निर्मला/६

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निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
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छठा परिच्छेद

उस दिन अपने प्रगाढ़ प्रणय का सबल प्रमाण देने के बाद मुन्शी तोताराम को आशा हुई थी कि निर्मला के मर्मस्थल पर मेरा सिक्का जम जायगा; लेकिन उनकी यह आशा लेशमात्र भी पूरी न हुई; बल्कि पहले तो वह कभी-कभी उनसे हँस कर बोला भी करती थी, अब बच्चों ही के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। जब घर में जाते, बच्चों को उसके पास बैठे पाते। कभी देखते कि उन्हें खिला रही है, कभी कपड़े पहना रही है, कभी कोई खेल खेल रही है, और कभी कोई कहानी कह रही है। निर्मला का तृषित हृदय प्रणय की ओर से निराश होकर इस अवलम्ब ही को ग़नीमत समझने लगा। बच्चों के साथ हँसने-बोलने में उसकी मातृ-कल्पना तृप्त होती थी। पति के साथ हँसने-बोलने में उसे जो सङ्कोच, जो अरुचि, तथा जो अनिच्छा होती थी, यहाँ तक कि वह उठ कर भाग जाना चाहती; उसके बदले यहाँ बालकों के सच्चे, सरल स्नेह से चित्त प्रसन्न हो जाता था। पहले मन्साराम उसके [ ६७ ]पास आते हुए झिझकता था लेकिन अब वह भी कभी-कभी आ वैठता। वह निर्मला का हमसिन था;लेकिन मानसिक विकास में पाँच साल छोटा। हॉकी और फुटवाल ही उसका संसार उसकी कल्पनाओं का मुक्त क्षेत्र तथा उसकी कामनाओं का हरा-भरा वारा था। इकहरे वदन का,छरीरा,सुन्दर,हँसमुख,लज्जाशील बालक था, जिसका घर से केवल भोजन का नाता था, वाक़ी सारे दिन न जाने कहाँ घूमता रहता। निर्मला उसके मुँह से खेल का बातें सुन कर थोड़ी देर के लिए अपनी चिन्ताओं को भूल जाती;और चाहती कि एक बार फिर वही दिन आ जाते,जब वह गुड़ियाँ खेलती और उनके व्याह रचाया करती थी,और जिसे अभी थोड़े,आह! बहुत ही थोड़े दिन गुजरे थे!

मुन्शी तोताराम अन्य एकान्त-सेवी मनुष्यों की भाँति विपयी जीव थे। कुछ दिन तो वह निर्मला कोसैर-तमाशे दिखाते रहे लेकिन जब देखा कि इसका कुछ फल नहीं होता,तो फिर एकान्त-संयम करने लगे। दिन भर के कठिन मानसिक परिश्रम के वाद उनका चित्त आमोद-प्रमोद के लिए लालायित हो जाता था,लेकिन जव अपनी विनोद-वाटिका में प्रवेश करते और उसके फूलों को मुरझाया, पौदों को सूखा और क्यारियों में धूल उड़ती हुई देखते,तो उनका जी चाहता क्यों न इस वाटिका को उजाड़ दूँ? निर्मला उनसे क्यों विरक्त रहती है,इसका रहस्य उनकी समझ में न आता था। दम्पत्तिशास्त्र के सारे मन्त्रों की परीक्षा कर चुके,पर मनोरथ न पूरा हुआ। अब क्या करना चहिए,यह उनकी समझ में न आता था। [ ६८ ]एक दिन वह इसी चिन्ता में बैठे हुए थे कि उनके एक सहपाठी मित्र मुन्शी नयनसुखराम आकर बैठ गए;और सलाम-कलाम के बाद मुस्करा कर बोले-आजकल तो खूब गहरी छनती होगी,नई बीबी का आलिङ्गन करके जवानी का मज़ा आ जाता होगा। बड़े भाग्यवान हो! भई, रूठी हुई जवानी को मनाने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं कि नया विवाह होजाय।यहाँ तो जिन्दगी वबाल हो रही है। पत्नी जी इस बुरी तरह चिमटी हैं कि किसी तरह पिण्ड ही नहीं छोड़ती। मैं तो दूसरी शादी की फिक्र में हूँ। कहीं डौल हो तो ठीक-ठाक कर दो। दस्तूरी में एक दिन तुम्हें उसके हाथ के बने हुए पान खिला देंगे।

तोताराम ने गम्भीर भाव से कहा-कहीं ऐसी हिमाकत न कर बैठना,नहीं तो पछताओगे।लौडियाएँ कुछ लौंडोंही से खुश रहती हैं। हम तुम अब उस काम के नहीं रहे। सच कहता हूँ,मैं तो शादी करके पछता रहा हूँ। बुरी बला गले पड़ी। सोचा था, दो-चार साल और जिन्दगी का मज़ा उठा लूँ पर उलटी आँतें गले पड़ी।

नयनसुख-तुम क्या बातें करते हो। लौंडियों को पजे में लाना क्या मुश्किल है, जरा सैर-तमाशे दिखा दो, उसके रूप-रङ्ग की तारीफ कर दो; बस, रङ्ग जम गया!

