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नैषध-चरित-चर्चा/४—श्रीहर्ष का समयादि-निरूपण

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पृष्ठ ३७ से – ४४ तक

 

(४)
श्रीहर्ष का समयादि-निरूपण

यहाँ तक श्रीहर्ष के विषय में आनुमानिक बातों का उल्लेख हुआ । अब उनके समय आदि के निरूपण से संबंध रखनेवाली कुछ विशेष बातें लिखी जाती हैं । राजशेखर सूरि नाम का एक जैन कवि हो गया है । उसका स्थिति-काल विक्रम संवत् १४०५ (१३४६ ईसवी) के आस-पास माना जाता है। उसका बनाया हुआ एक ग्रंथ प्रबंधकोश-नामक है। उसमें उसने लिखा है कि श्रीहीर के पुत्र श्रीहर्ष ने कान्यकुब्ज-नरेश गोविंदचंद्र के पुत्र जयंत- चंद्र की आज्ञा से नैषध-चरित बनाया। यदि यह बात सच है, तो श्रीहर्ष का जयचंद ही के आश्रय में रहना सिद्ध है। जयचंद और मुहम्मद ग़ोरी का युद्ध ११९५ ईसवी में हुआ था। अतएव श्रीहर्ष ईसा की बारहवीं सदी के अंत में अवश्य ही विद्यमान थे।

इंडियन ऐंटिक्केरी (१५-१११२) में राजा जयचंद का जो दान- पत्र छपा है, उसमें—

त्रिचत्वारिशद धकद्वादशशतसंवत्सरे आषाढे मासि शुक्लपक्षे सप्तभ्यां तिथौ रविदिने अंकतोऽपि संवत् १२४३ आसाढ-सुदि७ रवी—

इस प्रकार संवत् १२४३ स्पष्ट लिखा है । यह दानपत्र प्राचीन लेख-माला के प्रथम भाग में भी छपा है । इंडियन ऐंटिकेरी (१५-७८८) में जयचंद का एक और भी दानपत्र छपा है । यह उस समय का है, जब जयचंद युवराज थे। इसमें १२२५ संवत् दिया हुआ है।

राजशेखर सूरि ने जयंतचंद्र को (इसी को जयचंद्र भी कहते थे) गोविंदचंद्र का पुत्र कहा है । परंतु यह ठीक नहीं। जयचंद के पिता का नाम विजयचंद्र था और विजयचंद्र के पिता का गोविंदचंद्र था। यह बात उन दो दानपत्रों से सिद्ध है, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । दानपत्र में जयचंद की वंशावलि इस प्रकार लिखी है—

यशोविग्रह, महोचंद्र, चंद्रदेव, मदनपाल, गोविंदचंद्र, विजय- चंद्र, जयचंद्र।

पीछे के तीन राजाओं के पिता-पुत्र-संबंध सूचक पद्य भी, राजा जयचंद के दानपत्र से, हम नीचे उद्धृत करते हैं—

तस्मादजायत निजायतबाहुवल्ली-
बन्धावरुखनवराज्यगजो नरेन्द्रः ।
सान्दामृतद्रवमुचां प्रभवो गवां यो
गोविन्दचन्द्र इति चन्द्र इवाम्बुराशेः॥१॥
अजनि विजयचन्द्रो नाम तस्मान्नरेन्द्रः
सुरपतिरिव भूभृत्पक्षविच्छेदक्षः।
भुवनदहनहेलाहर्म्यहम्मीरनारी-
नयनजलधाराधौतभूलोकतापः ॥२॥

तस्मादद्भुतविक्रमादथ जयचन्द्राभिधानः पति-
र्भूपानामवतीर्ण एष भवनोद्धाराय नारायणः ।
द्वैधीभावमपास्य विग्रहरुचिं धिक्कृत्य शान्ताशयाः
सेवन्ते यमुदप्रबन्धनभयध्वंसार्थिनः पार्थिवाः ॥३॥

राजशेखर सूरि ने १३४८ ईसवी में प्रबंधकोश-नामक ग्रंथ लिखा है। उसमें उसने श्रीहीर, श्रीहर्ष और जयचंद इत्यादि के विषय में जो कुछ कहा है, वह संक्षेपतः यह है—

काशी में गोविंदचंद्र नाम का एक राजा था। उसके पुत्र का नाम जयचंद्र था । (दानपत्रों के अनुसार गोविंदचंद्र का पुत्र विजयचंद्र और विजयचंद्र का पुत्र जयचंद्र था) उसको, अर्थात् जयचंद्र की, सभा में हीर नाम का एक विद्वान् था । उसको सभा में, राजा के सम्मुख, एक दूसरे विद्वान् ने— उदयनाचार्य ने—शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया। हीर जब मरने लगा, तब उसने अपने पुत्र श्रीहर्ष से कहा कि यदि तू सत्पुत्र है, तो जिस पंडित ने मुझे परास्त किया है, उसे तू राजा के सम्मुख अवश्य परास्त करना । श्रीहर्ष ने कहा— 'बहुत अच्छा'।

