निर्मला/५

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निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
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पाँचवाँ परिच्छेद

निर्मला का विवाह हो गया। ससुराल आ गई। वकील साहब का नाम था मुन्शी तोताराम। साँवले रङ्ग के मोटे-ताज़े आदमी थे। उम्र तो अभी चालीस से अधिक न थी, पर वकालत के कठिन परिश्रम ने सिर के बाल पका दिए थे। व्यायाम करने का उन्हें अवकाश न मिलता था। यहाँ तक कि कभी कहीं घूमने भी न जाते, इसलिए तोंद निकल आई थी। देह के स्थूल होते हुए भी आए दिन कोई न कोई शिकायत होती रहती! मन्दाग्नि और बवासीर से तो उनका चिरस्थायी सम्बन्ध था। अतएव बहुत फूँक-फूँक कर क़दम रखते थे। उनके तीन लड़के थे। बड़ा मन्साराम सोलह वर्ष का था, मँझला जियाराम बारह और छोटा सियाराम सात वर्ष का। तीनों अङ्गरेज़ी पढ़ते थे। घर में वकील साहब की विधवा बहिन के सिवा कोई औरत न थी। [ ५६ ]
वही घर की मालिकिन थीं। उनका नाम था रुक्मिणी; और अवस्था पचास से ऊपर थी। ससुराल में कोई न था। स्थायी रीति से यहीं रहती थीं।

तोताराम दम्पति-विज्ञान में कुशल थे। निर्मला को प्रसन्न रखने के लिए उनमें जो स्वाभाविक कमी थी, उसे वह उपहारों से पूरी करनी चाहते थे। यद्यपि बहुत ही मितव्ययी पुरुष थे; पर निर्मला के लिए कोई न कोई तोहफा रोज़ लाया करते। मौक़े पर धन की परवाह न करते थे। खुद कभी नाश्ता न करते थे, लड़के के लिए थोड़ा-थोड़ा दूध आता था; पर निर्मला के लिए मेवे, मुरब्बे, मिठाइयाँ-किसी चीज़ की कमी न थी। अपनी जिन्दगी में कभी सैर-तमाशे देखने न गए थे; पर अब छुट्टियों में निर्मला को सिनेमा, सरकस, थियेटर दिखाने ले जाते। अपने बहुमूल्य समय का थोड़ा सा हिस्सा उसके साथ बैठ कर ग्रामोफ़ोन बजाने में भी व्यतीत किया करते थे।

लेकिन निर्मला को न जाने क्यों तोताराम के पास बैठने और हँसने-बोलने में सङ्को्च होता था। इसका कदाचित् यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था, जिसके सामने वह सिर झुका कर, देह चुरा कर, निकलती थी; अब उसकी अवस्था का एक आदमी उसका पति था। वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं, सम्मान की वस्तु समझती थी। उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन कर जाती थी!

वकील साहब को उनके दम्पति-विज्ञान ने सिखाया था का [ ५७ ]युवती के सामने खूब प्रेम की बातें करनी चाहिए-दिल निकाल कर रख देना चाहिए। यही उसके वशीकरण का मुख्य मन्त्र है। इसलिए वकील साहव अपने प्रेम-प्रदर्शन में कोई कसर न रखते थे; लेकिन निर्मला को इन बातों से घृणा होती थी। वही बातें, जिन्हें किसी युवक के मुख से सुन कर उसका हृदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता, वकील साहब के मुँह से निकल कर उसके हृदय पर शर के समान आघात करती थीं! उनमें रस न था, उल्लास न था, उन्माद न था, हृदय न था, केवल बनावट थी, धोखा था; और था शुष्क, नीरस शब्दाडम्बर ! उसे इत्र और तेल बुरा न लगता, सैर-तमाशे बुरे न लगते, बनाव-सिंगार भी बुरा न लगता; बुरा लगता था केवल तोताराम के पास बैठना । वह अपना रूप और यौवन उन्हें न दिखाना चाहती थी, क्योंकि वहाँ देखने वाली आँखें न थीं। वह उन्हें इन रसों का आस्वादन करने के योग्य ही न समझती थी। कली प्रभात-समीर ही के स्पर्श से खिलती हैं। दोनों में समान सारस्य है। निर्मला के लिए वह प्रभात-समीर कहाँ थी?

