नैषध-चरित-चर्चा/७—श्रीहर्ष की गर्वोक्तियाँ

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श्रीहर्ष की गर्वोक्तियाँ

श्रीहर्ष को अपनी विद्वत्ता और कविता का अतिशय गर्व था। उनकी कई एक दर्पोक्तियाँ हम ऊपर लिख भी चुके हैं। नैषध के अंतिम श्लोक में आप अपने विषय में क्या कहते हैं, सो सुनिए—

ताम्बूलद्वयमासनच लभते यः कान्यकुब्जेश्वराद्
य: साक्षाकुरुते समाधिषु परं ब्रह्मप्रमोदार्णवम्,
यस्काव्यं मधुवर्षि धषितपरास्तषु यस्योक्तयः
श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः कृतिमुदे तस्याभ्युदीयादियम् ।

(सर्ग २२, श्लोक ११५)

अर्थात् कान्यकुब्ज-नरेश के यहाँ जिसे दो पान—और पान ही नहीं, किंतु आसन भी जिसे मिलता है। समाधिस्थ होकर जो अनिर्वचनीय ब्रह्मा नंद का साक्षात्कार करता है। जिसका काव्य शहद के समान मीठा होता है। जिसकी तर्कशास्त्र-संबंधिनी उक्तियों को सुनकर प्रतिपक्षी तार्किक परास्त होकर कोसों भागते हैं—उस श्रीहर्ष-नामक कवि की यह कृति (नैषध-चरित) पुण्यवान पुरुषों को प्रमोद देनेवाली हो।

देखा, आप पंडित जगन्नाथराय से भी बढ़कर निकले । [ ५४ ]जगन्नाथराय ने कहा है कि सुमेरु से लेकर कन्याकुमारी तक मेरे बराबर अच्छी कविता करनेवाला दूसरा नहीं है । परंतु श्रीहर्ष केवल कविता ही से अमृत नहीं बरसाते, किंतु सारे शास्त्रों में अपने धुरीणत्व का उल्लेख करते हैं। इनके खंडन- खंड-खाद्य और नैषध-चरित से, टीकाकार नारायण पंडित के कथनानुसार, इनका 'विद्वच्चक्रचूड़ामणि' होना सिद्ध है, यह हम मानते हैं । परंतु क्या मुख से कहने ही से पांडित्य प्रकट होता है ? कालिदास ने रघुवंश में लिखा है—

मन्दः कवियशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् ।
प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्वाहुरिव वामनः ।

इस शालीनता-सूचक पद्य से क्या उन्होंने अपना पांडित्य कम कर दिया ? कदापि नहीं । इस प्रकार नम्रता-व्यंजक वाक्य कहने से विद्या को और भी विशेष शोभा होती है । किसी ने कहा है—

शीलभारवती विद्या भजते कामपि श्रियम् ;

परंतु कुछ कवियों और पंडितों ने अपनी प्रशंसा अपने ही मुँह से करने में जरा भी संकोच नहीं किया। भारत-चंपू के बनानेवाले अनंत-नामक कवि ने—

दिगन्तरलुठस्कोतिरनन्तकविकुञ्जर: ।

इत्यादि वाक्य कहकर अपने को अपने ही मुख से कविकंजर ठहराया है। श्रीहर्ष की बात तो कुछ पूछिए ही नहीं। अपनी कविता के विषय में 'महाकाव्य', 'निसर्गोज्ज्वल', 'चारु', [ ५५ ]'नव्य', 'अतिनव्य' इत्यादि पद-प्रयोग कर देना तो। उनके लिये साधारण बात है। उन्होंने तो काश्मीर तक के पंडितों से नैषध की पूजा को जाने का उल्लेख किया है। इसके अति रिक्त कई सगों के अंत में आपने अपने कवित्व की और भी मनमानी प्रशंसा की है। देखिए—

तर्केष्वप्यसमश्रमस्य दशमस्तस्य व्यरंसीन्महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते स! निसर्गोज्ज्वलः।

अर्थात् जिसने केवल कविता ही में नहीं, किंतु तर्कशास्त्र में भी बड़ा परिश्रम किया है, उसके नैषध-चरित का दसवाँ सर्ग समाप्त हुआ। आगे चलिए—

श्रृंगारामृतशीतगावयमगादेकादशस्तन्महा-
काव्येऽस्मिन् निषधेश्वरस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् शृंगाररूपी अमृत से उत्पन्न हुए चंद्रमा के समान उज्ज्वल और आह्लादकारक, मेरे नैषध-चरित के एकादश सर्ग का अंत हुआ। और लीजिए—

स्वादूत्पादभृति त्रयोदशतयाऽऽदेश्यस्तदीये महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् अतिशय स्वादिष्ठ अथों को उत्पन्न करनेवाले नैषध-चरित के प्रयोदश सर्ग की समाप्ति हुई । और—

यातस्तस्य चतुर्दशः शरविनज्योत्स्नाच्छसूक्तर्महा-
कान्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् शरत्कालीन चंद्रमा की चंद्रिका के समान उज्ज्वल [ ५६ ]उक्तियाँ जिसमें हैं, ऐसे नैषध-चरित का चतुर्दश सर्ग समाप्त हो गया। और भी—

यातःपञ्चदशः कृशेतररसास्वादाविहायं महा-
काव्ये तस्य हि वैरसैनिचरिते स! निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् अत्यंत सरस और अत्यंत स्वादिष्ठ नैषध-चरित का पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ। और भी सुनिए—

एका न त्यजतो नवार्थघटनामेकोनविंशे महा-
काव्ये तस्य कुतौ नलीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः ।

अर्थात् जिसने एक भी नवीनार्थ-घटना को नहीं छोड़ा, उसके किए हुए नल-चरित का उन्नीसवाँ सर्ग समाप्ति को पहुँचा। बस, एक और—

अन्यातुएणरसप्रमेयभाणतौ विशस्तदीये महा-
काव्येऽयं व्यगलचलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः।

अर्थात् जिस रसमयो उक्तियों का आज तक और किसी ने व्यवहार नहीं किया, वे जिसमें समाविष्ट हैं, ऐसे नैषध-चरित का बीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ।

कहिए, क्या इससे भी अधिक आत्मश्लाधा हो सकती है ? आत्मश्लाघा की मात्रा इन्होंने बहुत ही बढ़ा दी है। नैषध की परिसमाप्ति में आपने अपने को अमृतादि चौदह रत्न उत्पन्न करनेवाला क्षीर-सागर बताया है और शेष सब कवियों को दो ही चार दिन में सूख जानेवाली नदियों को उत्पन्न करनेवाले पहाड़ी पत्थर ! श्रीहर्ष का जब यह हाल है, तब पंडित अंबिकादत्त [ ५७ ]ब्यास अपने 'विहारी-विहार' में स्वप्रशंसात्मक यदि दो-एक बातें किसी मिष कह दें, तो विशेष आक्षेप की बात नहीं । श्रीहर्ष का पांडित्य और कवित्व निःसंशय प्रशंसनीय है। परतु इन्होंने अपने विषय में जितनी गर्वोक्तियाँ कही हैं, उतनी, जहाँ तक हम जानते हैं, दो-एक को छोड़कर और किसी ने नहीं कहीं।




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