा हो, वह उसे यहाँ देख कर चकित रह जाता। वही कर्कशा,कटु-भाषिणी स्त्री यहाँ आकर हास्य,विनोद और माधुर्य की पुतली बन जाती थी। यौवन-काल की स्वाभाविक वृत्तियाँ अपने घर पर रास्ता बन्द पाकर यहाँ किलोलें करने लगती थीं। यहाँ आते वक्त वह माँग-चोटी,कपड़े-लत्ते से लैस होकर आती; और यथासाध्य अपनी विपत्ति-कथा को मन ही में रखती थी। यहाँ वह रोने के लिए नहीं,हँसने के लिए आती थी।

पर कदाचित् उसके भाग्य में यह सुख भी नहीं बदा था! निर्मला मामूली तौर से दोपहर को या तीसरे पहर को सुधा के घर जाया करती थी। एक दिन उसका जी इतना ऊबा कि सबेरे ही जा पहुँची। सुधा नदी-स्नान करने गई हुई थी। डॉक्टर साहब अस्पताल जाने के लिए कपड़े पहन रहे थे। महरी अपने काम-धन्धे में लगी हुई थी। निर्मला अपनी सहेली के कमरे में जाकर निश्चिन्त बैठ गई। उसने समझा--सुधा कोई काम कर रही होगी,अभी आती होगी। जब बैठे-बैठे दो-तीन मिनिट गुज़र गए,तो उसने अलमारी से तस्वीरों की एक किताब उतार ली,और केश खोले पलङ्ग पर लेट कर चित्र देखने लगी। इसी बीच में डॉक्टर साहब को किसी जरूरत से निर्मला के कमरे में आना पड़ा। शायद अपना ऐनक [ २७९ ]
ढूँढ़ते फिरते थे। बेधड़क अन्दर चले आए। निर्मला द्वार की ओर केश खोले लेटी हुई थी। डॉक्टर साहब को देखते ही चौंक कर उठ बैठी,और सिर ढाँकती हुई चारपाई से उतर कर खड़ी हो गई। डॉक्टर साहब ने लौटते हुए चिक के पास खड़े होकर कहा-क्षमा करना निर्मला। मुझे मालूम न था कि तुम यहाँ हो। मेरी ऐनक मेरे कमरे में नहीं मिल रही है। न जाने कहाँ उतार कर रख दी थी। मैं ने समझा शायद यहाँ हो।

निर्मला ने चारपाई के सिरहाने वाले आले पर निगाह डाली तो ऐनक की डिबिया दिखाई दी। उसने आगे बढ़ कर डिबिया उतार ली;और सिर झुकाए,देह समेटे,सङ्कोच से मुँह फेरे डॉक्टर साहब की ओर हाथ बढ़ाया। डॉक्टर साहब ने निर्मला को दो एक बार पहले भी देखा था; पर इस समय के से भाव कभी उनके मन में न आए थे। जिस ज्वाला को वह बरसों से हृदय में दवाए हुए थे, वह आज पवन का झोंका पाकर दहक उठी। उन्होंने ऐनक लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो हाथ कॉप रहा था। ऐनक उठा कर भी वह बाहर न गए। वहीं खोए हुए से खड़े रहे। निर्मला ने इस एकान्त से भयभीत होकर पूछा-सुधा कहीं गई हैं क्या?

डॉक्टर साहब ने सिर झुकाए हुए जवाब दिया-हाँ,जरा स्नान करने चली गई हैं।

फिर भी डॉक्टर साहब बाहर न गए। वहीं खड़े रहे। निर्मला ने फिर पूछा-कब तक आएँगी?

डॉक्टर साहब ने सिर झुकाए हुए कहा-आती ही होंगी। [ २८० ]फिर भी वह बाहर नहीं गए। उनके मन में चोर द्वन्द्व मचा हुआ था। औचित्य का बन्धन नहीं,भीरता का कच्चा तागा उनकी जबान को रोके हुए था।

निर्मला ने फिर कहा-कहीं घूमने-घामने लगी होंगी। मैं भी इस वक्त जाती हूँ।

भीरुता का कच्चा तागा भी टूट गया। नदी के कगार पर पहुँच कर भागती हुई सेना में अद्भुत शक्ति आ जाती है। डॉक्टर साहब ने सिर उठा कर निर्मला को देखा; और अनुराग में डूबे हुए स्वर में बोले-नहीं निर्मला,अव आती ही होंगी। अभी न जाओ। रोज सुधा की खातिर से बैठती हो,आज मेरी खातिर से बैठो। बताओ, कब तक इस आग में जला करूँ,सत्य कहता हूँ निर्मला.........!