पहला महीना गुजरते ही तोताराम ने निर्मला को अपना खजाञ्ची बना लिया। कचहरी से आकर दिन भर की कमाई उसे दे देते । उनका ख्याल था कि निर्मला इन रुपयों को देख कर फूली न समाएगी। निर्मला बड़े शौक से इस पद का काम अजाम देती। एक-एक पैसे का हिसाब लिखती, अगर कभी रुपये कम मिलते, तो पूछती-आज कम क्यों हैं ? गृहस्थी के सम्बन्ध में उनसे [ ५८ ]खूब वातें करती। इन्हीं बातों के लायक वह उनको समझती थी। ज्योंही कोई विनोद की बात उनके निकल जाती, उसका मुख मलिन हो जाता था!

निर्मला जब वस्त्राभूषणों से अलङ्कत होकर आईने के सामने खड़ी होती; और उसमें अपने सौन्दर्य की सुषमापूर्ण आभा देखती, तो उसका हृदय एक सतृष्ण कामना से तड़प उठता था।उस वक्त उसके हृदय में एक ज्वाला सी उठती। मन में आता इस घर में आग लगा दूँ। अपनी माता पर क्रोध आता, पिता पर क्रोध आता, अपने भाग्य पर क्रोध आता; पर सबसे अधिक क्रोध बेचारे निरपराध तोताराम पर आता,वह सदैव इस ताप से जला करती थी। वाँका सवार बूढ़े लद्द, टट्ट पर सवार होना कव पसन्द करेगा, चाहे उसे पैदल ही क्यों न चलना पड़े। निर्मला की दशा उसी बाँके सवार की थी। वह उस पर सवार होकर उड़ना चाहती थी, उस उल्लासमयी विद्युत-गति का आनन्द उठाना चाहती थी, टटू के हिनहिनाने और कनौतियाँ खड़ी करने से क्या आशा होती?सम्भव था कि बच्चों के साथ हँसने-खेलने से वह अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती, कुछ मन हरा हो जाता; लेकिन रुक्मिणी देवी लड़कों को उसके पास फटकने भी न देतीं, मानो वह कोई पिशाचिनी है, जो उन्हें निगल जायगी। रुक्णिमी देवी का स्वभाव सारे संसार से निराला था; यह पता लगाना कठिन था कि वह किस बात से खुश होती थीं; और किस बात से नाराज!एक बार जिस बात से खुश हो जाती थीं, दूसरी: [ ५९ ] बार उसी बात से जल जाती थीं। अगर निर्मला अपने कमरे में वैठी रहती, तो कहतीं न जाने कहाँ की मनहूसिन है, अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या महरियों से बातें करती, तो छाती पीटने लगतीं। लाज है न शरम निगोड़ी ने हया भून खाई; अब क्या ? कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी। जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में रुपये-पैसे देने शुरू किए, रुक्मिणी उसकी आलोचना करने पर आरूढ़ हो गई थी। उसे मालूम होता था कि अब प्रलय होने में बहुत-थोड़ी कसर रह गई है। लड़कों को बार-बार पैसों की जरूरत पड़ती। जब तक खुद स्वामिनी थी, उन्हें वहला दिया करती थी। अब सीधे निर्मला के पास भेज देती। निर्मला को लड़कों का चटोरापन अच्छा न लगता था। कभी-कभी पैसे देने से इन्कार कर देती। रुक्मिणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता-अब तो मालिकिन हुई हैं, लड़के काहे को जिएंगे। बिन माँ के बच्चे को कौन पूछे ?रुपयों की मिठाइयाँ खा जाते थे, अब धेले-धेले को तरसते हैं। निर्मला अगरं चिढ़ कर किसी दिन विना कुछ पूछे-गुछे पैसे दे देती, तो देवी जी उसकी दूसरी हो आलोचना करतीं इन्हें क्या, लड़के मरें या जिएं, इनकी वला से; माँ के विना कौन समझावे कि बेटा बहुत मिठाइयाँ मत खाओ ? आईनाई तो मेरे सिर जायगी, उन्हें क्या ! यहीं तक होता तो निर्मला शायद जप्त कर जाती; पर देवी जी खुफिया पुलीस के सिपाही की भाँति निर्मला का पीछा करती रहती थीं । अगर वह कोठे पर खड़ी है, तो अवश्य किसी पर निगाह डाल रही होगी; [ ६० ]महरी से बात करती है, तो अवश्य ही उनकी निन्दा करती होगी; बाजार से कुछ मँगवाती है, तो अवश्य कोई विलास-वस्तु होगी। वह बराबर उसके पत्र पढ़ने की चेष्टा किया करती, छिप-छिप कर उसकी बातें सुना करतीं। निर्मला उनकी दोधारी तलवार से काँपती रहती थी। यहाँ तक कि उसने एक दिन पति से कहा-आप जरा जीजी को समझा दीजिए, क्यों मेरे पीछे पड़ी रहती हैं?

