नैषध-चरित-चर्चा/३—श्रीहर्ष-विषयक कुछ बातें

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श्रीहर्ष-विषयक कुछ बातें

यहाँ तक के विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि काश्मीर और कान्यकुब्ज के नरेश श्रीहर्ष का नैषध-चरित के रचयिता श्रीहर्ष से कोई संबंध नहीं। नैषध में कवि ने प्रत्येक सर्ग के अंत में एक-एक श्लोक ऐसा दिया है, जिसका प्रथमार्द्ध सब सर्गों में वही है। यथा, प्रथम सर्ग में—

श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं;
श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम्।

अर्थात् सकल कवियों के मुकुटमणि श्रीहीर-नामक पिता, और मामल्लदेवी नाम्नी माता, ने जिस जितेंद्रिय सुत श्रीहर्ष को उत्पन्न किया—

तच्चिन्तामणिमन्न चिन्तनफले शृङ्गारभंग्या महा-
काव्ये चारुणि[१] नैषधीयचरिते सर्गोऽयमादिर्गतः।

उसके चिंतामणिमंत्र की उपासना का फल-स्वरूप शृंगाररसप्रधान, अत्यंत रमणीय, नैषध-चरित, महाकाव्य का प्रथम सर्ग समाप्त हुआ। [ २८ ]इससे यह जाना गया कि श्रीहर्ष के पिता का नाम श्रीहीर और माता का नाम मामल्लदेवी था। परंतु ये कौन थे? कब हुए? कहाँ रहे? कहाँ-कहाँ गए? इत्यादि बातों का विशेष पता नहीं लगता। इनके विषय में जो विशेष बातें जानी गई हैं, उनका उल्लेख आगे किया जायगा। यहाँ पर विद्वानों के कुछ अनुमानों का उल्लेख किया जाता है।

डॉक्टर बूलर का अनुमान है कि नैषध-चरित ईसवी सन् की बारहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ होगा। बाबू रमेशचंद्रदत लिखते हैं[२] कि राजशेखर ने श्रीहर्ष की जन्मभूमि काशी बतलाई है और बंगदेश के प्रधान कवि विद्यापति ने, जो चौदहवीं शताब्दी में हुए हैं, यहाँ तक कहा है कि श्रीहर्ष बंगदेश के वासी थे। बाबू रमेशचंद्रदत्त का कथन है कि पुरातत्त्ववेत्ता विद्वानों ने, श्रीहर्ष का पश्चिमोत्तर प्रदेश छोड़कर, बंगदेश को जाना जो अनुमान किया है, उसका सत्य होना संभव है। परंतु कोई-कोई नैषध-चरित के सोलहवें सर्ग के अंतिम—

काश्मीरैर्महिते[३] चतुर्दशतयीं विद्यां विदद्भिर्महा-
काव्ये तद्भुवि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत् षोडशः।

इस श्लोकार्द्ध से श्रीहर्ष का संबंध काश्मीर से बतलाते हैं। श्लोकार्द्ध का भाव यह है कि चतुर्दश विद्याओं में पारंगत [ २९ ]काश्मीरदेशीय विद्वानों ने जिस महाकाव्य की पूजा की है, उस नैषध-चरित का सोलहवाँ सर्ग समाप्त हुआ।

किसी-किसी पंडित के मुख से हमने यह भी सुना है कि काव्यप्रकाश के बनानेवाले प्रसिद्ध आलंकारिक मम्मट भट्ट श्रीहर्ष के मामा थे। इस संबंध में एक श्रुजनति भी है। इसे पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने अपने एक निबंध में स्थान भी दिया है। कौतुकावह होने के कारण हम भी उसे नीचे[४] फुट नोट में लिखते हैं। [ ३० ]काश्मीरवासी पंडितों के द्वारा नैषध-चरित की पूजा होना संभव है। परंतु इससे यह नहीं सिद्ध होता कि श्रीहर्ष उस देश के रहनेवाले थे। श्रीहर्ष किसी कान्यकुब्ज राजा के यहाँ थे, यह तो निर्भ्रांत ही है। राजों के यहाँ देश-देशांतर से पंडित आया ही करते हैं। काश्मीर-देश के पंडित कान्यकुब्जे- श्वर के यहाँ आए होंगे और प्रसंगवशात् वहाँ नैषध-चरित को देखकर उसकी प्रशंसा की होगी। अथवा नैषध-चरित को काश्मीर ही में देखकर उन्होंने उसकी प्रशंसा की होगी। इसमें आक्षेप का कारण नहीं देख पड़ता। विद्या के लिये काश्मीर प्रसिद्ध था। इस कारण पंडितों की समालोचना के लिये श्रीहर्ष के द्वारा नैषध-चरित का वहाँ भेजा जाना असंभव नहीं। इस विषय में लिखित प्रमाण भी मिला है। उसका उल्लेख आगे होगा। अतएव इस इतनी बात से श्रीहर्ष का काश्मीरवासी होना प्रमाणित नहीं हो सकता। रही मम्मट भट्ट और श्रीहर्ष को आख्यायिका, सो वह ऐतिहासिक न होने के कारण किसी प्रकार विश्वसनीय नहीं। अकबर और बीरबल तथा भोज ओर कालिदास-विषयक किंवदंतियाँ जैसे नित्य नई सुनते हैं, वैसे ही यह भी है।

