निर्मला/७

विकिस्रोत से
निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
[ ७६ ]
 

सातवाँ परिच्छेद

उस दिन से निर्मला का रङ्ग-ढङ्ग बदलने लगा। उसने अपने को कर्त्तव्य पर मिटा देने का निश्चय कर लिया। अब तक नैराश्य के सन्ताप में उसने कर्त्तव्य पर ध्यान ही न दिया था। उसके हृदय में विप्लव की ज्वाला सी दहकती रहती थी, जिसकी असह्य वेदना ने उसे संज्ञाहीन सा कर रक्खा था। अब उस वेदना का वेग शान्त होने लगा। उसे ज्ञान हुआ कि मेरे लिए जीवन में कोई आनन्द नहीं। उसका स्वप्न देख कर क्यों इस जीवन को नष्ट करूँ। संसार में सब के सब प्राणी सुख-सेज ही पर तो नहीं सोते? मैं भी उन्हीं अभागों में हूँ। मुझे भी विधाता ने दुख की गठरी ढोने के लिए चुना है। वह बोझ सिर से उतर नहीं सकता। उसे फेंकना भी चाहूँ, तो नहीं फेंक सकती। [ ७७ ]उस कठिन भार से चाहे आँखों में अँधेरा आ जाय,चाहे गर्दन टूटने लगे,चाहे पैर उठाना दुस्तर हो जाय;लेकिन वह गठरी ढोनी ही पड़ेगी। उम्र भर का क़दी कहाँ तक रोएगा? रोए भी तो कौन देखता है? किसे उस पर दया आती है? रोने से काम में हर्ज होने के कारण उसे और यातनाएँ ही तो सहनी पड़ती हैं!

दूसरे दिन वकील साहव कचहरी से आए तो देखा निर्मला की सहास्य मूर्ति अपने कमरे के द्वार पर खड़ी है। वह अनिन्द्य छबि देख कर उनकी आँखें तृप्त हो गई। आज बहुत दिनों के बाद उन्हें यह कमल खिला हुआ दिखाई दिया। कमरे में एक वड़ा सा आईना दीवार से लटका हुआ था। उस पर एक परदा पड़ा रहता था। आज उसका परदा उठा हुआ था। वकील साहब ने कमरे में कदम रक्खा, तो शीशे पर निगाह पड़ी। अपनी सूरत साफ-साफ दिखाई दी। उनके हृदय में चोट सी लग गई। दिन भर के परिश्रम से मुख की कान्ति मलिन हो गई थी, भाँति-भाँति के पौष्टिक पदार्थ खाने पर भी गालों की झुर्रियाँ साफ दिखाई दे रही थीं। तोंद कसी होने पर भी किसी मुंहजोर घोड़े की भाँति वाहर निकली हुई थी। आईने ही के सामने, किन्तु दूसरी ओर ताकती हुई निर्मला भी खड़ी थी। दोनों सूरतों में कितना अन्तर था-एक रत्न-जटित विशाल भवन था,दूसरा टूटा-फूटा खंडहर!वह उस आईने की ओर और न देख सके। अपनी यह हीनावस्था उनके लिए असह्य थी। वह आईने के सामने से हट [ ७८ ]गए,उन्हें अपनी ही सूरत से घृणा होने लगी। फिर इस रूपवती कामिनी का उनसे घृणा करना कोई आश्चर्य की बात न थी। निर्मला की ओर ताकने का भी उन्हें साहस न हुआ। उसकी यह अनुपम छबि उनके हृदय का शूल बन गई।

निर्मला ने कहा-आज इतनी देर कहाँ लगाई। दिन भर राह देखते-देखते आँखें फूट जाती हैं।

तोताराम ने खिड़की की ओर ताकते हुए जवाब दिया-मुक़दमों के मारे दम मारने की छुट्टी नहीं मिलती। अभी एक मुकदमा और था,लेकिन मैं सिर-दर्द का बहाना करके भाग खड़ा हुआ।

निर्मला-तो क्यों इतने मुकदमे लेते हो? काम उतना ही करना चाहिए,जितना आराम से हो सके। प्राण देकर थोड़े ही काम किया जाता है!मत लिया करो बहुत मुकदमे,मुझे रुपयों का लालच नहीं। तुम आराम से रहोगे, तो बहुत रुपए मिलेंगे।

तोता-भई,आती हुई लक्ष्मी भी तो नहीं ठुकराई जाती।

निर्मला—लक्ष्मी अगर रक्त और मांस की भेंट लेकर आती है, तो उसका न आना ही अच्छा मैं धन की भूखी नहीं हूँ।

इसी वक्त मन्साराम भी स्कूल से लौटा।धूप में चलने के कारण मख पर पसीने की बूंदें आई हुई थीं, गोरे मुखड़े पर जन की लाली दौड़ रही थी, आँखों से ज्योति सी निकलती मालूम होती थी। द्वार पर खड़ा होकर बोला-अम्माँ जी, लाइए कुछ खाने को 'निकालिए, जरा खेलने जाना है। [ ७९ ]निर्मला जाकर ग्लास में पानी लाई;और एक तश्तरी में कुछ मेवे रख कर मन्साराम को दिए।मन्साराम खाकर चलने लगा,तो निर्मला ने पूछा-कब तक आओगे?