निर्मला ने और कुछ नहीं सुना। उसे ऐसा जान पड़ा मानो सारी पृथ्वी चकर खा रही है,मानो उसके प्राणों पर सहस्रों वनों का आघात हो रहा है। उसने जल्दी से अलगनी पर लटकती हुई चादर उतार ली;और बिना मुँह से एक शब्द निकाले कमरे से निकल गई। डॉक्टर साहब खिसियाए हुए से रोना मुँह बनाए खड़े रहे। उसको रोकने की या और कुछ कहने की उनकी हिम्मत न पड़ी।

निर्मला ज्योंही द्वार पर पहुंची,उसने सुधा को ताँगे से उतरते देखा। सुधा उसे देखते ही जल्दी से उतर कर उसकी ओर लपकी और कुछ पूछना चाहती थी;मगर निर्मला ने उसे अवसर न दिया, [ २८१ ]
तीर की तरह झपट कर चली गई। सुधा एक क्षण तक विस्मय की दशा में खड़ी रही। बात क्या है,उसकी समझ में कुछ न श्रा सका। वह व्यत्र हो उठी। जल्दी से अन्दर गई। महरी से पूछा कि क्या बात हुई है। उसे मालूम हुआ कि कहीं महरी या और किसी नौकर ने उसे कोई अपमान-सूचक बात कह दी है। वह अपराधी का पता लगाएगी; और उसे खड़े-खड़े निकाल देगी। लपकी हुई अपने कमरे में गई। अन्दर ऋदम रखते ही डॉक्टर साहब को मुँह लटकाए चारपाई पर बैठे देखा। पूछा-निर्मला यहाँ आई थी!

डॉक्टर ने सिर खुजलाते हुए कहा-हाँ,आई तो थी?

सुधा-किसी महरी-अहरी ने उन्हें कुछ कहा तो नहीं? मुझसे बोली तक नहीं,झपट कर निकल गई।

डॉक्टर साहब की मुख-कान्ति मलिन हो गई;कहा-यहाँ तो उन्हें किसी ने भी कुछ नहीं कहा।

सुधा-किसी ने कुछ कहा है! देखो, मैं पूछती हूँ न। ईश्वर जानता है,पता पा जाऊँगी तो खड़े-खड़े निकाल दूंगी। डॉक्टर साहब सिटपिटाते हुए बोले-मैने तो किसी को कुछ कहते नहीं मुना। तुम्हें उन्होंने देखा ही न होगा।

सुधा-वाह, देखा ही न होगा! उनके सामने तो मैं ताँगे से उत्तरी हूँ। उन्होंने मेरी ओर ताका भी; पर बोलीं कुछ नहीं। इस कमरे में आई थी? [ २८२ ]डॉक्टर साहब के प्राण सूखे जा रहे थे। हिचकिचाते हुए बोले- आई क्यों नहीं थीं।

सुधा-तुम्हें यहाँ बैठे देख कर चली गई होंगी। बस,किसी महरी ने कुछ कह दिया होगा। नीच जात हैं न,किसी को बात करने की तमीज़ तो है नहीं। अरी ओ सुन्दरिया,जरा यहाँ तो आ!

डॉक्टर-उसे क्यों बुलाती हो,वह यहाँ से सीधे दरवाजे की तरफ़ गई,महरियों से तो बात तक नहीं हुई।

सुधा-तो फिर तुम्हीं ने कुछ कह दिया होगा।

डॉक्टर साहब का कलेजा धक-धक करने लगा। बोले-मैं भला क्या कह देता,क्या ऐसा गँवार हूँ?

सुधा-तुमने उन्हें आते देखा तब भी बैठे रह गए?

