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निर्मला/४

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निर्मला
प्रेमचंद

पृष्ठ ४७ से – ५४ तक

 
 

चौथा परिच्छेद

कल्याणी के सामने अब एक विषम समस्या आ खड़ी हुई। पति के देहान्त के बाद उसे अपनी दुरावस्था का यह पहला और बहुत ही कड़वा अनुभव हुआ। दरिद्र विधवा के लिए इससे बड़ी और क्या विपत्ति हो सकती है कि जवान बेटी सिर पर सवार हो? लड़के नङ्गे पाँव पढ़ने जा सकते हैं, चौका-बर्तन भी अपने हाथ से किया जा सकता है, रूखा-सूखा खाकर निर्वाह किया जा सकता है, झोपड़े में दिन काटे जा सकते हैं; लेकिन युवती कन्या घर में नहीं बिठाई जा सकती। कल्याणी को भालचन्द्र पर ऐसा क्रोध आता था कि स्वयं जाकर उसके मुँह में कालिख लगाऊँ, सिर के बाल नोच लूँ। कहूँ, तू अपनी बात से फिर गया, तू अपने बाप का बेटा नहीं। पण्डित मोटेराम ने उनकी कपट-लीला का नग्न वृत्तान्त सुना दिया था।

वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि कृष्णा खेलती हुई आई, और बोली—कै दिन में बारात आएगी; अम्माँ! पण्डित जी तो आ गए। कल्याणी--बारात का सपना देख रही है क्या?

कृष्णा--वही चन्दर तो कह रहा है कि दो-तीन दिन में बारात आएगी। क्या न आएगी अम्माँ?

कल्याणी--एक बार तो कह दिया, सिर क्यों खाती है?

कृष्णा--सब के घर तो बारात आ रही है, हमारे यहाँ क्यों नहीं आती?

कल्याणी--तेरे यहाँ जो बारात लाने वाला था, उसके घर में आग लग गई।

कृष्ण--सच अम्माँ? तब तो सारा घर जल गया होगा। कहाँ रहते होंगे? बहिन कहाँ जाकर रहेगी?

कल्याणी--अरे पगली, तू तो बात ही नहीं समझती। आग नहीं लगी। वह हमारे यहाँ व्याह न करेगा।

कृष्णा--यह क्यों अम्माँ? पहले तो वहाँ ठीक हो गया था न?

कल्याणी--बहुत से रुपये माँगता है। मेरे पास उसे देने को रुपये नहीं हैं।

कृष्णा--क्या बड़े लालची हैं अम्माँ?

कल्याणी--लालची नहीं तो और क्या है! पूरा कसाई, निर्दई, दगाबाज़!

कृष्णा--तब तो अम्माँ बहुत अच्छा हुआ कि उसके घर बहिन का व्याह नहीं हुआ।बहिन उनके साथ कैसे रहती। यह तो खश होने की बात है अम्माँ, तुम रञ्ज क्यों करती हो? कल्याणी ने पुत्री को स्नेहमय दृष्टि से देखा। इसका कथन कितना सत्य है। भोले शब्दों में समस्या का कितना मार्मिक निरूपण है। सचमुच यह तो प्रसन्न होने की बात है कि ऐसे कुपात्रों से सम्बन्ध नहीं हुआ, रञ्ज की कोई बात नहीं। ऐसे कुमानुसों के बीच में वेचारी निर्मला की न जाने क्या गति हो? अपने नसीवों को रोती। जरा सा घी दाल में अधिक पड़ जाता, तो सारे घर में शोर मच जाता; जरा खाना ज्यादा पक जाता, तो सास दुनिया सिर पर उठा लेती। लड़का भी ऐसा ही लोभी है। बड़ी अच्छी बात हुई, नहीं तो बेचारी को उन्न भर रोना पड़ता। कल्याणी यहाँ से टठी, तो उसका हृदय हलका हो गया था।

लेकिन विवाह तो करना ही था, और हो सके तो इसी साल; नहीं तो दूसरे साल फिर नए सिरे से तैयारियाँ करनी पड़ेंगी। अब अच्छे घर की जरूरत न थी, अच्छे वर की ज़रूरत न थी। अभागिनी को अच्छा घर-घर कहाँ मिलता है। अब तो किसी भॉति सिर का बोझ उतारना था, किसी भाँति लड़की को पार लगाना था--उसे कुएँ में झोंकना था। वह रूपवती है, गुणशीला है, चतुर है, कुलीना है, तो हुआ करे; दहेज नहीं तो उसके सारे गुण दोष हैं। दहेज हो तो सारे दोप, गुण हैं। प्राणी का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज का मूल्य है। कितनी विषम भाग्यलीला है?