पिता के मरने पर श्रीहर्ष ने देश-देशांतरों में जाकर तर्क, व्याकरण, वेदांत, गणित, ज्योतिष, अलंकार इत्यादि अनेक शास्त्र पढ़े। फिर गंगा-तट पर एक वर्ष-पर्यत चिंतामणि-मंत्र की साधना करके उन्होंने भगवती त्रिपुरा से वर प्राप्त किया। इस वर के प्रभाव से श्रीहर्ष को वाणी में ऐसी अलौकिक शक्ति प्रादुर्भूत हुई कि जिस सभा में वह जाते, कोई उनको बात ही न समझ सकता । अतः श्रोहर्ष ने पुनः त्रिपुरा को प्रत्यक्ष करके उनसे प्रार्थना की कि ऐसा कीजिए, जिसमें सब कोई मेरी बात समझ सकें । इस पर देवो ने कहा—"आधी रात के समय, भीगे सिर, दही खाकर शयन कर । कफांश के उतरने से तेरी बुद्धि में कुछ जड़ता आ जायगी ।" श्रीहर्ष ने ऐसा ही किया। तब से उनकी बातें लोगों की समझ में आने लगीं।

इस प्रकार, वर-प्राप्ति के अनंतर, काशी में राजा जयचंद्र से श्रीहर्ष मिले । उन्होंने उसे अपनी विद्वत्ता से बहुत प्रसन्न किया । राजा के सम्मुख उपस्थित होने पर श्रीहर्ष ने यह श्लोक पढ़ा—

गोविन्दनन्दनतया च वपुःश्रिया च
माऽस्मिन्नृपे कुरुत कामधियं तरुण्यः;
अस्वीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री-
रस्त्रीजनः पुनरनेन विधीयते स्त्रीः ।

भावार्थ—हे तरुणी-गण ! गोविदनंदन (गोविंदचंद्र का लड़का जयचंद्र तथा गो वद [कृष्ण] का लड़का प्रद्युम्न अर्थात् काम,) तथा अत्यंत रूपवान होने के कारण इस राजा को तुम लोग कहीं काम न समझ लेना। इस जगत को जीतने में काम स्त्री को अस्त्री (पुरुष तथा अस्त्रधारी) कर देता है, अर्थात् स्त्रियों ही को अस्त्र-रूप करके जगत् जीत लेता है; परंतु यह राजा अस्त्री (पुरुष तथा अस्त्रधारी) को स्त्री बना देता है। शस्त्रधारी पुरुष, इसके सम्मुख स्त्रीवत् अपने प्राण बचाते हैं। यह श्लोक बहुत ही अच्छा है । इसमें 'गोविंदनंदन' और 'अस्त्री' शब्द द्वयर्थिक हैं । दान-पत्रों में गोविंदचंद्र के पुत्र का नाम विजयचंद्र लिखा है । अतएव यह पद्य विजयचंद्र के लिये श्रीहर्षे ने कहा होगा। संभव है, यह 'विजय-प्रशस्ति' का हो । क्योंकि श्रीहर्ष ने इस नाम का एक ग्रंथ बनाया है । नैषध- चरित के पाँचवें सर्ग के अंत में श्रीहर्ष ने कहा है—

तस्य श्रीविजयप्रशस्तिरचना तावस्य नव्ये महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्पञ्चमः ।

जयचंद्र के आश्रय में रहकर उसके पिता को प्रशस्ति लिखना श्रीहर्ष के लिये स्वाभाविक बात है। राजशेखर ने श्रीहर्ष के डेढ़-दो सौ वर्ष पीछे प्रबंधकोष लिखा है। अतः नामों में गड़बड़ होना संभव है। यह भी संभव है कि श्रीहर्ष विजयचंद्र के समय कान्यकुब्जेश्वर के दरबार में पहलेपहल गए हों, और उसके मरने पर जयचंद्र के आश्रय में रहे हों।

श्रीहर्ष के अपूर्व पांडित्य को देखकर उनके पिता का पराजय करनेवाले पंडित ने भी—देव ! वादींद्र ! भारतीसिद्ध ! इत्यादि संबोधन-पूर्वक—श्रीहर्ष के सम्मुख यह स्वीकार किया कि उनके बराबर दूसरा विद्वान् नहीं।