मन्साराम-कह नहीं सकता।गोरों के साथ हॉकी है। वारक यहाँ से बहुत दूर है।

निर्मला-भई,जल्द आना। खाना ठण्ढा हो जायगा,तो कहोगे मुझे भूख नहीं है।

मन्साराम ने निर्मला की और सरल स्नेह-भाव से देख कर कहा-मुझे देर हो जाय तो समझ लीजिएगा वहीं खा रहा है। मेरे लिए बैठने की ज़रूरत नहीं।

वह चला गया तो निर्मला बोली-पहले तो घर में आते ही न थे, मुझसे बोलते शरमाते थे। किसी चीज़ की जरूरत होती,तो बाहर ही से मँगवा भेजते। जब से मैंने बुला कर कहा, तब से अव आने लगे हैं।

तोताराम ने कुछ चिढ़ कर कहा-यह तुम्हारे पास खाने-पीने की चीजें माँगने क्यों आता है? दीदी से क्यों नहीं कहता?

निर्मला ने यह वात प्रशंसा पाने के लोभ से कही थी। वह यह दिखाना चाहती थी कि मैं तुम्हारे लड़कों को कितना चाहती हूँ। यह कोई वनावटी प्रेम न था। उसे लड़कों से सचमुच स्नेह था। उसके चरित्र में अभी तक बाल-भाव ही प्रधान था उसमें वही उत्सुकता,वहीआशावादिता,वही चञ्चलता,वही विनोदप्रियता विद्यमान थी और वालकों के साथ उसकी ये वालवृत्तियाँ [ ८० ]प्रस्फुटित होती रहती थीं। सपनि-सुलभ ईर्षा अभी तक उसके मन में उदय नहीं हुई थी, लेकिन पति के प्रसन्न होने के बदले नाक-भौं सिकोड़ने का आशय न समझ कर बोली-मैं क्या जानूँ उनसे क्यों नहीं माँगते। मेरे पास आते हैं,तो दुतकार नहीं देती। अगर ऐसा करूँ,तो यही होगा कि यह तो लड़कों को देख कर जलती है।

मुन्शी जी ने इसका कुछ जवाब न दिया लेकिन आज उन्होंने मुवक्किलों से बातें नहीं की, सीधे मन्साराम के पास गए और उसका इम्तहान लेने लगे। वह जीवन में पहला ही अवसर था कि उन्होंने मन्साराम और किसी लड़के की शिक्षोन्नति के विषय में इतनी दिलचस्पी दिखाई हो।उन्हें अपने काम से सिर उठाने की फुरसत ही न मिलती थी । उन्हें उन विषयों को पढ़े हुए चालीस वर्ष के लगभग हो गए थे। तब से उनकी ओर आँख तक न उठाई थी। वह कानूनी पुस्तकों और पत्रों के सिवा और कुछ पढ़ते ही न थे,इसका समय ही न मिलता था;पर आज उन्हीं विषयों में वह मन्साराम। की परीक्षा लेने लगे।मन्साराम जहीन था;और इसके साथ मेहनती भी था। खेल में बी० टीम का कैप्टेन होने पर भी वह क्लास में प्रथम रहता था। जिस पाठ को एक बार देख लेता,पत्थर की'लकीर हो जाती थी। मुन्शी जी को उतावली में ऐसे मार्मिक प्रश्न तो सूझ ही न,जिनके उत्तर देने में एक चतुर लड़के को भी कुछ सोचना पड़ता; और ऊपरी प्रश्नों को मन्साराम ने चुटकियों में उड़ा दिया। कोई सिपाही अपने शत्रु पर वार खाली जाते देख कर जैसे झल्ला-झल्ला कर और भी तेजी से वार करता है,उसी भाँतिमन्साराम [ ८१ ]के जवाबों को सुन-सुन कर वकील साहब भी झल्लाते थे। वह कोई ऐसा प्रश्न करना चाहते थे,जिसका जवाब मन्साराम से न बन पड़े। देखना चाहते थे कि इसका कमजोर पहलू कहाँ है। यह देख कर अब उन्हें सन्तोष न हो सकता कि यह क्या करता है। वह यह देखना चाहते थे कि यह क्या नहीं करता। कोई अभ्यस्त परीक्षक मन्साराम की कमजोरियों को आसानी से दिखा देता,पर वकील साहब अपनी आधी शताब्दी की भूली हुई शिक्षा के आधार पर इतने सफल कैसे होते?अन्त में जब उन्हें अपना गुस्सा उतारने के लिए कोई बहाना न मिला,तो बोले मैं देखता हूँ,तुम सारे दिन इधर-उधर मटर-गश्त किया करते हो,मैं तुम्हारे चरित्र को तुम्हारी बुद्धि से बढ़ कर समझता हूँ और तुम्हारा यों आवारा घूमना मुझे कभी गवारा नहीं हो सकता।

मन्साराम ने निर्भीकता से कहा-मैं शाम को एक घण्टा खेलने के लिए जाने के सिवा दिन भर कहीं नहीं जाता।आप अम्माँ या वुआ जी से पूछ लें। मुझे खुद इस तरह घूमना पसन्द नहीं। हाँ,खेलने के लिए हेडमास्टर साहब आग्रह करके बुलाते हैं,तो मजबूरन जाना पड़ता है।अगर आप को मेरा खेलने जाना पसन्द नहीं है, तो कल से न जाऊँगा।

मुन्शी जी ने देखा कि बातें दूसरे ही रुख पर आ रही हैं,तो तीन स्वर में वोले-मुझे इस बात का इतमीनान क्यों कर हो कि खेलने के सिवा और कहीं नहीं घूमने जाते। मैं बराबर शिकायतें सुनता हूँ। [ ८२ ]सन्साराम ने उत्तेजित होकर कहा―किन महाशय ने आप से यह शिकायत की है,जरा मैं भी तो सुनूँ।