कल्याणी का दोष कुछ कम न था। अबला और विधवा होना ही उसे दोषों से मुक्त नहीं कर सकता। उसे अपने लड़के

अपनी लड़कियों से कहीं प्यारे थे। लड़के हल के बैल हैं, भूसे-खली पर पहला हक़ उनका है, उनके खाने से जो बचे वह गायों का! मकान था, कुछ नक़द था, कई हजार के गहने थे; लेकिन उसे अभी दो लड़कों का पालन-पोषण करना था, उन्हें पढ़ाना-लिखाना था, एक कन्या और भी चार-पाँच साल में विवाह करने के योग्य हो जायगी। इसलिए वह कोई बड़ी रकम दहेज में न दे सकती थी। आखिर लड़कों को भी तो कुछ चाहिए। वे क्या समझेगे कि हमारा भी कोई बाप था।

पण्डित मोटेराम को लखनऊ से लौटे पन्द्रह दिन बीत चुके थे। लौटने के बाद दूसरे ही दिन से वह वर की खोज में निकले थे। उन्होंने प्रण किया था, मैं इन लखनऊ वालों को दिखा दूंगा कि संसार में तुम्हीं अकेले नहीं हो, तुम्हारे ऐसे और कितने पड़े हुए हैं। कल्याणी रोज़ दिन गिना करती थी। आज उसने उन्हें पत्र लिखने का निश्चय किया और कलम दावात लेकर बैठी ही थी कि पण्डित मोटेराम ने पदार्पण किया।

कल्याणी--आइए पण्डित जी, मैं तो आपको खत लिखने जा रही थी। कब लौट?

मोटेराम--लौटा तो प्रातःकाल ही था; पर उसी समय एक सेठ के यहाँ से निमन्त्रण आ गया। कई दिन से तर माल न मिले थे। मैंने कहा कि लगे हाथ यह काम भी निपटाता चलूँ। अभी उधर ही से लौटा आ रहा हूँ, कोई पाँच सौ ब्राह्मणों की पङ्गत थी। कल्याणी--कुछ कार्य भी सिद्ध हुआ, या रास्ता ही नापना पड़ा?

मोटे०--कार्य क्यों न सिद्ध होता, भला यह भी कोई बात है? पाँच जगह बातचीत कर आया हूँ। पाँचों की नक़ल लाया हूँ। उसमें से आप जिसे चाहें पसन्द करें। यह देखिए, इस लड़के का बाप डाक के सेगे में १०० महीने का नौकर है। लड़का अभी कॉलेज में पढ़ रहा है। मगर नौकरी ही का भरोसा है, घर में कोई जायदाद नहीं। लड़का होनहार मालूम होता है। खानदान भी अच्छा है। २००० में बात तय हो जायगी। माँगते तो वह तीन हज़ार हैं।

कल्याणी--लड़के के और भी भाई हैं?

मोटे०--नहीं, मगर तीन बहिनें हैं; और तीनों कारी! माता जीवित है। अच्छा, अब दूसरी नकल देखिए। यह लड़का रेल के सेगे में ५० महीना पाता है। माँ-बाप नहीं हैं। बहुत ही रूपवान्, सुशील और शरीर से खूव हृष्ट-पुष्ट, कसरती जवान है। मगर खानदान अच्छा नहीं कोई कहता है, माँ नाइन थी, कोई कहता है ठकुराइन थी। बाप किसी रियासत में मुख्तार थे। घर पर थोड़ी सी ज़मींदारी है। मगर उस पर कई हजार का कर्जा है। यहाँ कुछ लेना-देना न पड़ेगा। उम्र कोई वीस साल होगी।

कल्याणी--खानदान में दारा न होता, तो मञ्जूर कर लेती। देख कर तो मक्खी नहीं निगली जाती। मोटे०--तीसरी नक्कल देखिए। एक ज़मींदार का लड़का है। कोई एक हजार सालाना नफा है। कुछ खेती-बारी भी होती है। लड़का पढ़ा-लिखा तो थोड़ा ही है; पर कचहरी अदालत के काम में चतुर है। दुहाजू है। पहली स्त्री को मरे दो साल हुए। उससे कोई सन्तान नहीं है। लेकिन रहन-सहन मोटा है। पीसना-कूटना घर ही में होता है।

कल्याणी--कुछ दहेज भी माँगते हैं?