तोताo-यह सब कर-धर के हार गया!

नयनo-अच्छा! कुछ इत्र-तेल, फूल-पत्ते, चाट-वाट का भी मजा चखाया? [ ६९ ]तोताo--अजी यह सब कर चुका। दम्पति-शास्त्र के सारे मन्त्रों का इम्तहान ले चुका ; सब कोरी गप्पें हैं।

नयनo--अच्छा तो अब मेरी एक सलाह मानो। ज़रा अपनी सूरत वनवालो। आजकल यहाँ एक बिजली के डॉक्टर आए हुए हैं, जो बुढ़ापे के सारे निशान मिटा देते हैं। क्या मजाल कि चेहरे पर एक झुर्री या सिर का कोई बाल पका रह जाय। न जाने ऐसा क्या जादू कर देते हैं कि आदमी का चोला ही बदल जाता है।

तोता--फीस क्या लेते हैं?

नयनo–फीस तो सुना ज्यादा लेते हैं; शायद पाँच सौ रुपये।

तोताo--अजी कोई पाखण्डी होगा, बेवक़ूफों को लूट रहा होगा। कोई रोग़न लगा कर दो-चार दिन के लिए जरा चेहरा चिकना कर देता होगा। इश्तहारी डॉक्टरों पर तो अपना विश्वास ही नहीं। दस-पाँच की बात होती, तो कहता जरा दिल्लगी ही सही। ५००) बड़ी रकम है।

नयनo--तुम्हारे लिए ५००) कौन बड़ी बात है। एक महीने की आमदनी है। मेरे पास तो भई अगर ५००) होते, तो सब से पहला काम यही करता। जवानी के एक घण्टे की कीमत ५००) से कहीं ज्यादा है।

तोताo--अजी कोई सस्ता नुस्खा बताओ, कोई फकीरी जड़ी-बूटी हो कि बिना हर्र-फिटकरी के रङ्ग चोखा हो जाय। बिजली और रेडियम बड़े आदमियों के लिए रहने दो। उन्हीं को मुबारक हों।

नयनo-तो फिर रँगीलेपन का स्वाँग रचो, यह ढीला-ढाला [ ७० ]कोट फेंको। तन्ज़ेब की चुस्त अचकन हो,चुन्नटदार पाजामा,गले में सोने की ज़ञ्जीर पड़ी हुई,सिर पर जयपुरी साफ़ा बँधा हुआ आँखों में सुर्मा और बालों में हिना का तेल पड़ा हुआ। तोंद का पचकना भी जरूरी है। दोहरा कमरबन्द बाँधो। जरा तकलीफ तो होगी; पर अचकन सज उठेगी। खिज़ाब मैं ला दूँगा। सौ-पचास ग़ज़लें याद कर लो; और मौक़े-मौक़े से शैर पढ़ो। बातों में रस भरा हो। ऐसा मालूम हो कि तुम्हें दीन और दुनिया की कोई फिक्र नहीं है, बस जो कुछ है प्रियतमा ही है। जवाँमर्दी और साहस के काम करने का मौका ढूँढ़ते रहो। रात को झूठ-मूठ शोर करो--चोर-चोर, और तलवार लेकर अकेले पिल पड़ो। हाँ, ज़रा मौका देख लेना, ऐसा न हो कि सचमुच कोई चोर आजाय; और तुम उसके पीछे दौड़ो, नहीं तो सारी क़लई खुल जायगी और मुफ़्त में उल्लू बनोगे। उस वक्त तो जवाँमर्दी इसी में है कि दम साधे पड़े रहो, जिसमें वह समझे कि तुम्हें खबर ही नहीं हुई; लेकिन ज्योंही चोर भाग खड़ा हो, तुम भी उछल कर बाहर निकलो और तलवार लेकर कहाँ-कहाँ कहते दौड़ो। ज्यादा नहीं, एक ही महीने मेरी बातों का इम्तहान करके देखो। अगर वह तुम्हारा दम न भरने लगे, तो जो जुर्माना कहो वह दूँ।