वकील―कोई हो,इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं।तुन्हें इतना विश्वास होना चाहिए कि मैं झूठा आक्षेप नहीं करता।

मन्साराम―अगर मेरे सामने कोई आकर कह दे कि मैं ने इन्हें कहीं घूमते देखा है,तो मुँह न दिखाऊँ।

वकील―किसी को ऐसी क्या गरज पड़ी है कि तुम्हारे मुँँह पर तुम्हारी शिकायत करे; और तुमसे वैर मोल ले? तुम अपने दो-चार साधियों को लेकर उसके घर के खपरैल फोड़ते फिरो। मुझसे इस किस्म की शिकायत एक आदमी ने नहीं, कई आदमियों ने की है; और कोई वजह नहीं है कि मैं अपने दोस्तों की बात का विश्वास न करूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम स्कूल ही में रहा करो।

मन्साराम ने मुँह गिरा कर कहा―मुझे वहाँ रहने में कोई आपत्ति नहीं है, जब से कहिए चला जाऊँँ।

वकील―तुमने मुँह क्यों लटका लिया, क्या वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता? ऐसा मालूम होता है, मानो वहाँ जाने के भय से तुम्हारी नानी मरी जा रही है। आखिर बात क्या है, वहाँ तुम्हें क्या तकलीफ़ होगी?

मन्साराम छात्रालय में रहने के लिए उत्सुक नहीं था; लेकिन जब मुन्शी जी ने यही बात कह दी; और इसका कारण पूछा, तो वह अपनी झेप मिटाने के लिए प्रसन्नचित होकर बोला―मुँह क्यों लटकाऊँ? मेरे लिए जैसे घर, वेसे वोर्डिङ्ग हाउस। तकलीफ़ [ ८३ ]भी कोई नहीं;और हो भी तो उसे संह सकता हूँ। मैं कल से चला जाऊँगा। हाँ,अगर जगह न खाली हुई,तो मजबूरी है। मुन्शी जी वकील थे। समझ गए कि यह लौंडा कोई ऐसा बहाना ढूँढ़ रहा है,जिसमें मुझे वहाँ जाना भी न पड़े;और कोई इल्जाम भी सिर पर न आए।बोले-सब लड़कों के लिए जगह है,तुम्हारे ही लिए जगह न होगी।

मन्साराम-कितने ही लड़कों को जगह नहीं मिली;और वे बाहर किराए के मकानों में पड़े हुए हैं। अभी बोर्डिङ्ग हाउस से एक लड़के का नाम कट गया था,तो पचास अर्जियाँ उस जगह के लिए आई थीं।

वकील साहब ने ज्यादा तर्क-वितर्क करना उचित न समझा। मन्साराम को कल तैयार रहने की आज्ञा देकर आप ने बग्घी तैयार कराई, और सैर करने चले गए। इधर कुछ दिनों से वह शाम को प्रायः सैर करने चले जाया करते थे। किसी अनुभवी प्राणी ने बतलाया था कि दीर्घ जीवन के लिए इससे बढ़ कर कोई मन्त्र नहीं है। उनके जाने के बाद मन्साराम आकर रुक्मिणी से बोला वुआ जी,बाबू जी ने मुझे कल से स्कूल ही में रहने को कहा है। रुक्मिणी ने विस्मित होकर पूछा-क्यों?

मन्सा०-मैं क्या जानूँ। कहने लगे कि तुम यहाँ आवारों की तरह इधर-उधर फिरा करते हो।।

रुक्मि०-तूने कहा कि मैं कहीं नहीं जाता? मन्सा०-कहा क्यों नहीं,मगर जब वह मानें भी! [ ८४ ]रुक्मि-तुम्हारी नई अम्माँ जी की कृपा होगी;और क्या?

मन्सा-नहीं बुआ जी,मुझे उन पर सन्देह नहीं है,वह बेचारी तो भूल से भी कभी कुछ नहीं कहतीं। कोई चीज़ माँगने जाता हूँ, तो तुरन्त उठ कर देती हैं।

रुक्मि-तू यह त्रियाचरित्र क्या जाने,यह उन्हीं की लगाई आग है। देख मैं जाकर पूछता हूँ न।

रुक्मिणी झल्लाई हुई निर्मला के पास जा पहुँची। उसे आड़े हाथों लेने का,काँटों में घसीटने का,तानों से छेदने का,रुलाने का कोई सुअवसर वह हाथ से न जाने देती थीं। निर्मला उनका,आदर करती थी,उनसे दबती थी,उनकी बातों का जवाब तक न देती थी। वह चाहती थी कि यह मुझे सिखावन की बातें कहीं जहाँ मैं भूलूँ वहाँ सुधारें,सब कामों की देख-रेख करती रहें;पर रुक्मिणी उससे तनी ही रहती थीं।

निर्मला चारपाई से उठ कर बोली-आइए दीदी,बैठिए!

रुक्मिणी ने खड़े-खड़े कहा-मैं पूछती हूँ,क्या तुम सब को घर से निकाल कर अकेली.ही रहना चाहती हो?

निर्मला ने कातर भाव से कहा-क्या हुआ;दीदी जी? मैं ने तो किसी से कुछ नहीं कहा।

रुक्मि०-मन्साराम को घर से निकाले देती हो,तिस पर कहती हो मैंने तो किसी को कुछ नहीं कहा। क्या तुमसे इतना। भी नहीं देखा जाता?

