सामग्री पर जाएँ

परीक्षा गुरु/३

विकिस्रोत से
परीक्षा गुरु
द्वारा लाला श्रीनिवासदास
परीक्षा गुरु
१४
 

की क्या कमी है? आप कहें जितना रुपया इसी समय हाजिर हो" मास्टर शिंभूदयाल बोले.


"अच्छा! मुझसे हो सकेगा जिस तरह दस हज़ार रुपये का बंदोबस्त करके मैं कल तक आपके पास भेज दूँगा आप किसी तरह की चिन्ता न करें" लाला मदनमोहन ने कहा.


"आपने बड़ी मेंहरबानी की मैं आपकी इनायत से जी गया. अब मैं आपके भरोसे बिल्कुल निश्चिन्त रहूंगा” मिस्टर रसल ने जाते-जाते बड़ी खुशी से हाथ मिला कर कहा. और मिस्टर रसल के जाते ही लाला मदनमोहन भी भोजन करने चले गए.

--------



प्रकरण ३.

संगति का फल

सहबासी बस होत नृप गुण कुल रीति विहाय
नृप युवती अरु तरुलता मिलत प्राय संग पाय

हितोपदेश

लाला मदनमोहन भोजन करके आए उस समय सब मुसाहब कमरे में मौजूद थे. मदनमोहन कुर्सी पर बैठ कर पान खाने लगे और इन लोगों ने अपनी-अपनी बात छेड़ी.


हरगोविंद(पन्सारी के लड़के) ने अपनी बग़ल से लखनऊ की बनी हुई टोपियाँ निकाल कर कहा "हुजूर ये टोपियाँ अभी


आसन्नमेंव नृपतिर्भजते मनुष्यम् विद्याविहीन मकुलीन मसंगतं वा
प्रायेण  भूमिपतय:प्रमुख लताश्च, य:पार्श्व तो वसति तं परिवेष्टयन्ति!!

१५
संगति का फल
 


लखनऊ से एक बजाज के यहां आई हैं सौगात में भेजने के लिये अच्छी हैं पसंद हों तो दो-चार ले आऊँ?"

"कीमत क्या है?”

वह तो पच्चीस-पच्चीस रुपये कहता है परन्तु मैं वाजबी कैराना लूँगा."

"बीस-बीस रुपये में आवें तो ये चार टोपियां ले आना.”

"अच्छा! मैं जाता हूँ अपने बस पड़ते तोड़-जोड़ में कसर नहीं रखूँगा." यह कह कर हरगोविन्द वहां से चल दिया.

"हुजूर! यह हिना का अत्र अजमेर से एक गंधी लाया है। वह कहता है कि मैं हुजूर की तारीफ़ सुनकर तरह-तरह का निहायत उम्दा अत्र अजमेर से लाता था परंतु रास्ते में चोरी हो गई सब माल अस्बाब जाता रहा सिर्फ यह शीशी बची है वह आप की नजर करता हूँ.” यह कह कर अहमद हुसैन हकीम ने वह शीशी लाला साहब के आगे रख़ दी.

“जो लाला साहब को मंजूर करने में कुछ चारा विचार हो तो हमारी नजर करो हम इसको मंजूर करके उसकी इच्छा पूरी करेंगे” पण्डित पुरुषोत्तमदास ने बड़ी वजेदारीसे कहा.

"नज़र तो सिवाय करेले के और कुछ नहीं हो सकता आपकी मरज़ी हो; मंगवायें?" हकीमजी ने जवाब दिया.

"करेले तुम खाओ, तुम्हारे घर के खायें हमको मुंह कड़वा करने की क्या ज़रूरत है? हम तो लाला साहब के कारण नित्य लड्डू उड़ाते हैं और चैन करते हैं” पण्डित जी ने कहा.