डॉक्टर-मैं यहाँ था ही नहीं। बाहर बैठक में अपनी ऐनक ढूँढ़ता रहा। जब वहाँ न मिली,तो मैं ने सोचा शायद अन्दर हो।'यहाँ आया सो उन्हें बैठे देखा। मैं बाहर जाना चाहता था कि उन्होंने खुद पूछा-किसी चीज़ की ज़रूरत है? मैं ने कहा-जरा देखना यहाँ मेरी ऐनक तो नहीं है। ऐनक इसी सिरहाने वाले ताक पर थी। उन्होंने उठा कर दे दी। बस,इतनी ही तो बात हुई।

सुधा-बस,तुम्हें ऐनक देते ही वह झलाई हुई बाहर चली गई! क्यों? [ २८३ ]डॉक्टर-मलाई हुई तो नहीं चली गई। जाने लगी तो मैंने कहा बैठिए,वह आती होंगी। न बैठी तो मैं क्या करता?

सुधा ने कुछ सोच कर कहा-बात कुछ समझ में नहीं आती! मैं जरा उनके पास जाती हूँ। देखूं बात क्या है?

डॉक्टर-तो चली जाना,ऐसी जल्दी क्या है! सारा दिन तो पड़ा हुआ है।

सुधा ने चादर ओढ़ते हुए कहा-मेरे पेट में खलबली मची हुई है, तुम कहते हो जल्दी क्या है?

सुधा तेजी से कदम बढ़ाती हुई निर्मला के घर की ओर चली;और पाँच मिनिट में जा पहुँची। देखा तो निर्मला अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी रो रही थी; और बच्ची उसके पास खड़ी पूछ रही धी-अम्माँ,क्यों लोती हो?

सुधा ने लड़की को गोद में उठा लिया और निर्मला से बोली बहिन,सच बताओ क्या बात है? मेरे यहाँ किसी ने तुम्हें कुछ कहा है? मैं सबसे पूछ चुकी,कोई नहीं बतलाता।

निर्मला आँसू पोंछती हुई वोली-किसी ने कुछ कहा नहीं वहिन, भला वहाँ मुझे कौन कुछ कहता?

सुधा-तो फिर मुझसे बोली क्यों नहीं,और आते ही आते रोने क्यों लगों?

निर्मला-अपने नसीबों को रो रही हूँ और क्या?

सुधा-तुम यों न बताओगी तो मैं क़सम रखा दूंगी। [ २८४ ]निर्मला-कसम-असम न रखाना भाई,मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा,भूठ किसे लगा हूँ?

सुधा-खाओ मेरी कसम?

निर्मला-तुम तो नाहक जिद करती हो।

सुधा-अगर तुमने न बताया निर्मला,तो मैं समझंगी तुम्हें मुझसे ज़रा भी प्रेम नहीं है।बस,सब जवानी जमा-खर्च है। मैं तुमसे किसी बात का परदा नहीं रखती;और तुम मुझे गैर समझती हो। मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा भरोसा था। अब जान गई कि कोई किसी का नहीं होता।

सुधा की आँखें सजल हो गई। उसने बच्ची को गोद से उतार दिया;और द्वार की ओर चली। निर्मला ने उठ कर उसका हाथ पकड़ लिया;और रोती हुई बोली--सुधा,मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मत पूछो। तुम्हें सुन कर दुख होगा;और शायद मैं फिर तुम्हें अपना मुँह न दिखा सकूँ। मैं अभागिनी न होती,तो यह दिन ही क्यों देखती। अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि,वे संसार से मुझे उठा लें।अभी यह दुर्गति हो रही है,तो आगे न जानें क्या होगा!

इन शब्दों में जो सङ्केत था,वह बुद्धिमती सुधा से छिपा न रह सका। वह समझ गई कि डॉक्टर साहब ने कुछ छेड़-छाड़ की है। उनका हिचक-हिचक कर बातें करना;और उसके प्रश्नो को टालना,उनकी वह ग्लानिमय,कान्तिहीन मुद्रा उसे याद आ गई। [ २८५ ]
वह सिर से पाँच तक काँप उठी;और बिना कुछ कहे-सुने सिंहनी की भाँति क्रोध में भरी हुई द्वार की ओर चली। निर्मला ने उसे रोकना चाहा;पर न पा सकी। देखते-देखते वह सड़क पर आ गई और घर की ओर चली। तब निर्मला वहीं भूमि पर बैठ गई और फूट-फूट कर रोने लगी! [ २८६ ]
र्मला दिन भर चारपाई पर पड़ी रही। मालूम होता है,उसकी देह में प्राण ही नहीं है। न स्नान किया,न भोजन करने उठी। सन्ध्या समय उसे ज्वर हो आया। रात भर देह तवे की भाँति तपती रही। दूसरे दिन भी ज्वर न उतरा। हाँ,कुछ-कुछ कम हो गया था। वह चारपाई पर लेटी हुई निश्चल नेत्रों से द्वार की ओर ताक रही थी। चारों ओर शून्य था,अन्दर भी शून्य,बाहर भी शून्य। कोई चिन्ता न थी,न कोई स्मृति,न कोई दुख! मस्तिष्क में स्पन्दन की शक्ति ही न रही थी।

सहसा सक्मिणी वच्ची को गोद में लिए आकर खड़ी हो गई। निर्मला ने पूछा-क्या यह बहुत रोती थी?