तोताराम ने तेज़ होकर कहा-क्या तुम्हें कुछ कहा है क्या?

रोज ही कहती हैं। बात मुँह से निकलनी मुश्किल है। अगर उन्हें इस बात की जलन हो कि यह मालिकिन क्यों बनी हुई है, तो आप उन्हीं को रुपए-पैसे दीजिए, मुझे न चाहिए; वही मालिकिन बनी रहें। मैं तो केवल इतना चाहती हूँ कि कोई मुझे ताने-मेहने न दिया करे।

यह कहते-कहते निर्मला की आँखों से आँसू बहने लगे। तोताराम को अपना प्रेम दिखाने का यह बहुत ही अच्छा मौका मिला। बोले-मैं आज ही उनकी खबर लूँगा। साफ कह दूंगा,अगर मुँह बन्द करके रहना है, तो रहो; नहीं तो अपनी राह लो। इस घर की स्वामिनी वह नहीं हैं, तुम हो। वह केवल तुम्हारी सहायता के लिए हैं। अगर सहायता करने के बदले तुम्हें दिकत करती हैं, तो उनके यहाँ रहने की जरूरत ही नहीं। मैंने तो सोचा था विधवा हैं, अनाथ हैं, पावभर आटा खायँगी; पड़ी रहेंगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं, तो यह तो अपनी बहिन ही हैं। लड़कों [ ६१ ]की देख-भाल के लिए एक औरत की जरूरत भी थी, रख लिया; लेकिन इसके यह माने नहीं हैं कि वह तुम्हारे ऊपर शासन करें।

निर्मला ने फिर कहा-लड़कों को सिखा देती हैं कि जाकर माँ से पैसे माँगो, कभी कुछ-कभी कुछ। लड़के आकर मेरी जान खाते हैं। घड़ी भर लेटना मुश्किल हो जाता है। डाटती हूँ, तो वह ऑखें लाल-पीली करके दौड़ती हैं। मुझे समझती हैं कि लड़कों को देख कर जलती है। ईश्वर जानते होंगे कि मैं बच्चों को कितना प्यार करती हूँ। आखिर मेरे ही बच्चे तो हैं।मुझे उनसे क्यों जलन होने लगी।

तोताराम क्रोध से काँप उठे। वोले-तुम्हें जो लड़का दिक़ करे, उसे पीट दिया करो। मैं भी देखता हूँ कि लौंडे शरीर हो गए हैं। मन्साराम को तो मैं बोर्डिङ्ग हाउस में भेज दूंगा । बाक्नी दोनों को आज ही ठीक किए देता हूँ।

उस वक्त तोताराम कचहरी जा रहे थे । डाट-डपट करने का मौका न था; लेकिन कचहरी से लौटते ही उन्होंने घर में आकर रुक्मिणी से कहा-क्यों वहिन, तुम्हें इस घर में रहना है या नहीं। अगर रहना है, तो शान्त होकर रहो। यह क्या कि दूसरों का रहना मुश्किल कर दो।