फ़र्रुखाबाद के ज़िले में क़न्नौज के पास मीराँसराय नाम का एक क़स्बा है। वहाँ विशेष करके कान्यकुब्ज मिश्र लोगों की बस्ती है। ये मिश्र श्रीहर्ष को अपना पूर्वज बतलाते हैं और कहते हैं कि हम लोग पहले त्रिपाठी थे, परंतु श्रीहर्षजी ने एक यज्ञा
[ ३१ ]किया, जिससे हम मिश्र-पदवी को प्राप्त हुए। श्रीहर्षजी का राजमान्ध होना भी ये सूचित करते हैं। परंतु वे हुए कब, इसका पता उन्हें नहीं। जैसा कि आगे लिखा जायगा, इन लोगों का अनुमान सच जान पड़ता है। मीराँसराय में रहनेवाले विद्वान् का वहीं निकटवर्ती क़न्नौज के राजा की सभा में रहना बहुत ही संभव है।

सुनते हैं, बंगदेश में पहले सत्पात्र ब्राह्मण न थे। इस न्यूनता को दूर करने के लिये सेनवंशीय आदि-शूर-नामक राजा ने कान्यकुब्ज-प्रदेश से परम विद्वान् पांच ब्राह्मणों को बुलाकर अपने देश में बसाया था। इन पाँच में से एक श्रीहर्षनामी भी थे। डॉक्टर राजेंद्रलाल मित्र ने आदि-शूर का स्थिति-काल ईसवी सन् की दशम शताब्दी (९८६) में स्थिर[५] किया है। यदि यह वही श्रीहर्ष थे, जिन्होंने नैषध-चरित लिखा है, तो डॉक्टर बूलर का यह कहना ठीक नहीं कि नैषध-चरित बारहवीं शताब्दी का काव्य है। नैषध-चरित के सप्तम सर्ग के अंत में—

गौडोर्व्विशकुलप्रशस्तिमणितिभ्रातर्य्ययं[६] तन्महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्सप्तमः।

और नवम सर्ग के अंत में— [ ३२ ]

संदृब्धार्णववर्णनस्य[७] नवमस्तस्य व्यरंसीन्महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वल:[८]

ये जो श्लोकार्द्ध हैं, इनसे जाना जाता है कि श्रीहर्ष ने 'गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति' और 'अर्णववर्णन' ये दो काव्य लिखे हैं। समुद्र-वर्णन और गोड़ेश्वर की प्रशस्ति-रचना से अनुमान होता है कि श्रीहर्ष कान्यकुब्ज-नरेश के यहाँ से गौड़ देश को गए होंगे। क्योंकि वहाँ गए बिना वहाँ के राजा तथा समुद्र का वर्णन युक्ति-संगत नहीं कहा जा सकता। गौड़ जाने ही पर समुद्र के दर्शन हुए होंगे और दर्शन होने ही पर उसका वर्णन लिखने की इच्छा श्रीहर्ष को हुई होगी। परंतु यह सब अनुमान-ही-अनुमान है। श्रीहर्ष गौड़ देश को गए हों या न गए हों, एक बात प्रायः निश्चित-सी है। वह यह कि नैषध के कर्ता श्रीहर्ष आदि-शूर के समय में नहीं हुए। वह उसके कोई २०० वर्ष बाद हुए हैं।