निर्मला-दीदी जी,मैं तुम्हारे चरणों को छूकर कहती हूँ, [ ८५ ]
मुझे कुछ नहीं मालूम। मेरी आँखें फूट जायँ, अगर मैंने उसके विषय में मुँह तक खोला हो।

रुक्मि०— क्यों व्यर्थ कस्में खाती हो। अब तक तोताराम कभी लड़के से नहीं बोलते थे। एक हफ्ते के लिए मन्साराम ननिहाल चला गया था, तो इतने घबराए कि खुद जाकर लिवा लाए। अव उसी मन्साराम को वह घर से निकाल कर स्कूल में रक्खे देते हैं। अगर लड़के का बाल भी वाँका हुआ, तो तुम जानोगी। वह कभी वाहर नहीं रहा, उसे न खाने की सुध रहती है,न पहनने की— जहाँ बैठा, वहीं सो जाता है। कहने को जवान हो गया,पर स्वभाव बालकों का सा है। स्कूल में तो उसका मरन हो जायगा। वहाँ किसे फिक्र है कि इसने खाया या नहीं, कहाँ कपड़े उतारे, कहाँ सो रहा है। जब घर में कोई पूछने वाला नहीं, तो वाहर कौन पूछेगा? मैं ने तुम्हें चेता दिया; आगे तुम जानो, तुम्हारा काम जाने!

यह कह कर रुक्मिणी वहाँ से चली गई।

वकील साहब सैर करके लौटे तो निर्मला ने तुरन्त यह विषय छेड़ दिया— मन्साराम से वह आजकल थोड़ी देर अङ्गरेज़ी पढ़ती थी। उसके चले जाने पर फिर उसके पढ़ने का हरज न होगा? दूसरा कौन पढ़ाएगा? वकील साहब को अब तक यह बात न मालूम थी। निर्मला ने सोचा था कि जब कुछ अङ्गरेजी का अभ्यास हो जायगा, तो वकील साहब को एक दिन अङ्गरेजी में बातें करके चकित कर दूँँगी। कुछ थोड़ा सा ज्ञान तो उसे अपने भाइयों ही से [ ८६ ]हो गया था। अब वह नियमित रूप से पढ़ रही थी। वकील साहब की छाती पर साँप सा लोट गया,त्योरियाँ बदल कर बोले-कब से पढ़ा रहा है तुम्हें? मुझसे तुमने पहले कभी नहीं कहा। .

निर्मला ने उनका यह रूप केवल एक बार देखा था,जब उन्होंने सियाराम को मारते-मारते बेदम कर दिया था। वही रूप और भी विकराल बन कर आज उसे फिर दिखाई दिया। सहमती हुई बोली-उनके पढ़ने में तो इससे कोई हरज नहीं होता। मैं उसी वक्त उनसे पढ़ती हूँ,जब उन्हें फुरसत रहती है। पूछ लेती हूँ कि तुम्हारा हरज होता हो तो जाओ। बहुधा जब वह खेलने जाने लगते हैं,तो दस मिनिट के लिए रोक लेती हूँ। मैं खुद चाहती हूँ कि उनका नुकसान न हो।

बात कुछ न थी,मगर वकील साहब हताश से होकर चारपाई पर गिर पड़े और माथे पर हाथ रख कर गहन चिन्ता में मग्न हो गए। उन्होंने जितना समझा था,बात उससे कहीं बढ़ गई थी। उन्हें अपने ऊपर क्रोध आया कि मैंने पहले ही क्यों न इस लौंडे को बाहर रखने का प्रबन्ध किया। आजकल जो यह महारानी इतनी खुश दिखाई देती हैं,इसका रहस्य अब समझ में आया। पहले कभी कमरा इतना सजा-सजाया न रहता था,बनाव-चुनाव भी न करती थीं;पर अब देखता हूँ काया-पलट सी हो गई है। जी में तो पाया कि इसी वक्त चल कर मन्साराम को निकाल दूं लेकिन प्रौढ़ बुद्धि ने समझाया किइस अवसर पर क्रोध की जरूरत नहीं। कहीं इसने भाँपलिया,तो गजब ही हो जायगा। [ ८७ ] हॉ,जरा इसके मनोभावों को टटोलना चाहिए। बोले-यह तो मैं जानता हूँ कि तुम्हें दो-चार मिनिट पढ़ाने से उसका कोई हरज नहीं होता, लेकिन आवारा लड़का है, अपना काम न करने का उसे एक वहाना तो मिल जाता है। कल अगर फेल हो गया, तो साफ कह देगा-मैं तो दिन भर पढ़ाता रहता था। मैं तुम्हारे लिए कोई मिस नौकर रख दूंगा। कुछ ज्यादा खर्च न होगा। तुमने मुझसे पहले कहा ही नहीं। यह तुम्हें भला क्या पढ़ा पाता होगा? दो-चार शब्द वता कर भाग जाता होगा। इस तरह तो तुम्हें कुछ भी न आएगा। निर्मला ने तुरत इस आक्षेप का खण्डन किया-नहीं, यह बात तो नहीं, वह मुझे दिल लगा कर पढ़ाते हैं, और उनकी शैली भी कुछ ऐसी है कि पढ़ने में मन लगता है। आप एक दिन जरा उनका समझाना देखिए।मैं तो समझती हूँ किमिस इतने ध्यान से न पढ़ाएगी।

मुन्शी जी अपनी प्रश्न-कुशलता पर मूंछोंको ताव देते बोलेदिन में एक ही बार पढ़ाता है या कई वार?

