नैषध-चरित-चर्चा/८—नैषध-चरित का कथानक

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(८)
नैषध-चरित का कथानक

नैषध-चरित में नल और दमयंती की कथा है, इस बात को प्रायः सभी जानते हैं । तथापि किसी-किसी की यह समझ है कि इस काव्य में दमयंती का वन में परित्याग भी वर्णन किया गया है। यह केवल भ्रम है। परित्याग-विषयक कोई बात इसमें नहीं। उस विषय के कवित्व का जिसे स्वाद लेना हो, उसे सहृदयानंद-नामक काव्य देखना चाहिए । नैषध की कथा संक्षेपतः इस प्रकार है—

विदर्भ-देश के राजा भीम के एक कन्या थी। उसका नाम था दमयंती। अपने पिता को देश-देशांतर के समाचार सुनाने- वाले ब्राह्मणों के मुख से राजा नल की प्रशंसा सुनकर वह उसमें अनुरक्त हो गई । इधर लोगों से दमयंती का अप्रतिम सौंदर्य सुनकर राजा नल को भी उसकी प्राप्ति की अभिलाषा हुई। दमयंती में नल की आसक्ति इतनी बढ़ी और उसे दिन-पर-दिन इतनी व्याकुलता होने लगी कि राजकार्य में विघ्न पड़ने लगा। अतः 'आराम-विहार' के बहाने राजा नल कुछ काल के लिये बाहर चले गए । वहाँ उपवन में, एक तड़ाग के किनारे, एक सुवर्णमय हंस उन्होंने देखा । इस लोकोत्तर हंस को राजा ने [ ५९ ]कुतूहलाक्रांत होकर पकड़ लिया। पकड़ लेने पर हंस ने अतिशय विलाप किया, और राजा से ऐसी-ऐसी कारुणिक बातें कहीं कि उसने दयार्द्र होकर हंस को छोड़ दिया। छाड़े जाने के अनंतर इस उपकार का प्रत्युपकार करने के लिये हंस ने दमयंती के पास जाकर दूतत्व करना और उसमें नल का और भी अधिक प्रेम जाग्रत् करके नल को दमयंती की प्राप्ति होने में सहायता करना स्वीकार किया। हंस ने ऐसा हो किया । विदर्भ-देश को जाकर, वहाँ दमयंती से नल का वृत्तांत कहकर, उसको हंस ने इतना उत्कंठित किया कि नल को विना देखे ही दमयंती को इतनी विरह-वेदना होने लगी कि उस वेदना से व्यथित होकर उसने चंद्रमा और काम को हजारों गालियाँ सुनाई । फिर अनेक प्रलाप करते-करते वह मूर्च्छित हो गई । सुता की मूर्छा का वृत्तांत जानने पर उसके पिता राजा भीम उसके पास दौड़े आए, और अनुमान से सब बातें जानकर शीघ्र ही उसके स्वयंवर का प्रबंध करना उन्होंने निश्चित किया । इतनी कथा ४ सर्गों में वर्णन की गई है।

दमयंती के सौंदर्यादि का वर्णन नारद ने इंद्र से जाकर किया और उसके स्वयंवर का समाचार भी सुनाया। इस बात को सुनकर इंद्र, वरुण, यम और अग्नि इन चारो देवतों के हृदयों में दमयंती की प्राप्ति की अतिशय उत्कंठा उत्पन्न हुई । दमयंती को पाने की अभिलाषा से उधर से ये चारो स्वयंवर देखने के लिये चले ; इधर से नल ने भी इसी निमित्त [ ६० ]प्रस्थान किया। मार्ग में इनकी परस्पर भेंट हुई । देवतों को यह विदित ही था कि दमयंतो नल को चाहती है । अतएव वे यह अच्छी तरह जानते थे कि नल के स्वयंवर में उपस्थित रहते दमयंती उन्हें कदापि नहीं मिल सकती। इसलिये इन देवतों ने चतुराई करके नल को अपना दूत बनाकर दमयंती के पास भेजना चाहा । नल यद्यपि दमयंती को स्वयं ही मनसा, वाचा, कर्मणा चाहते थे, तथापि देवतों की इच्छा के प्रति- कूल उन्होंने कोई बात करनी उचित न समझी। उनकी प्रार्थना को नल ने स्वीकार कर लिया । देवतों ने नल को अदृश्य होने को एक ऐसी विद्या पढ़ा दी, जिसके प्रभाव से वह दमयंती के अंतःपुर तक अदृष्ट प्रवेश कर गए। वहाँ इंद्र की भेजी हुई दूती के दूतत्व करके चले जाने पर नल ने बड़े चातुर्य से अनेक प्रकार से देवतों की प्रशंसा करके दमयंती का प्रलोभन किया। उन्होंने भय भी दिखाया । परंतु नल को छोड़कर अन्य के साथ विवाह करना दमयंती ने स्वीकार न किया । नल की प्राप्ति न होने से उलटा प्राण दे देने का प्रण उसने किया। तदनंतर नल ने अपने को प्रकट किए बिना ही दमयंती को समझाया कि देवतों की इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह नल से किसी तरह संभव नहीं । इसको दमयंती ने सत्य माना और नल की प्राप्ति से निराश होकर ऐसा हृदय- द्रावक विलाप करना आरंभ किया कि नल के होश उड़ गए । वह अपना दूतत्व भूल गए और प्रत्यक्ष नलभाव को प्रकाशित [ ६१ ]करके स्वयं विलाप करने लगे। इस पर दमयंती ने नल को पहचाना । देवतों को भी इसकी यथार्थता विदित हो गई। परंतु अप्रसन्न होना तो दूर रहा, राजा की दृढ़ता और स्थिरप्रतिज्ञता को देखकर वे चारो दिकपाल उलटा उस पर बहुत संतुष्ट हुए । यहाँ तक को कथा नैषध चरित के नौ सों में वणन की गई है।