यदि यह मान लिया जाय कि गौड़ेश्वर के आश्रय में रहने ही के कारण श्रीहर्ष ने 'गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति' लिखी, तो यह हो [ ३३ ]कैसे सकता है । श्रीहर्ष तो कान्यकुब्ज-नरेश के आश्रय में थे। पर संभव है, गौड़-नरेश की प्रार्थना पर कान्यकुब्ज राजा की आज्ञा से वह वहाँ गए हों। अथवा कान्यकुब्ज राजा के मरने पर निराश्रय हो जाने के कारण वह गौड़ देश को चले गए हों। अथवा गौड़राज और कान्यकुब्जेश्वर में परस्पर मित्रता रही हो। इस दशा में अपने आश्रयदाता के मित्र का वर्णन करना श्रीहर्ष के लिये अनुचित नहीं कहा जा सकता।

नैषध-चरित के अंतिम सर्ग के श्लोक १५१ का उत्तरार्द्ध यह है—

द्वार्विशो नव (नृप) साहसाङ्कचरिते चम्पकृतोऽयं महा-
काव्ये तस्य कृतौ नलीयचरिते सर्गो निसर्गेज्ज्विलः ।

जिससे ज्ञात होता है कि श्रीहर्ष ने 'साहसांक-चंपू' भी बनाया है । टीकाकार नारायण पंडित इस श्लोक की टीका में लिखते हैं—

नृपसाहसाङ्कति पाठे नृपश्चासौ साहसाङ्कश्च तस्य गौडेन्द्रस्य चरिते विषये।

जिससे यह सूचित होता है कि साहसांक गौड़ देश का राजा था। डॉक्टर राजेंद्रलाल मित्र ने इस राजा के नाम का उल्लेख अपनी 'इंडू-एरियन'-पुस्तक में कहीं नहीं किया, जिससे नारा- यण पंडित का कथन पुष्ट नहीं होता । हरिमोहन प्रमाणिक इत्यादि विद्वान् साहसांक को कान्यकुब्ज का राजा बतलाते हैं और उसका होना ९०० ईसवी के लगभग लिखते हैं । [ ३४ ]परंतु इस बात का भी कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता।

नव साहसांक तो पदवी-मात्र जान पड़ती है। नव-साह- सांक-चरित-नामक काव्य, जो प्रकाशित हो गया है, चंपू नहीं, किंतु छंदोबद्ध महाकाव्य है । वह परिमल उर्फ पद्मगुप्त कवि की रचना है ; श्रीहर्ष का बनाया हुआ नव-साहसांक- चरित-चंपू और ही है । नव-साहसांक-चरित में उज्जयिनी के राजा सिंधराज का वर्णन है-वर्णन क्या है, तद्विषयक एक गप-सी है । उसमें राजा का पातालगमन और नाग-कन्या शशिप्रभा के साथ उसके विवाह इत्यादि की असंभवनीय बातें है । यह राजा परमारवंशीय था। इसके मंत्री का नाम यशोभट था। डॉक्टर बूलर और प्रोफेसर जकरिया ने नव-साहसांक- चरित पर एक उत्तम लेख लिखा है । नव-साहसांक गौड़ देश का नहीं, किंतु मालवे का राजा था। उसका स्थिति-काल ९९५-१०१० ईसवी माना जाता है । इन बातों से सिद्ध है कि नव-साहसांक-चरित से श्रीहर्ष का कोई संबंध नहीं । वह मालवे के राजा सिंधुराज के बाद हुए हैं और कन्नौज के राजा जयचंद के समय में विद्यमान थे । अतएव उनका स्थिति-काल ईसा की बारहवीं शताब्दी मालूम होता है। मीराँसराय के मिश्र लागों का श्रीहर्ष को अपना पूर्वज कहना और क़न्नौज के राजा के यहाँ उनका मान पाना इत्यादि बातें इस अनुमान की पुष्टि करती हैं। [ ३५ ]अच्छा, अब आदि-शूर राजा के यहाँ श्रीहर्ष नाम के पंडित के जाने की कहानी सुनिए। उसके यहाँ जब श्रीहर्ष पहुँचे हैं, तब जैसे इनके साथ गए हुए और-और पंडितों ने अपना-अपना परिचय दिया, वैसे ही इन्होंने भी दिया। इनका परिचायक श्लोक रहस्य-संदर्भ-नामक ग्रंथ से हम नीचे उद्धृत करते हैं—

नाम्नाहं श्रीलहर्षः क्षितिपवर! भरद्वाजगोत्रः पवित्रो
नित्यं गोविन्दपादाम्बुजयुगहृदयः सर्वतीर्थावगाही;
चत्वारः सांगवेदा मम मुखपुरतः पश्य पाणौ धनुर्मे
सर्व कर्तु क्षमोऽस्मि प्रकटय नृपते! त्वन्मनोऽभीष्टमाशु।