सक्मिणी-नहीं,यह तो मिनकी तक नहीं। रात भर चुपचाप पड़ी रही। सुधा ने थोड़ा सा दूध भेज दिया था,वही पिला दिया था। [ २८७ ]निर्मला-अहीरिन दूध न दे गई थी?

रुक्मिणी-कहती थी,पिछले पैसे दे दो तो दूं। तुम्हारा जी अब कैसा है?

निर्मला-मुझे कुछ नहीं हुआ है। कल जरा देह गरम हो आई थी।

रुक्मिणी-डॉक्टर साहब का तो बुरा हाल हो गया। निर्मला ने घबड़ाकर पूछा-क्या हुआ क्या? कुशल से हैं न?

रुक्मिणी-कुशल से हैं कि लाश उठाने की तैयारी हो रही है। कोई कहता है जहर खा लिया था,कोई कहता है दिल का चलना बन्द हो गया था। भगवान जानें क्या हुआ था।

निर्मला ने एक ठण्डी साँस ली;और रुंधे हुए कण्ठ से बोली-हाय! भगवान्,सुधा की क्या गति होगी? वह कैसे जिएगी!

यह कहते-कहते वह रो पड़ी;और बड़ी देर तक सिसकती रही। तब चारपाई से उतर कर सुधा के पास जाने को तैयार हुई। पाँव थर-थर कॉप रहे थे,दीवार थामें खड़ी थी;पर जी न मानता था! न जाने सुधा ने यहाँ से जाकर पति से क्या कहा? मैं ने तो उससे कुछ कहा भी नहीं,न जाने मेरी बातों का वह क्या मतलव समझी! हाय! ऐसे रूपवान्,ऐसे दयालु,ऐसे सुशील प्राणी का यह अन्त! अगर निर्मला को मालूम होता कि उसके क्रोध का यह भीषण परिणाम होगा,तो वह जहर का घूंट पीकर भी उस बात को हँसी में उड़ा देती! [ २८८ ]यह सोच कर कि मेरी ही निष्ठुरता के कारण डॉक्टर साहब का यह हाल हुआ,निर्मला के हृदय के टुकड़े होने लगे। ऐसी वेदना होने लगी,मानो हृदय में शूल उठ रहा हो। वह डॉक्टर साहब के घर चली।

लाश उठ चुकी थी। बाहर सन्नाटा छाया हुआ था। घर में स्त्रियाँ जमा थीं। सुधा जमीन पर बैठी रो रही थी। निर्मला को देखते ही वह जोर से चिल्ला कर रो पड़ी;और आकर उसकी छाती से लिपट गई। दोनों देर तक रोती रहीं।

जब औरतों की भीड़ कम हुई और एकान्त हो गया,तो निर्मला ने पूछा-यह क्या हो गया बहिन,तुमने कह क्या दिया?

सुधा अपने मन को इसी प्रश्न का उत्तर आज कितनी ही बार दे चुकी थी। उसका मन जिस उत्तर से शान्त हो गया था,वही उत्तर उसने निर्मला को दिया। बोली-चुप भी तो न रह सकती थी, बहिन! क्रोध की बात पर क्रोध आता ही है।