रुक्मिणी समझ गई कि बहू ने अपना वार किया; पर वह दवने वाली औरत न थी । एक तो उम्र में बड़ी, तिस पर इसी घर की सेवा में जिन्दगी काट दी थी। किसकी मजाल थी कि उन्हें वेदखल कर दे। उन्हें भाई की इस क्षुद्रता पर आश्चर्य हुआ । [ ६२ ]बोलीं-तो क्या लौंडी बना कर रक्खोगे। लौंडी बन कर रहना है, तो इस घर की लौंडी न बनूँगी। अगर तुम्हारी यह इच्छा हो कि घर में कोईआग लगा दे और मैं खड़ी देखा करूँ। किसी को वेराह चलते देख, तो चुप साध लूँ। जो जिसके मन में आए करे; मैं मिट्टी की देवी बनी बैठी रहूँ, तो यह मुझसे न होगा। यह हुआ क्या, जो तुम इतना आपे से बाहर हो रहे हो। निकल गई सारी बुद्धिमानी, कल की लौडिया चोटी पकड़ कर नचाने लगी। कुछ पूछना न गूछना, बस उसने तार खींचा; और तुम काठ के सिपाही की तरह तलवार निकाल कर खड़े हो गए।

तोताo-सुनता तो हूँ कि तुम हमेशा खुचर निकालती रहती हो, बात-बात पर ताने देती हो।अगर कुछ सीख देनी हो, तो उसे प्यार से, मीठे शब्दों में देनी चाहिए। तानों से सीख मिलने के बदले उलटा और जी जलने लगता है।

रुक्मिणी-तो तुम्हारी यही मर्जी है कि किसी बात में न बोलूँ, यही सही!लेकिन फिर यह न कहना कि तुम तो घर में बैठी थी, क्यों नहीं सलाह दी।जब मेरी बातें जहर लगती हैं, तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बोलूँ।मसल है-'नाटों खेती,बहुरियों घर' मैं भी देखू बहुरिया कैसे घर चलाती है।

इतने में सियाराम और जियाराम स्कूल से आ गए।आते ही आते दोनों बुआ जी के पास जाकर खाने को माँगने लगे। रुक्मिणी ने कहा—जाकर अपनी नई अम्माँ से क्यों नहीं माँगते, मुझे बोलने का हुक्म नहीं है। [ ६३ ]तोताo-अगर तुम लोगों ने उस घर में क़दम रक्खे,तो टाँग तोड़ दूंँगा।वदमाशी पर कमर बॉधी है।

जियाराम जरा शांख था। बोला-उनको तो आप कुछ नहीं कहते, ही को धमकाते हैं। कभी पैसे नहीं देती।

सियाराम ने इस कथन का अनुमोदन किया-कहती हैं मुझे दिक़ करोगे, तो कान काट लूँगी । कहती हैं कि नहीं जिया?

निर्मला अपने कमरे से बोली-मैं ने कब कहा था कि तुम्हारे कान काट लूंगी। अभी से झूठ बोलने लगे।

इतना सुनना था कि तोताराम ने सियाराम के दोनों कान पकड़ कर उठा लिया। लड़का ज़ोर से चीख मार कर रोने लगा।

रुक्मिणी ने दौड़ कर बच्चे को मुन्शी जी के हाथ से छुड़ा लिया और वोलीं-वस,रहने भी दो; क्या वच्चे को मार ही डालोगे?हाय-हाय!कान लाल हो गया। सच कहा है, नई बीवी पाकर आदमी अन्धा हो जाता है।अभी से यह हाल है, तो इस घर के भगवान् ही मालिक हैं।