निर्मला अव भी इन प्रश्नों का शय न समझी। बोली-पहले तो शाम ही को पढ़ा देते थे,अब कई दिनों से एक वार आकर लिखना भी देख लेते हैं। वह तो कहते हैं कि मैं अपने क्लास में सब से अच्छा हूँ। अभी परीक्षा में इन्हीं को प्रथम स्थान मिला था, फिर आप कैसे समझते हैं कि उनका पढ़ने में जी नहीं लगता। मैं इसलिए और भी कहती हूँ कि दीदी समझेगी-इसी ने यह [ ८८ ]आग लगाई है। मुफ्त में मुझे ताने सुनने पड़ेंगे। अभी जरा ही देर हुई धमका कर गई हैं।

मुन्शी जी ने दिल में कहा-खूब समझता हूँ। तू कल की छोकरी होकर मुझे चराने चली है । दीदी का सहारा लेकर अपना मतलब पूरा करना चाहती है। बोले-मैं नहीं समझता बोर्डिङ्ग का नाम सुन कर क्यों लौंडे की नानी मरती है। और लड़के खुश होते हैं कि अब अपने दोस्तों में रहेंगे, यह उलटे रो रहा है। अभी कुछ दिन पहले तक यह दिल लगा कर पढ़ता था। यह उसी मेहनत का नतीजा है कि अपनी क्लास में सब से अच्छी है। लेकिन इधर कुछ दिनों से इसे सैर-सपाटे का चाका पड़ चला है। अगर अभी से रोक-थाम न की गई, तो पीछे कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। तुम्हारे लिए मैं एक मिस रख दूंगा। __

दूसरे दिन मुन्शी जी प्रातःकाल कपड़े-लत्ते पहन कर बाहर निकले । दीवानखाने में कई मुअकिल बैठे हुए थे। इनमें एक राजा साहब भी थे, जिनसे मुन्शी जी को कई हजार सालाना मेहनताना मिलता था। मगर मुन्शी जी उन्हें वहीं बैठे छोड़ दस मिनिट में आने का वादा करके वग्घी पर बैठ कर स्कूल के हेडमास्टर के यहाँ जा पहुँचे। हेडमास्टर साहेब बड़े सजन पुरुष थे । वकील साहब का बहुत आदर-सत्कार किया; पर उनके यहाँ एक लड़के की जगह भी खाली न थी। सभी कमरे 'भरे हुए थे। इन्स्पेक्टर साहब की वड़ी.ताकीद थी कि मुफस्सिल के लड़कों को जगह देकर तव शहर के लड़कों को लिया जाय । [ ८९ ]इसलिए यदि कोई जगह खाली भी हुई,तो भी मन्साराम को जगह न मिल सकेगी;क्योंकि कितने ही बाहरी लड़कों के प्रार्थना-पत्र रक्खे हुए थे। मुन्शी जी वकील थे।रात-दिन ऐसे प्राणियों से साविका रहता था,जो लोभ-वश असम्भव को भी सम्भव,असाध्य को भी साध्य बना सकते हैं। समझे शायद कुछ दे-दिला कर काम निकल जाय।दफ्तर के लार्क से ढङ्ग की कुछ बातचीत करनी चाहिए;पर उसने हँस कर कहामुन्शी जो,यह कचहरी नहीं,स्कूल है; हेडमास्टर साहब के कानों में इसकी भनक भी पड़ गई, तो जामे से बाहर हो जाएँगे;और मन्साराम को खड़े-खड़े निकाल देंगे। सम्मव है,अफसरों से शिकायत करदें।वेचारे मुन्शी जी अपना सा मुँह लेकर रह गए।दस वजते-बजते झुंझलाए हुए घर लौटे। मन्साराम उसी वक्त घर से स्कूल जाने को निकला।मुन्शी जी ने उसे कठोर नेत्रों से देखा,मानो वह उनका शत्रु हो;और घर में चले गए।

इसके बाद दस-बारह दिनों तक वकील साहब का यही नियम रहा कि कभी सुबह,कभी शाम किसी न किसी स्कूल में हेडमास्टर से मिलते;और मन्साराम को वोर्डिङ्ग हाउस में दाखिल कराने की चेष्टा करते;पर किसी स्कूल में जगह न थी।सभी जगहों से कोरा जवाब मिल गया। अब दो ही उपाय थे-या तो मन्साराम को अलग किराए के मकान में रख दिया जाय या किसी दूसरे शहर के स्कूल में भरती करा दिया जाय। यह दोनों ही बातें आसान थीं। मुफस्सिल के स्कूलों में जगहें अक्सर खाली रहती [ ९० ]थीं; लेकिन अब मुन्शी जी का शङ्कित हृदय कुछ शान्त हो गया था। उस दिन से उन्होंने मन्साराम को कभी घर में जाते नहीं देखा । यहाँ तक कि अब वह खेलने भी न जाता था। स्कूल जाने के पहले और आने के बाद बरावर अपने कमरे में बैठा रहता। गर्मी के दिन थे, खुले हुए मैदान में भी देह से पसीने की धारें निकलती थीं, लेकिन मन्साराम अपने कमरे से बाहर न निकलता। उसका आत्माभिमान आवारापन के आक्षेप से मुक्त हो जाने के लिए विकल हो रहा था। वह अपने आचरण से इस कलङ्क को मिटा देना चाहता था।

एक दिन मुन्शी जो बैठे भोजन कर रहे थे कि मन्साराम भी नहा कर खाने आया। मुन्शी जी ने इधर उसे महीनों से नङ्गे बदन न देखा था। आज उस पर निगाह पड़ी तो होश उड़ गए । हड्डियों का एक ढाँचा सामने खड़ा था। मुख पर अब भी ब्रह्मचर्य का तेज था; पर देह घुल कर काँटा हो गई थी। पूछा-आजकल तुम्हारी तबीयत अच्छी नहीं है क्या? इतने दुर्बल क्यों हो?