दशम से प्रारंभ करके चतुर्दश सर्ग तक दमयंती के स्वयंवर का वर्णन है । दमयंती के पिता राजा भीम की प्रार्थना पर उसके कुल-देवता विष्णु ने सरस्वती को राजों का वंश, यश इत्यादि वर्णन करने के लिये भेजा। सरस्वती ने अद्भुत वर्णन किया । जितने देवता, जितने लोकपाल, जितने द्वीपाधिपति और जितने राजे स्वयंवर में आए थे, सरस्वती ने उन सबकी पृथक्-पृथक् नामादि निर्देश-पूर्वक प्रशंसा की। इस स्वयंवर में उन चार—इंद्र, वरुण, यम और अग्नि—देवतों ने दमयंती को छलने के लिये एक माया रची। उन्होंने नल ही का रूप धारण किया और जहाँ नल बैठे थे, वहीं जाकर वे भी बैठ गए । अतएव एक स्थान पर एक ही रूपवाले पाँच नल हो गए । इन पाँच नलों की कथा जिस सर्ग (तेरहवें) में है, उसको पंडित लोग पंचनली कहते हैं। श्रीहर्ष ने इस पंचनली का वर्णन सरस्वती के मुख से बड़ा ही अद्भुत कराया है। उन्होंने अपूर्व श्लेषचातुरी इस वर्णन में व्यक्त की है । प्रायः पूरा सर्ग-का-सर्ग श्लेषमय है। प्रति श्लोक से एक-एक [ ६२ ]देवता का भी अर्थ निकलता है और नल का भी। इस वर्णन- वैचित्र्य को सुनकर और पाँच पुरुषों का एक ही रूप देखकर दमयंती यह न पहचान सकी कि इनमें यथार्थ नल कौन है । इससे वह अतिशय विषण्ण हुई, और अंत में उसने उन्हीं देवतों का नाम ले-लेकर स्तवन इत्यादि किया। दमयंती की इस भक्ति- भावना से वे देवता प्रसन्न हो गए। उनके प्रसन्न होने से दमयंती की बुद्धि भी विशद हो गई, और उसे वे चार श्लोक स्मरण हुए, जिनको सरस्वती ने यथार्थ नल के सम्मुख कहा था। इन चार श्लोकों में नल का भी वर्णन है और एक-एक में क्रम-क्रम से उन चार दिक्पालों का भी है । वे चारो दिक्पाल चार दिशा के स्वामी हैं और नल, राजा होने के कारण, सभी दिशाओं का स्वामी है । अतएव दमयंती ने जान लिया कि वह परमार्थ नल ही का वर्णन था । दिकपालों का अर्थ, जो ध्वनित होता था, गौण था। समासोक्ति आदि अलंकारों में प्रकृत वस्तु के अतिरिक्त अप्रकृत का भी अर्थ गर्भित रहता है। परंतु वह केवल कवि का कवित्व-कौशल है ; उसमें तथ्य नहीं । नल-विषयक इतना निश्चय हो जाने पर दमयंती को और भी कई बातें उस समय देख पड़ी, जो देवता और मनुष्य के भेद की सूचक थीं। यथा—नलरूपी देवतों के नेत्र निर्निमेष थे, परंतु नल के नहीं; नलरूपी देवतों के कंठ की माला म्लान न थी, परंतु नल के कंठ की माला म्लान थी । नलरूपी देवतों के शरीर की छाया [ ६३ ]न देख पड़ती थी, परंतु नल के शरीर की छाया देख पड़ती थी। इन चिह्नों से दमयंती ने नल को पहचानकर वरणमाल्य उसी के कंठ में डाल दिया। यह देखकर देवता लोग बहुत प्रसन्न हुए, और नल को प्रत्येक ने भिन्न-भिन्न वर-प्रदान किया।

पंद्रहवें सर्ग में दमयंती का श्रृंगारादि वर्णन है। सोलहवें में विवाह-विधि, भोजन तथा तत्कालोचित स्त्री-जनों की बातचीत है। सत्रहवें सर्ग में देवतों का प्रत्यागमन, मार्ग में कलि से थै सम्मिलन, परस्पर में कलह, दमयंती की प्राप्ति का हाल सुनकर नल से कलि का विद्वेष, देवतों का उसको समझाना इत्यादि है। अठारहवें सर्ग में नल और दमयंती का विहार-वर्णन है। उन्नीसवें में प्रभात-वर्णन, बोलवें में नल और दमयंती का हास्यविनोद, इक्कीसवें में नल-कृत ईश्वरार्चन और स्तवन इत्यादि, और अंतिम बाईसवें सर्ग में सायंकाल-वर्णन है ।



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