निर्मला अपनी विजय पर मन ही मन प्रसन्न हो रही थी; लेकिनजवमुन्शीजी ने बच्चे का कान पकड़ कर उठा लिया, तो उससे न रहा गया।छुड़ाने को दौड़ी; पर रुक्मिणी पहले ही पहुँच गई थी। बोली-पहले आग लगा दी, अब, बुझाने दौड़ी हो । जब अपने लड़के होंगे, तब आँखें खुलेंगी। पराई पीर क्या जानो? निर्मला-खड़े तो हैं; पूछ लो न, मैंने क्या आग लगा दी? मैं ने इतना ही कहा था कि लड़के मुझे पैसों के लिए बार-बार दिक़ [ ६४ ]करते हैं। इसके सिवा जो मेरे मुँह से कुछ और निकला हो, तो मेरी आँखें फूट जाएँ।

तोताo-मैं खुद इन लौडों की शरारत देखा करता हूँ,अन्धा थोड़े ही हूँ। तीनों जिद्दी और शरीर हो गए हैं। बड़े मियाँ को तो मैं आज ही होस्टल में भेजता हूँ।

रुक्मिणी-अब तक तो तुम्हें इनकी कोई शरारत न सूझती थी, आज आँखें क्यों इतनी तेज़ हो गई?

तोताराम-तुम्हीं ने इन्हें इतना शोख कर रक्खा है।

रुक्मिणी-तो मैं ही विष की गाँठ हूँ। मेरे ही कारन तुम्हारा घर चौपट हो रहा है। लो, मैं जाती हूँ। तुम्हारे लड़के हैं; मारो चाहे काटो, मैं न बोलूंगी।

यह कह कर वहाँ से चली गई। निर्मला बच्चे को रोते देख कर विह्वल हो उठी। उसने उसे छाती से लगा लिया, और गोद में लिए हुए अपने कमरे में लाकर उसे चुसकारने लगी, लेकिन बालक और भी सिसक-सिसक कर रोने लगा। उसका अबोध हृदय इस प्यार में वह मातृ-स्नेह न पाता था,जिससे देव ने उसे वञ्चित कर दिया था। यह वात्सल्य न था,केवल दया थी। यह वह वस्तु थी, जिस पर उसका कोई अधिकार न था,जो केवल भिक्षा के रूप में उसे दी जा रही थी, पिता ने पहले भी दो-एक बार मारा था, जब उसकी माँ जीवित थी। लेकिन तब उसकी माँ उसे छाती से लगा कर रोती न थी। वह अप्रसन्न होकर उससे बोलना छोड़ देती, यहाँ तक कि वह स्वयं थोड़ी ही देर के बाद [ ६५ ]सब कुछ भूल कर फिर माता के पास दौड़ा जाता था। शरारत के लिये सजा पाना तो उसकी समझ में आता था, लेकिन मार खाने पर चुमकारा जाना उसकी समझ में न आता था। मातृ-प्रेम में कठोरता होती थी, लेकिन मृदुलता से मिली हुई। इस प्रेम में करुणा थी; पर वह कठोरता न थी, जो आत्मीयता का गुप्त सन्देश है। स्वस्थ अङ्ग की परवाह कौन करता है? लेकिन वही अङ्ग जव किसी वेदना से टपकने लगता है, तो उसे ठेस और धक्के से बचाने का यत्न किया जाता है। निर्मला का करण रोदन बालक को उसके अनाथ होने की सूचना दे रहा था। वह बड़ी देर तक निर्मला की गोद में बैठा रोता रहा और रोते-रोते सो गया। निर्मला ने उसे चारपाई पर सुलाना चाहा तो बालक ने सुषुप्तावस्था में अपनी दोनों कोमल वाहें उसकी गर्दन में डाल दी; और ऐसा चिपट गया, मानो नीचे कोई गढ़ा है। शङ्का और भय से उसका मुख विकृत हो गया। निर्मला ने फिर बालक को गोद में उठा लिया, चारपाई पर न सुला सकी। इस समय बालक को गोद में लिए हुए उसे वह तुष्टि हो रही थी, जो अब तक कभी न हुई थी। आज पहली बार उसे वह आत्म-वेदना हुई, जिसके बिना आँखें नहीं खुलती, अपना कर्तव्य-मार्ग नहीं सूझता। वह मार्ग अव दिखाई देने लगा।