मन्साराम ने धोती ओढ़ कर कहा--तबीयत तो बिलकुल अच्छी है।

मुन्शी जी-फिर इतने दुर्बल क्यों हो?

मन्सा०-दुर्बल तो नहीं हूँ। मैं इससे ज्यादा मोटा कब था?

मुन्शी जी-वाह आधी देह भी नहीं रही और कहते हो मैं दुर्बल नहीं हूँ। क्यों दीदी, यह ऐसा ही था?

रुक्मिणी आँगन में खड़ी तुलसी को जल चढ़ा रही थीं। [ ९१ ]बोली-दुबला क्यों होगा, अब तो बहुत अच्छी तरह लालन-पालन हो रहा है। मैं गँवारिन थी, लड़कों को खिलाना-पिलाना नहीं जानती थी। खोंमचा खिला-खिला कर इनकी आदत बिगाड़े देती थी। अब तो एक पढ़ी-लिखी, गृहस्थी के कामों में चतुर औरत पान की तरह फेर रही है न! दुबला हो उसका दुश्मन!!

मुन्शी जी-दीदी, तुम बड़ा अन्याय करती हो। तुमसे किसने कहा कि लड़कों को विगाड़ रही हो। जो काम दूसरों के किए न हो सके, वह तुम्हें खुद करना चाहिए। यह नहीं कि घर से कोई नाता ही न रक्खो। जो अभी खुद लड़की है, वह लड़कों की देख-रेख क्या करेगी? यह तुम्हारा काम है।

रुक्मिणी-जब तक अपना समझती थी, करती थी। जब तुमने गैर समझ लिया, तो मुझे क्या पड़ी है कि तुम्हारे गले से चिमहूँ? पूछो, कै दिन से दूध नहीं पिया? जाके कमरे में देख आओ, नाश्ते के लिए जो मिठाई भेजी गई थी, वह पड़ी सड़ रही है। मालकिन समझती हैं, मैं ने तो खाने को सामने रख दिया, कोई न खाय तो क्या मुँह में डाल दूँ। तो भैया इस तरह वह लड़के पलते होंगे? जिन्होंने कभी लाड़-प्यार का सुख नहीं देखा। तुम्हारे लड़के बरावर पान की तरह फेरे जाते रहे हैं, अव अनाथों की तरह रह कर सुखी नहीं रह सकते। मैं तो बात साफ कहती हूँ। बुरा मान कर ही कोई मेरा क्या कर लेगा? उस पर सुनती हूँ कि लड़के को स्कूल में रखने का प्रबन्ध कर रहे हो! बेचारे को घर में आने तक [ ९२ ]की मनाही है। मेरे पास आते भी डरता है; और फिर मेरे पास रक्खा ही क्या रहता है, जो जाकर खिलाऊँगी?

इतने में मन्साराम दो फुलके खाकर उठ खड़ा हुआ। मुन्शी जी ने पूछा-क्या तुम खा चुके? अभी बैठे एक मिनिट से ज्यादा नहीं हुआ। तुमने खाया क्या? दो ही फुलके तो लिए थे?

मन्साराम ने सकुचाते हुए कहा-दाल और तरकारी भी तो थी। ज्यादा खा जाता हूँ, तो गला जलने लगता है, खट्टी डकारें आने लगती हैं।

मुन्शी जो भोजन करके उठे, तो बहुत चिन्तितथे। अगर.लड़का योंही दुबला होता गया, तो कोई भयङ्कर रोग पकड़ लेगा। उन्हें रुक्मिणी पर इस समय बहुत क्रोध आ रहा था। इन्हें यही जलन है कि मैं घर की मालिकिन नहीं हूँ। यह नहीं समझती कि मुझे घर की मालिकिन बनने का क्या अधिकार है। जिसे रुपयों का हिसाब तक करना नहीं आता, वह घर की स्वामिनी कैसे हो सकती है? बनी तो थीं साल भरतकमालिकिन-एक पाई की भी बचत न होती थी। इसी आमदनी में रूपकला दो-ढाई सौ रुपये बचा लेती थी। इनके राज में वही आमइनी खर्च को भी पूरी न पड़ती थी। कोई बात नहीं, लाड़-प्यार ने इन लड़कों को चौपट कर दिया। इतने बड़ेबड़े लड़कों को इसकी क्या जरूरत कि जब कोई खिलाए तो खायँ? इन्हें तो खुद अपनी फिक्र रखनी चाहिए। मुन्शी जी दिन भर इसी उधेड़-बुन में पड़े रहे। दो-चार मित्रों से.भी जिक्र किया! लोगों ने कहा-उसके खेल-कूद में वाधा न डालिए, अभी से उसे [ ९३ ]कैद न कीजिए, खुली हवा में चरित्र के भ्रष्ट होने की उससे कहीं कम सम्भावना है, जितनी बन्द कमरे में। कुसङ्गत से जरूर बचाइए, मगर यह नहीं कि उसे घर से निकलने ही न दीजिए। युवावस्था में एकान्त वास चरित्र के लिए बहुत ही हानिकर है। मुन्शी जी को अब अपनी गलती मालूम हुई। घर लौट कर मन्साराम के पास गए। यह अभी स्कूल से आया था और बिना कपड़े उतारे एक किताब सामने खोल कर, सामने खिड़की की ओर ताक रहा था। उसकी दृष्टिं एक भिखारिन पर लगी हुई थी, जो अपने बालक को गोद में लिए भिक्षा माँग रही थी। बालक माता की गोद में बैठा हुआ ऐसा प्रसन्न था, मानो वह किसी राज-सिंहासन पर बैठा हो।' मन्साराम उस बालक को देख कर रो पड़ा। यह बालक क्या मुझसे अधिक सुखी नहीं है? इस अनन्त विश्व में ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे वह इस गोद के बदले में पाकर प्रसन्न हो? ईश्वरभी ऐसी वस्तु को सृष्टि नहीं कर सकते। ईश्वर! ऐसे बालकों को जन्म ही क्यों देते हो, जिसके भाग्य में मात्र वियोग का दुख भोगना बदाहो! आज मुझ सा अभागा संसार में और कौन है? किसे मेरे खानेपीने को, मरने-जीने की सुव है। अगर आज मर भी जाऊँ, तो किसके दिल को चोट लगेगी! पिता को अब मुझे रुलाने में मजा आता है, वह मेरी सूरत भी नहीं देखना चाहते, मुझे घर से निकाल देने की तैयारियाँ हो रही हैं। आह माता! तुम्हारा यह लाडला वेटा आज आवारा कहा जा रहा है। वही पिता जी, जिनके हाथों में तुमने हम तीनों भाइयों के हाथ पकड़ाये थे, आज [ ९४ ]मुझे आवारा और बदमाश कह रहे हैं! मैं इस योग्य भी नहीं कि इस घर में रह सकूँ। यह सोचते-सोचते मन्साराम अपार वेदना से फूट-फूट कर रोने लगा।