तोताराम ने उस वक्त तो यह बातें हँसी में उड़ा दीं, जैसा कि एक व्यवहार-कुशल मनुष्य को करना चाहिए था, लेकिन इनमें की कुछ बातें उनके मन में बैठ गई। उनका असर पड़ने में कोई सन्देह न था। धीरे-धीरे रङ्ग बदलने लगे, जिसमें लोग खटक न [ ७१ ]जायँ। पहले वालों से शुरू किया, फिर सुर्मे की वारी आई; यहाँ तक कि एक-दो महीने में उनका कलेवर ही बदल गया। गजलें याद करने का प्रस्ताव तो हास्यास्पद था लेकिन वीरता की डींग मारने में कोई हानि न थी।

उस दिन से वह रोज अपनी जवाँमर्दी का कोई न कोई प्रसङ्ग अवश्य छेड़ देते। निर्मला को सन्देह होने लगा कि कहीं उन्हें उन्माद का रोग तो नहीं हो रहा है। जो आदमी मूंग की दाल और मोटे आटे के दो फुल्के खाकर भी नमक सुलेमानी का मुहताज़ हो, उसके छैलेपन पर उन्माद का सन्देह हो तो आश्चर्य ही क्या? निर्मला पर इस पागलपन का और तो क्या रङ्ग जमता, हाँ उसे उन पर दया आने लगी। क्रोध और घृणा का भाव जाता रहा। क्रोध और घृणा उस पर होती है, जो अपने होश में हो। पागल आदमी तो दया ही का पात्र है। वह बात-बात में उनकी चुटकियाँ लेती, उनका मजाक उड़ाती, जैसे लोग पागलों के साथ किया करते हैं। हाँ, इसका ध्यान रखती थी कि यह समझ न जायँ। वह सोचती, बेचारा अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है। यह सारा स्वाँग केवल इसलिए तो है कि मैं अपना दुख भूल जाऊँ। आखिर अब भाग्य तो बदल सकता नहीं, इस बेचारे को क्यों जलाऊँ।

एक दिन रात को नौ बजे तोताराम बाँके बने हुए सैर करके लौटे; और निर्मला से बोले---आज तीन चोरों से सामना हो गया। मैं जरा शिवपुर की तरफ़ चला गया था। अँधेरा था ही। ज्योंही [ ७२ ]
रेल की सड़क के पास पहुँचा, तो तीन आदमी तलवार लिए हुए न जाने किधर से निकल पड़े। यक़ीन मानो, तीनों काले देव थे! मैं बिलकुल अकेला, हाथ में सिर्फ़ यह छड़ी थी। उधर तीनों तलवार बाँधे हुए, होश उड़ गए। समझ गया कि ज़िन्दगी का यहीं तक साथ था। मगर मैंने भी सोचा; मरता ही हूँ तो वीरों की मौत क्यों न मरूँ?

इतने में एक आदमी ने ललकार कहा––रख दे तेरे पास जो कुछ हो; और चुपके से चला जा!

मैं छड़ी सँभाल कर खड़ा हो गया और बोला––मेरे पास तो सिर्फ यह छड़ी है और इसका मूल्य एक आदमी का सिर है।

मेरे मुँह से इतना निकलना था कि तीनों तलवार खींच कर मुझ पर झपट पड़े; और मैं उनके वारों को छड़ी पर रोकने लगा। तीनों झल्ला-झल्ला कर वार करते थे, खटाके की आवाज़ होती थी; और मैं बिजली की तरह झपट कर उनके वारों को काट देता था। कोई दस मिनिट तक तीनों ने ख़ूब तलवार के जौहर दिखाए; पर मुझ पर रेफ़ तक न आई। मजबूरी यही थी कि मेरे हाथ में तलवार न थी। यदि कहीं तलवार होती, तो एक को जीता न छोड़ता। ख़ैर, कहाँ तक बयान करूँ? उस वक्त़ मेरे हाथों की सफाई देखने क़ाबिल थी। मुझे ख़ुद आश्चर्य हो रहा था कि यह चपलता मुझमें कहाँ से आ गई। जब तीनों ने देखा कि यहाँ दाल नहीं गलने की, तो तलवार म्यान में रख ली और मेरी पीठ ठोंक कर बोले––जवान, तुम-सा वीर आज तक नहीं देखा। हम तीनों तीन सौ पर भारी
[ ७३ ]हैं,गाँव के गाँव ढोल वजा कर लूटते हैं,पर आज तुमने हमें नीचा दिखा दिया। हम तुम्हारा लोहा मान गए। यह कह कर तीनों फिर नजरों से गायब हो गए!