“लड्डू ही लड्डूओं की बातें करनी आती हैं या कुछ और भी

सीखे हो?” मास्टर शिंभूदयाल ने छेड़ की.
परीक्षा गुरु
१६
 


“तुम सरीखे छोकरे मदरसे में दो एक किताबें पढ़ कर अपने को अरस्तातालीस(Aristotle) समझने लगते हैं परन्तु हमारी विद्या ऐसी नहीं है तुम को परीक्षा करनी हो तो लो इस काग़ज़ पर अपने मन की बात लिख कर अपने पास रहने दो जो तुमनें लिखा होगा हम अपनी विद्या से बता देंगे” यह कह कर पंडितजी ने अपने अंगोछे में से काग़ज़ पेन्सिल और पुष्टीपत्र निकाल दिया.

मास्टर शिंभूदयाल नें उस काग़ज़ पर कुछ लिखकर अपने पास रख लिया और पंडितजी अपना पुष्टीपत्र लेकर थोड़ी देर कुडली खेंचते रहे फिर बोले "बच्चा तुमको हर बात में हंसी सूझती है तुमनें काग़ज़ में ‘करेला' लिखा है परन्तु ऐसी हंसी अच्छी नहीं"

लाला मदनमोहन के कहने से मास्टर शिंभूदयाल ने काग़ज़ खोल कर दिखाया तो हकीकत में 'करेला' लिखा पाया अब तो पंडितजी की खूब चढ़ बनी मूछों पर ताव दे,दे कर खखारने लगे

परतु पंडितजी ने ये 'करेला' कैसे बता दिया? लाला मदनमोहन के रोबरू आपस की मिलावट से बकरी का कुत्ता

बना देना सहज-सी बात थी परंतु पंडित जी का चुन्नीलाल और शिंभूदयाल से ऐसा मेल न था और न पंडितजी को इतनी विद्या थी कि उसके बल से 'करेला' बता देते. असल बात यह थी कि पंडितजी ने एक काग़ज़ पर काजल लगा कर पुष्टीपत्र में रख छोड़ा था, जिस समय पुष्टीपत्र पर कागज़ रख कर कोई कुछ लिखता था कलम के दबाव से कागज के अक्षर दूसरे काग़ज़ पर
१७
संगति का फल
 


उतर आते थे फिर पंडितजी कुंडली खेंचती बार किसी ढब से उसको देखकर थोड़ी देर पीछे बता देते थे.

"तो हुजूर! उस गंधी के वास्ते क्या हुक्म है?" हकीम जी ने फिर याद दिलाई.

"अत्र में चंदन के तेल की मिलावट मालूम होती है और मिलावट की चीज़ बेचने का सरकार से हुक्म नहीं है इस वास्ते कह दो शीशी जप्त हुई वह अपना रास्ता ले" पंडित जी शीशी सूंघ कर बीच में बोल उठे.

"हां हकीमजी! आपकी राय में उस गन्धी का कहना सच है?" लाला मदनमोहन ने पूछा.

"बेशक,अंदाज से तो ऐसा ही मालूम होता है आगे खुदा जाने" हकीम जी बोले.

“तो लो यह पच्चीस रुपये के नोट इस समय उसको खर्च के वास्ते दे दो.बिदा पीछे से सामने बुलाकर की जायगी” लाला मदनमोहन ने पच्चीस रुपये के नोट पाकिट से निकाल कर दिये.

“उदारता इसका नाम है” “दयालुता इसे कहते हैं” “सच्चे यश मिलने की यह राह है” “परमेश्वर इससे प्रसन्न होता है" चारों तरफ़ से वाह-वाह की बौछार होने लगी.

“ये बहियां मुलाहजे के वास्ते हाजिर हैं और बहुत-सी रकमों का जमाख़र्च आपके हुक्म बिना अटक रहा है जो अवकाश हो तो इसमय कुछ अर्ज करूँ?" लाला जवाहरलाल नें आते ही बस्ता आगे रख कर डरते-डरते कहा.

“लाला जवाहरलाल इतने बरस से काम करते हैं, परंतु

लाला साहब की तबीयत और काग़ज़ दिखाने का मौका अब
परीक्षा गुरु
१८
 


तक नहीं पहचानते” लाला मदनमोहन को सुना कर चुन्नीलाल और शिंभूदयाल आपस में कानाफूसी करने लगे.