कुछ काल के अनंतर जयचंद्र ने श्रीहर्ष से कहा कि तुम कोई प्रबध लिखो। इस पर श्रीहर्ष ने नैषध-चरित की रचना करके उसे राजा को दिखाया। राजा ने उसे बहुत पसंद किया, और श्रीहर्ष से कहा कि तुम काश्मीर जाकर इसे वहाँ की राज-सभा के पंडितों को दिखा लाओ। श्रीहर्ष काश्मीर गए । पर वहाँ उनकी दाल न गली । वहाँ के ईर्ष्यालु पंडितों ने उनकी एक न सुनी । एक दिन श्रीहर्ष एक देवालय में पूजा कर रहे थे। पास हो तालाब था। इतने में नीच जाति की दो स्त्रियाँ वहाँ पानी भरने आईं। उनमें परस्पर मार-पीट हो गई । खून तक निकला। इसको फरियाद राजा के दरबार में हुई । राजा ने साक्षी माँगे। मार-पीट के समय वहाँ पर श्रीहर्ष के सिवा और कोई न था। अतएव वही गवाह बदे गए । श्रीहर्ष ने, बुलाए जाने पर, कहा कि मैं इन स्त्रियों की भाषा नहीं समझता। पर जो शब्द इन्होंने उस समय कहे थे, मुझे याद हैं। उन शब्दों को श्रीहर्ष ने ज्यों-का-त्यों कह सुनाया । उनकी ऐसी अद्भुत धारणा-शक्ति देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने इनसे इनका हाल पूछा। इनके पांडिस्य और कवित्व की उसने परीक्षा भी ली। इनका नैषध-चरित भी देखा । फल यह हुआ कि इनका बहुत सरकार उसने किया, और अपनी सभा के ईर्ष्यालु पंडितों को बहुत धिक्कारा। राजा ने तथा उसके आश्रित पंडितों ने भी नैषध- चरित के सरकाव्य होने का सरटीफिकट श्रीहर्ष को दे दिया।

जिस समय श्रीहर्ष काश्मीर गए, उस समय के काश्मीर-नरेश का नाम राजशेखर ने माधवदेव लिखा है । परंतु राजतरंगिणी में इस नाम के राजा का उल्लेख नहीं। श्रीहर्ष काशी लौट आए, और जयचंद्र से उन्होंने सब हाल कहा । राजा बहुत प्रसन्न हुआ।

वीरधवल-नामक राजा के समय में हरिहर-नामक पंडित नैषध की एक प्रति गुजरात को ले गया। उस पुस्तक से राजा वीरधवल के मंत्री वस्तुपाल ने एक दूसरी प्रति लिखवाई। राजशेखर ने लिखा है कि हरिहर श्रीहर्ष के वंशज थे और वे गौड़ थे। अतः श्रीहर्ष भी गौड़ ही हुए। संभव है, इसी से श्रीहर्ष ने गौड़-देश के राजा को प्रशंसा में 'गौडोर्वीशकुल- प्रशस्ति' नामक ग्रंथ बनाया हो।

राजशेखर ने लिखा है कि जयचंद्र की रानी सूहलदेवी बड़ी विदुषी थी। वह कलाभारती नाम से प्रसिद्ध थी। श्रीहर्ष भी नरभारती कहलाते थे। यह बात रानी को सहन न होती थी। वह श्रीहर्ष से मत्सर रखती और कुचेष्टाएँ किया करती थी। इसीलिये, खिन्न होकर, गंगा-तट पर श्रीहर्ष ने संन्यास ले लिया।

श्रीहर्ष ने अपने लिये कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ आसन पाना लिखा है, और राजशेखर ने (श्रीहर्ष के डेढ़ ही सौ वर्ष पोछे) उनको जयचंद्र का आश्रित बतलाया है। अतः यह बात निर्भम-सी है कि श्रीहर्ष जयचंद्र ही के समय, अर्थात् ईसा की बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, विद्यमान थे।

अहमदाबाद के निकट धोलका में चांडु नाम का एक विद्वान् हो गया है । उसने १२९६ ईसवी में नैषध-दीपिका-नामक नैषधचरित की टीका बनाई। इस टीका में उसने भी लिखा है कि श्रीहर्ष ने अपने पिता के जीतनेवाले उदयनाचार्य को शास्त्रार्थ में परास्त किया । इसलिये इससे भी राजशेखर के कथन की पुष्टि होती है । चांडु ने अपनी टीका में नैषध-चरित को 'नवीन काव्य' लिखा है, और यह भी लिखा है कि उस समय तक नैषध-चरित की विद्याधरी-नामक केवल एक ही टीका उपलब्ध थी। पर इस समय इस काव्य की तेईस तक टीकाएँ देखी गई हैं।

प्रबंधकोष में लिखा है कि जयचंद्र के प्रधान मंत्री ने ११७४ ईसवी में सोमनाथ की यात्रा की। इस यात्रा-वर्णन के पहले ही श्रीहर्ष का काश्मीर जाना वर्णन किया गया है। नैषध-चरित लिखने के अनंतर श्रीहर्ष काश्मीर गए थे। अतः उन्होंने ११७४ ईसवी के कुछ दिन पहले ही नैषध की रचना की होगी।

श्रीहर्ष ने नैषध के प्रति सर्ग के अंत में अपने माता- पिता के नाम का पिष्ट-पेषण किया है; परंतु किसी सर्ग के अंत में अपना समय तथा जन्मभूमि और जिस राजा के यहाँ आप रहे, उसका नाम आदि लिख देने की कृपा नहीं की। तथापि प्रबंधकोष के अनुसार यह प्रायः सिद्ध-सा है कि वह राजा जयचंद के आश्रय में थे।

गोविंद-नंदनतया—आदि श्लोक से यह भी सूचित होता है कि वह जयचंद्र के पिता ही के समय में कान्यकुब्ज की राजधानी में पहुँच गए थे।