निर्मला-मैं ने तो तुमसे कोई ऐसी बात भी न कही थी।

सुधा-तुम कैसे कहतीं,कह ही नहीं सकती थीं;लेकिन उन्होंने जो बात हुई थी,वह कह दी! उस पर मैं ने जो कुछ मुँह में आया कहा। जब एक बात दिल में आ गई, तो उसे हुआ ही समझना चाहिए। अवसर और घात मिले,तो वह अवश्य पूरी हो। यह कह कर कोई नहीं निकल सकता कि मैं ने तो हँसी की थी। एकान्त में ऐसा शब्द जबान पर लाना ही कह देता है कि नीयत बुरी थी। मैं ने तुमसे कभी कहा नहीं बहिन;लेकिन मैं ने [ २८९ ]
उन्हें कई वार तुम्हारी ओर भाँकते देखा। उस वक्त मैं ने भी यही समझा कि शायद मुझे धोखा हो रहा हो। अव मालूम हुआ कि उस ताक-झाँक का क्या मतलब था। अगर मैं ने दुनिया ज्यादा देखी होती,तो तुम्हें अपने घर न आने देती। कम से कम उनकी तुम पर निगाह कभी न पड़ने देती;लेकिन यह क्या जानती थी कि पुरुषों के मुंह में कुछ और मन में कुछ और होता है। ईश्वर को जो मन्जूर था,वह हुआ। ऐसे सौभाग्य से मैं वैधव्य को बुरा नहीं समझती। दरिद्र प्राणी उस धनी से कहीं सुखी है,जिसे उसका धन सॉप बन कर काटने दौड़े। उपवास कर लेना आसान है, विपैला भोजन करना उससे कहीं मुश्किल।

इसी वक्त डॉक्टर सिन्हा के छोटे भाई और कृष्णा ने घर में प्रवेश किया। घर में कोहराम मच गया! [ २९० ]क महीमा और गुज़र गया। सुधा अपने देवर के साथ तीसरे ही दिन चली गई। अब निर्मला अकेली थी। पहले हँस-बोल कर जी बहला लिया करती थी। अब रोना ही एक काम रह गया। उसका स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता गया। पुराने मकान का किराया अधिक था। दूसरा मकान थोड़े किराए का लिया। यह एक तङ्ग गली में था। अन्दर एक कमरा था;और छोटा सा आँगन। न प्रकाश जाता,न वायु! दुर्गन्ध उड़ा करती थी। भोजन का यह हाल कि पैसे रहते हुए भी कभी-कभी उपवास करना पड़ता था। बाजार से लावे कौन? फिर अब घर में कोई मर्द नहीं,कोई लड़का नहीं,तो रोज भोजन बनाने का कष्ट कौन उठावे। औरतों के लिए रोज़ भोजन करने की आवश्यकता ही क्या? अगर एक वक्त खा लिया,तो दो दिन के लिए छुट्टी हो गई। बच्ची के लिए ताजा हलुवा या रोटियाँ बन जाती थीं। ऐसी दशा में स्वास्थ्य क्यों न बिगड़ता? चिन्ता, [ २९१ ]
शोक,दुरावस्था--एक हो,तो कोई कहे; यहाँ तो त्रैताप का धावा था। उस पर निर्मला ने दवा खाने की क़सम खा ली थी। करती ही क्या! उस थोड़े से रुपयों में दवा की गुंंजाइश कहाँ थी। जहाँ भोजन का ठिकाना न था, वहाँ दवा का जिक्र ही क्या? दिन-दिन सूखती चली जाती थी!

एक दिन रुक्मिणी ने कहा--बहू,इस तरह कब तक घुला करोगी, जी ही से तो जहान है! चलो,किसी वैद्य को दिखा लाऊँ।

निर्मला ने विरक्त भाव से कहा--जिसे रोने ही के लिए जीना हो, उसका मर जाना ही अच्छा।

रुक्मिणी--बुलाने से तो मौत नहीं आती।

निर्मला--मौत तो बिना बुलाए आती है,बुलाने पर क्यों न आएगी। उसके आने में अब बहुत दिन न लगेंगे। बहिन! जै दिन चलती हूँ, उतने साल समझ लीजिए।

रुक्मिणी--दिल ऐसा छोटा मत करो, बहू! अभी तुमने संसार का सुख ही क्या देखा है?

निर्मला--अगर संसार का यही सुख है, जो इतने दिनों से देख रही हूँ, तो उससे जी भर गया। सच कहती हूँ बहिन, इस बच्ची का मोह मुझे बाँधे हुए है; नहीं तो अब तक कभी की चली गई होती। न जाने इस बेचारी के भाग्य में क्या लिखा है?