कलकत्ता-निवासी श्रीयुत रघुनाथ वेदांतवागीश ने स्वरचित श्रीकृष्णककारादि-नामक भाष्य की भूमिका में अपने को श्रीहर्ष का वंशज बताया है और श्रीहर्ष की स्तुति में एक श्लोक भी दिया है। यथा—

वेदान्तसिद्धान्तसुनिश्चयार्थो दीक्षाक्षमादानदयार्द्रचित्तः।
परात्मविद्यार्णवकर्णधारः श्रीहर्षनामा भुवनं तुतोष।

इन दो श्लोकों को देखने से जान पड़ता है कि यह श्रीहर्षजी वेदांत-विद्या में परम निष्णात थे तथा दर्शन-शास्त्र के भी उत्कृष्ट वेत्ता थे। पर यह श्रीहर्ष नैषध-चरित के कर्ता श्रीहर्ष नहीं हो सकते। जो श्रीहर्ष आदि-शूर के यहाँ गए थे, वह भारद्वाज गोत्र के थे। नैषध-चरित के कर्ता तो उस समय पैदा ही न हुए थे। फिर यदि मीराँसराय के मिश्रों का कथन माना जाय, तो उनके पूर्वज [ ३६ ]
श्रीहर्ष का गोत्र शांडिल्य था। एक बात और भी है। आदि-शूर के श्रीहर्ष "गोविंदपादांबुजयुग"- सेवी अर्थात् वैष्णव थे। परंतु नैषध चरितवाले श्रीहर्ष 'चिंतामणिमंत्र' की चिंतना करने- वाले थे। यह मंत्र भगवती का है। अतएव नैषध-चरित के प्रणेता श्रीहर्ष शाक्त मालूम होते हैं।




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  1. इस श्लोकार्द्ध में 'चारुणि' पद ध्यान में रखने योग्य है। श्रीहर्ष की यह प्रथम गर्वोक्ति है।
  2. See, History of Civilization in ancient India, Vol. III.
  3. 'महिते' पद का प्रयोग करना श्रीहर्ष की दूसरी दर्पोक्ति हुई।
  4. कहते हैं, नैषध-चरित की रचना करके श्रीहर्ष ने उसे अपने मामा मम्मट भट्ट को दिखलाया। मम्मट भट्ट ने उसे साद्यंत पढ़कर श्रीहर्ष से खेद प्रकाशित किया और कहा कि यदि तुम इस काव्य को लिखकर कुछ पहले हमें दिखाते, तो हमारा बहुत कुछ परिश्रम बीच जाता। काव्यप्रकाश के सप्तमोल्लास में दोषों के उदाहरण देने के लिये नाना ग्रंथों से जो हमने दूषित पद्य संग्रह किए हैं, उसमें हमको बहुत परिश्रम और बहुत खोज करनी पड़ी है। यदि तुम्हारा नैषध-चरित उस समय हमारे हाथ लग जाता, तो हमारा प्रायः सारा परिश्रम बच जाता। क्योंकि अकेले इसी में सब दोषों के उदाहरण भरे हुए हैं। श्रीहर्ष ने पूछा, दो-एक दोष बतलाइए तो सही। इस पर मम्मट भट्ट ने द्विताय सर्ग का बासठवाँ श्लोक पढ़ दिया। इस श्लोक का प्रथम चरण यह है—"तव वर्त्मनि वर्तंतां शिवं" जिसका अर्थ है 'तुम्हारी यात्रा कल्याणकारिणी हो।' परंतु इसी चरण का पदच्छेद दूसरे प्रकार से करने पर उलटा अर्थ निकलता है—"तव वर्त्म निवर्ततां शिवं" अर्थात् 'तुम्हारी यात्रा अकल्याणकारिणी हो।' यह वाक्य दमयंती के पास जाने को प्रस्तुत हंस से नल ने कहा है।
  5. See, Indo-Aryans, Vol. II.
  6. अर्थात् 'गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति'-नामक काव्य के भ्राता नैषध-चरित का सातवाँ सर्ग पूरा हुआ।
  7. अर्थात् 'अर्णववर्णन' नामक काव्य के कर्ता श्रीहर्ष-रचित नैषध-चरित का नवम सर्ग समाप्ति को पहुँचा।
  8. 'निसर्गोज्ज्वलः' (अत्यंत उज्ज्वल) यह श्रीहर्ष की तीसरी दर्पोक्ति हुई। 'चारुणि' और 'निसर्गोज्ज्वल:' की तो कुछ गिनती ही नहीं; न जाने कितनी दफ़े इनका प्रयोग आपने किया है।