उसी समय तोताराम कमरे में आकर खड़े हो गए। मन्साराम ने चटपट आँसू पोंछ डाले; और सिर झुका कर खड़ा हो गया। मुन्शी जी ने शायद यह पहली बार उसके कमरे में कदम रक्खा था। मन्साराम का दिल धड़-धड़ करने लगा कि देखें आज क्या आफत आती है। मुन्शी जी ने उसे रोते देखा तो एक क्षण के लिए उनका वात्सल्य घोर निद्रा से चौंक पड़ा। घबरा कर बोले-क्यों, रोते क्यों हो बेटा, किसी ने कुछ कहा है? मन्साराम ने बड़ी मुश्किल से उमड़ते हुए आँसुओं को रोक कर कहा-जी नहीं, रोता तो नहीं हूँ |

मुन्शी जी-तुम्हारी अम्माँ ने तो कुछ नहीं कहा?

मन्सा०-जी नहीं, वह तो मुझसे बोलती ही नहीं। मुन्शी जी क्या करूँ बेटा, शादी तो इसलिए की थी कि बच्चों को माँ मिल जायगी; लेकिन वह आशा नहीं पूरी हुई। तो क्या बिलकुल नहीं बोलती?

मन्सा-जी नहीं, इधर महीनों से नहीं बोली।

मुन्शी जी-विचित्र स्वभाव की औरत है, मालूम ही नहीं होता क्या चाहती है। मैं जानता कि उसका ऐसा मिजाज होगा तो कभी शादी न करता। रोज एक न एक बात लेकर उठ खड़ी होती है। उसी ने मुझसे कहा था कि यह दिन भर न जाने कहाँ गायब रहता [ ९५ ]है। मैं उसके दिल की बात क्याजानता था? समझा तुम कुसङ्गत में पड़ कर शायद दिन भर घूमा करते हो। कौन ऐसा पिता है, जिसे अपने प्यारे पुत्र को आवारा फिरते देख कर रन न हो? इसीलिए मैंने तुम्हें वोर्डिङ्ग हाउस में रखने का निश्चय किया था। बस, और कोई वात नहीं थी बेटा! मैं तुम्हारा खेलना-कूदना बन्द नहीं करना चाहता था। तुम्हारी यह दशा देख कर मेरे दिल के टुकड़े हुए जाते हैं। कल मुझे मालूम हुआ कि मैं भ्रम में था। तुम शौक से खेलो, सुबह-शाम मैदान में निकल जाया करो । ताजी हवा से तुम्हें लाभ होगा। जिस चीज़ की जरूरत हो, मुझसे कहो; उनसे कहने की जरूरत नहीं। समझ लो कि वह घर में है ही नहीं। तुम्हारी माता छोड़ कर चली गई, तो मैं तो हूँ।

वालक का सरल, निष्कपट हृदय पितृ-प्रेम से पुलकित हो उठा। मालूम हुआ कि साक्षात् भगवान् खड़े हैं । नैराश्य और लोभ से विकल होकर उसने मन में अपने पिता को निष्ठुर और न जाने क्या-क्या समझ रक्खा था। विमाता से उसे कोई गिला न था। अब उसे ज्ञात हुआ कि मैं ने अपने देव-तुल्य पिता के साथ कितना अन्याय किया है। पितृ-भक्ति की एक तरङ्ग सी हृदय में उठी; और वह पिता के चरणों पर सिर रख कर रोने लगा। मुन्शी जी करुणा से विह्वल हो गए। जिस पुत्र को एक क्षण भर आँखों से दूर देख कर उनका हृदय व्यग्र हो उठता था, जिसके शील, बुद्धि और चरित्र की अपने पराए सभी बखान करते थे, उसी के प्रति उनका हृदय इतना कठोर क्यों हो गया? वह अपने [ ९६ ]ही प्रिय पुत्र को अपना शत्रु समझने लगे, उसको निर्वासन देने पर तैयार हो गए ! निर्मला पुत्र और पिता के बीच में दीवार को भाँति खड़ी थी। निर्मला को अपनी ओर खींचने के लिए पीछे हटना पड़ता था, और पिता तथा पुत्र में अन्तर बढ़ता जाता था। फलतः आज यह दशा हो गई है कि अपने अभिन्न पुत्र से उन्हें इतना छल करना पड़ रहा है! आज बहुत सोचने के बाद उन्हें एक ऐसी युक्ति सूझी है,जिससे उन्हें आशा हो रही है कि वह निर्मला को बीच से निकाल कर अपने दूसरे बाजू को अपनी तरफ कर लेंगे। उन्होंने उस युक्ति का प्रारम्भ भी कर दिया है, लेकिन इससे अभीष्ट सिद्ध होगा या नहीं, इसे कौन जानता है?