दोनों महिलाएँ रोने लगीं। इधर जब से निर्मला ने चारपाई पकड़ ली है, रुक्मिणी के हृदय में दया का सोता सा खुल गया है। [ २९२ ]
द्वेष का लेश भी नहीं रहा। कोई काम करती हों, निर्मला की आवाज सुनते ही दौड़ती हैं। घण्टों उसके पास कथा-पुराण सुनाया करती हैं। कोई ऐसी चीज़ पकाना चाहती हैं,जिसे निर्मला रुचि से खाए। निर्मला को कभी हँसते देख लेती हैं,तो निहाल हो जाती हैं;और बच्ची को तो अपने गले का हार बनाए रहती हैं। उसी की नींद सोती हैं,उसी की नींद जागती हैं। वही बालिका अब उनके जीवन का आधार है।

रुक्मिणी ने जरा देर बाद कहा-बहू,तुम इतनी निराश क्यों होती हो,भगवान् चाहेंगे तो तुम दो-चार दिन में अच्छी हो जाओगी। मेरे साथ आज वैद्य जी के पास चलो। बड़े सज्जन हैं।

निर्मला-दीदी जी,अब मुझे किसी वैद्य-हकीम की दवा फायदा न करेगी। आप मेरी चिन्ता न करें। बच्ची को आपकी गोद में छोड़े जाती हूँ। अगर जीती-जागती बचे,तो किसी अच्छे कुल में विवाह कर दीजिएगा। मैं तो इसके लिए अपने जीवन में कुछ न कर सकी,केवल जन्म देने भर की अपराधिनी हूँ। चाहे कॉरी रखिएगा,चाहे विष देकर मार डालिएगा;पर कुपात्र के गले न मढ़िएगा,इतनी ही आपसे मेरी विनय है। मैं ने आपकी कुछ सेवा न की, इसका बड़ा दुख हो रहा है। मुझ अभागिनी से किसी को सुख नहीं मिला। जिस पर मेरी छाया भी पड़ गई, उसका सर्वनाश हो गया। अगर स्वामी जी कभी घर आवें, तो उनसे कहिएगा कि उस करम-जली के अपराध क्षमा कर दें।

रुक्मिणी रोती हुई बोली-बहू,तुम्हारा कोई अपराध नहीं [ २९३ ]ईश्वर से कहती हूँ,तुम्हारी ओर से मेरे मन में जरा भी मैल नहीं है। हाँ,मैं ने सदैव तुम्हारे साथ कपट किया। इसका मुझे मरते दम तक दुख रहेगा।

निर्मला ने कातर नेत्रों से देखते हुए कहा-दीदी जी,कहने की बात नहीं;पर बिना कहे नहीं रहा जाता। स्वामी जी ने हमेशा मुझे अविश्वास की दृष्टि देखा;लेकिन मैंने कभी मन में भी उनकी उपेक्षा नहीं की। जो होनाथा,वह तो हो ही चुका;अधर्म करके अपना परलोक क्यों बिगाड़ती। पूर्व-जन्म में न जाने कौन से पाप किए थे,जिनका यह प्रायश्चित्त करना पड़ा। इस जन्म में काँटे बोती,तो कौन गति होती?

निर्मला की साँस बड़े वेग से चलने लगी। फिर खाट पर लेट गई; और बच्ची की ओर एक ऐसी दृष्टि से देखा,जो उसके जीवन की सम्पूर्ण विपत्कथा की वृहद आलोचना थी। वाणी में इतनी सामर्थ कहाँ!

तीन दिन तक निर्मला की आँखों से आँसुओं की धारा बहती रही । वह न किसी से बोलती थी,न किसी की ओर देखती थी; और न किसी की कुछ सुनती थी। बस,रोये चली जाती थी। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है?

चौथे दिन सन्ध्या समय वह विपत्ति-कथा समाप्त हो गई। उसी समय जब पशु-पक्षी अपने-अपने बसेरे को लौट रहे थे,निर्मला का प्राण-पक्षी भी,दिन भर शिकारियों के निशानों,शिकारी चिड़ियों के पञ्जों और वायु के प्रचण्ड झोकों से आहत [ २९४ ]
और व्यथित अपने बसेरे की ओर उड़ गया!!

मुहल्ले के लोग जमा हो गए। लाश बाहर निकाली गई। कौन दाह करेगा,यह प्रश्न उठा। लोग इसी चिन्ता में थे कि सहसा एक बूढ़ा पथिक एक बुकचा लटकाए आकर खड़ा हो गया। यही मुन्शी तोताराम थे!!




स़माप्त.