निर्मला ने गम्भीर भाव से मुस्करा कर कहा-इस छड़ी पर तो तलवारों के बहुत से निशान बने हुए होंगे।

मुन्शी जी इस शङ्का के लिए तैयार न थे;पर कोई जवाब देना आवश्यक था। वोले—मैं वारों को वरावर खाली देता था। दो-चार चोटें छड़ी पर पड़ी थीं,तो उचटती हुई, जिनसे कोई निशान न पड़ सकता था।

अभी उनके मुँह से पूरी वात भी न निकली थी कि सहसा रुक्मिणी देवी वदहवास दौड़ती हुई आई और हाँफते हुए बोली-तोता,तोता,है कि नहीं?मेरे कमरे में एक साँप निकल आया है। मेरी चारपाई के नीचे बैठा हुआ है। मैं उठ कर भागी। मूआ कोई दो गज का होगा। फन निकाले फुफकार रहा है,जरा चलो तो,डण्डा लेते चलना।

तोताराम के चेहरे का रङ्ग उड़ गया, मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगी; मगर मन के भावों को छिपा कर बोले-साँप यहाँ कहाँ? तुम्हें धोखा हुआ होगा। कोई रस्सी पड़ी होगी।

रुक्मिणी-अरे मैंने अपनी आखों देखा है। जरा चल कर देख न लो। है-है!मर्द होकर डरते हो!!

मुन्शी जी घर में से तो निकले; लेकिन बरामदे में फिर ठिठक गए। उनके पाँव ही न उठते थे। कलेजा धड़-धड़ कर रहा था। [ ७४ ]साँप बड़ा क्रोधी जानवर है। कहीं काट ले, तो मुफ्त में प्राण से हाथ धोना पड़े़। बोले-डरता नहीं हूँ। साँप ही तो है,शेर तो नहीं;मगर साँप पर लाठी नहीं असर करती। जाकर किसी को भेज,किसी के घर से भाला लाए।

यह कह कर मुन्शी जी लपके हुए बाहर चले। मन्साराम बैठा खाना खा रहा था । मुन्शी जी तो बाहर गए, इधर वह खाना छोड़, अपना हॉकी का डण्डा हाथ में ले कमरे में घुस ही तो पड़ा;और तुरन्त चारपाई खींच ली । साँप मस्त था, भागने के बदले फन निकाल कर खड़ा हो गया । मन्साराम ने चटपट चारपाई की चादर उठा कर साँप के ऊपर फेंक दी, और ताबड़ तोड़ तीन-चार डण्डे कस कर जमाए । साँप चादर के अन्दर तड़प कर रह गया। तब उसेडण्डे पर उठाए हुए बाहर चला । मुन्शी जी कई आदमियों को साथ लिए चले आ रहे थे। मन्साराम को साँप को लटकाए देखा, तो सहसा उनके मुंह से एक चीख निकल पड़ी। मगर फिर 'सँभल गये और बोले-मैं तो आ ही रहा था, तुमने क्यों जल्दी की । दे दो कोई फेंक आए।

यह कह कर वह बड़ी बहादुरी के साथ रुक्मिणी के कमरे के द्वार पर जाकर खड़े हो गए; और कमरे को खूब देख-भाल कर मूंछों पर ताव देते हुए निर्मला के पास आकर बोले-मैं जब तक जाऊँ जाऊँ मन्साराम ने मार डाला | बेसमझ लड़का डण्डा लेकर दौड़ पड़ा । साँप को हमेशा भाले से मारना चाहिए । यही तो . लड़कों में ऐब है। मैंने ऐसे-ऐसे कितने साँप मारे हैं। साँप को [ ७५ ]खिला-खिला कर मारता हूँ। कितनों ही की तो मुट्ठी से पकड़ कर मसल दिया है।

रुक्मिणी ने कहा-जाओ भी,देख ली तुम्हारी मर्दानगी! मुन्शी जी झेप कर वोले-अच्छा जाओ,मैं डरपोक ही सही;तुमसे कुछ इनाम तो नहीं मॉग रहा हूँ। जाकर महराज से कहो खाना निकाले।

मुन्शी जी तो भोजन करने गए और निर्मला द्वार की चौखट पर खड़ी सोच रही थी-भगवन्!क्या इन्हें सचमुच कोई भीपण रोग हो रहा है? क्या मेरी दशा को और भी दारुण बनाना चाहते हो? मैं इनकी सेवा कर सकती हूँ;सम्मान कर सकती हूँ,अपना जीवन इनके चरणों पर अर्पण कर सकती हूँ;लेकिन वह नहीं कर सकती,जो मेरे किए नहीं हो सकता। अवस्था का भेद मिटाना मेरे वश की बात नहीं! आखिर यह मुझसे क्या चाहते हैं-समझ गई! समझ गई!! आह यह बात पहले ही नहीं समझी थी, नहीं तो इनको क्यों इतनी तपस्या करनी पड़ती, क्यों इतने स्वाँग भरने पड़ते?