जिस दिन से तोताराम ने निर्मला के बहुत मिन्नत-समायत करने पर भी मन्साराम को बोर्डिङ्ग हाउस में भेजने का निश्चय, किया था,उसी दिन से उसने मन्साराम से पढ़ना छोड़ दिया था। यहाँ तक कि बोलती भी न थी। उसे स्वामी की इस अविश्वासपूर्ण तत्परता का कुछ-कुछ आभास हो गया था। उन्फोह! इतना शक्की मिजाज! ईश्वर ही इस घर में लाज रक्खें! इनके मन में ऐसी-ऐसी दुर्भावनाएँ भरी हुई हैं! मुझे यह इतनी गई गुज़री समझते हैं। ये बातें सोच-सोच कर वह कई दिन रोती रही! तब उसने सोचना शुरू किया, इन्हें क्यों ऐसा सन्देह हो रहा है। मुझमें ऐसी कौन सी बात है, जो इनकी आँखों में खटकती है। बहुत सोचने पर भी उसे अपने में कोई ऐसी बात नज़र न आई। तो क्या उसका मन्साराम से पढ़ना, उससे हँसना-बोलना ही इनके [ ९७ ]सन्देह का कारण है? तो फिर मैं पढ़ना छोड़ दूंगी, भूल कर भी मन्साराम से न बोलूंगी-उसकी सूरत न देखूँगी।

लेकिन यह तपस्या उसे असाध्य जान पड़ती थी। मन्साराम से हँसने-बोलने में उसकी विलासिनी-कल्पना उत्तेजित भी होती थी, और तृप्त भी। उससे बातें करते हुए उसे एक अपार सुख का अनुभव होता था, जिसे वह शब्दों में प्रकट न कर सकती थी। कुवासना की उसके मन में छाया भी न थी। वह स्वप्न में भी मन्सारामसे कलुषित प्रेम करने को बात न सोच सकती थी। प्रत्येक प्राणो को अपने हमजोलियों के साथ हँसने-बोलने को जो एक नैसर्गिक तृष्णा होती है, उसी की तृप्ति का यह एक अज्ञात साधन था। अब यह अतृप्त तृष्णा निर्मला के हृदय में दीपक की भाँति जलने लगी। रह-रह कर उसका मन किसी अज्ञात वेदना से विकल हो जाता। खोई हुई किसी अज्ञात वस्तु की खोज में इधर-उधर ढूंढ़ती फिरती, जहाँ बैठती वहाँ बैठी ही रह जाती; किसी काम में जी न लगता। हाँ, जव मुन्शी आ जाते तो वह अपनी सारी तृष्णाओं को नैराश्य में डुवा कर उनसे मुस्करा कर इधर-उधर की वातें करने लगती।

कल जब मुन्शी जी भोजन करके कचहरी चले गए, तो रुक्मिणी ने निर्मला को खूब तानों से छेदा-जानती तो थी कि यहाँ बच्चों का पालन-पोषण करना पड़ेगा, तो क्यों घर वालों से नहीं कह दिया कि वहाँ मेरा विवाह न करो? वहाँ जाती जहाँ पुरुष के सिवा और कोई न होता। वही यह बनाव-चुनाव और [ ९८ ]छबि देख कर खुश होता-अपने भाग्य को सराहता। यहाँ बुड्डा आदमी तुम्हारे रङ्ग-रूप, हाव-भाव पर क्या लट्टू होगा? उसने इन्हीं बालकों की सेवा करने के लिए, तुससे विवाह किया है, भोग-विलास के लिए नहीं! वह बड़ी देर तक घाव पर नमक छिड़कती रहीं; पर निर्मला ने चूं तक न की, वह अपनी सफाई पेश तो करना चाहती थी; पर कर न सकती थी। अगर यह कहे कि मैं वही कर रही हूँ जो मेरे स्वामी की इच्छा है, तो घर का भण्डा फूटता है। अगर अपनी भूल स्वीकार करके उसका सुधार करती है, तो भय है कि उसका न जाने क्या परिणाम हो । वह यो बड़ी स्पष्टवादिनी थी, सत्य कहने में उसे सङ्कोच या भय न होता था, लेकिन इस नाजुक मौके पर उसे चुप्पी साधनी पड़ी। इसके सिवा दूसरा उपाय न था। वह देखती थी कि मन्साराम बहुत विरक्त और उदास रहता है, यह भी देखती थी कि वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है; लेकिन उसकी वाणी और कर्म दोनों ही पर मुहर लगी हुई थी। चोर के घर में चोरी हो जाने से उसकी जो दशा हो जाती है, वही दशा इस समय निर्मला की हो रही थी!