मोटेराम--इसकी कुछ न पूछिए। चार हजार सुनाते हैं। अच्छा,यह चौथी नकल देखिए। लड़का वकील है, उम्र कोई पैतीस साल होगी। तीन-चार सौ की आमदनी है। पहली स्त्री मर चुकी है। उससे तीन लड़के भी हैं। अपना घर बनवाया है। कुछ जायदाद भी खरीदी है। यहाँ भी लेन-देन का झगड़ा नहीं है।

कल्याणी--खानदान कैसा है?

मोटे०--बहुत ही उत्तम, पुराने रईस हैं। अच्छा, यह पाँचवीं नकल देखिए। बाप का छापाखाना है। लड़का पढ़ा तो बी० ए० तक है, पर उसीछापेखाने में काम करता है। उम्र अठारह साल होगी। घर में प्रेस के सिवाय कोई जायदाद नहीं है; मगर किसी का क़र्जा सिर पर नहीं। खानदान न बहुत अच्छा है, न बुरा।लड़का बहुत सुन्दर और सच्चरित्र है। मगर एक हजार से कम में मामला तय न होगा, माँगते तो वह तीन-हज़ार हैं। अब बताइए आप कौन सा वर पसन्द करती हैं।

कल्याणी--आपको सबों में कौन पसन्द है? मोटे०--मुझे तो दो वर पसन्द हैं। एक वह जो रेलवई में है, और दूसरा यह जो छोपेखाने में काम करता है।

कल्याणी--मगर पहले के तो खानदान में आप दोप बताते हैं।

मोटे०--हाँ, यह दोप तो है। तो छापेखाने वाले ही को रहने दीजिए।

कल्याणी--यहाँ एक हज़ार देने को कहाँ से आएगा? एक हजार तो आप का अनुमान है, शायद वह और भी मुँह फैलाए। आप तो घर की दशा देख ही रहे हैं, भोजन मिलता जाय, यही गनीमत है। रुपये कहाँ से आएँगे। जमींदार साहब चार हजार सुनाते हैं, डाक वाबू भी दो हजार का सवाल करते हैं। इनको जाने दीजिए। बस, वकील साहव ही बच रहते हैं; पैतीस साल की उम्र भी कुछ ऐसी ज्यादा नहीं, इन्हीं को क्यों न रखिए।

मोटेराम--आप खूब सोच-विचार लो, मैं तो आप की मर्जी का तावेदार हूँ। जहाँ कहिएगा, वहाँ जाकर टीका कर आऊँगा। मगर हज़ार डेढ़-हजार का मुँह न देखिए, छापेखाने वाला लड़का रत्न है। उसके साथ कन्या का जीवन सफल हो जावेगा। जैसी यह रूप और गुण की पूरी है, वैसा ही लड़का भी सुन्दर और सुशील है।

कल्याणी-'पसन्द तो मुझे भी यही है; महाराज! पर रुपये किसके घरसे आएँ? कौन देने वाला है? है कोई ऐसा दान? खाने
वाले तो खा-पीकर चम्पत हुए। अब किसी की सूरत भी नहीं दिखाई देती; बल्कि और मुझसे बुरा मानते हैं कि हमें निकाल दिया। जो बात अपने बस के बाहर है, उसके लिए हाथ ही क्यों फैलाऊँ। सन्तान किसको प्यारी नहीं होती? कौन उसे सुखी नहीं देखना चाहता; पर जब अपना क़ाबू भी हो। आप ईश्वर का नाम लेकर वकील साहब को टीका कर आइए। आयु कुछ अधिक है; लेकिन मरना-जीना विधि के हाथ है। पैंतीस साल का आदमी बुड्ढा नहीं कहलाता। अगर लड़की के भाग्य में सुख भोगना बदा है, तो जहाँ जायगी सुखी रहेगी; दुख भोगना है, तो जहाँ जायगी दुख झेलेगी। हमारी निर्मला को बच्चों से प्रेम है। उनके बच्चों को अपना समझेगी। आप शुभ-मुहूर्त देख कर टीका कर आएँ!!