“भला इस समय इन बातों का कौन प्रसंग है? और मुझको बार-बार दिक करने से क्या फायदा है? मैं पहले कह चुका हूँ कि तुम्हारी समझ में आवे जैसा जमा ख़र्च कर लो. मेंरा मन ऐसे कामों में नहीं लगता" लाला मदनमोहन ने झिड़ककर कहा और जवाहरलाल वहां से उठकर चुपचाप अपने रास्ते लगे.

"चलो अच्छा हुआ! थोड़े ही में टल गई. मैं तो बहियों का अटंबार देखकर घबरा गया था कि आज उस्ताद जी बिना घिरे न रहेंगे” जवाहरलाल के जाते ही लाला मदनमोहन खुश हो-होकर कहने लगे.

“इनका तो इतना हौसला नहीं है परन्तु ब्रजकिशोर होते तो वे थोड़े बहुत उलझे बिना कभी न रहते” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा.

"जब तक लाला साहब लिहाज करते हैं तब ही तक उनका उलझना उलझाना बन रहा है नहीं तो घड़ी भर में अकल ठिकाने आ जायेगी" मुन्शी चुन्नीलाल बोले.

“हुजूर! मैं लाला हरदयाल साहब के पास हो आया उन्होंनें बहुत-बहुत करके आपकी खैरीआफियत पूछी है. और आज शाम को आप से बाग में मिलने का करार किया है" हरकिसन दलाल ने आकर कहा.

"तुम गए जब वो क्या कर रहे थे?” लाला मदनमोहन ने

खुश होकर पूछा.
१९
संगति का फल
 

“भोजन करके पलंग पर लेटे ही थे आपका नाम सुनकर तुर्त उठ आए और बड़े जोश से आपकी खैरोआफियत पूछने लगे" "मैं अच्छी तरह जानता हूंँ वे मुझको प्राण से भी अधिक समझते हैं" लाला मदनमोहन ने पुलकित होकर कहा.

"आपकी चाल ही ऐसी है जो एक बार मिलता है हमेंशा के लिये चेला बन जाता है” मुन्शी चुनीलाल ने बढ़ावा देकर कहा.

“परंतु कानूनी बंदे इससे अलग हैं” मास्टर शिंभूदयाल ब्रज किशोर की तरफ इशारा कर के बोले.

“लीजिये ये टोपियां अठारह-अठारह रुपये में ठहरा लाया हूँ” हरगोविन्द ने लाला मदनमोहन के आगे चारों टोपियाँ रख कर कहा.

“तुमने तो उसकी आंखों में धूल डाल दी! अठारह-अठारह रुपये में कैसे ठहरा लाये? मुझको तो ये बाईस-बाईस रुपये से कम की किसी तरह नहीं जँचती” लाला मदनमोहन ने हरगोविंद का हाथ पकड़कर कहा.

“मैंने उसको आगे का फ़ायदा दिखाकर ललचाया और बड़ी बड़ी पट्टियाँ पढ़ाईं तब उसने लागत में दो-दो रुपये कम लेकर आपके नाम ये टोपियाँ दी हैं”

"अच्छा! यह लाला हरकिशोर आते हैं इनसे तो पूछिये ऐसी टोपी कितने-कितने में ला देंगे?” दूर से हरकिशोर बजाज़ को आते देखकर पंडित पुरुषोत्तमदास ने कहा.

“ये टोपियाँ हरनारायण बजाज के यहां कल लखनऊ से आई हैं
परीक्षा गुरु
२०
 


और बाजार में बारह-बारह रुपये को बिकी हैं पर यहां तो तेरह-तेरह में आई होंगी” हरकिशोर ने जवाब दिया.


“तुम हमें पंद्रह-पंद्रह रुपये में ला दो" हरगोविन्द ने झुंझला कर कहा.


“मैं अभी लाता हूं. तुम्हारे मन में आवे जितनी ले लेना”


"ला चुके, ला चुके लाने की यही सूरत है?” हरगोविन्द ने बात उड़ाने के वास्ते कहा.


“क्यों? मेरी सूरत को क्या हुआ? मैं अभी टोपियांँ लाकर तुम्हारे सामने रख देता हूँ” हरकिशोर ने हिम्मत से जवाब दिया.


"तुम टोपियाँ क्या लाओगे? तुम्हारी सूरत पर तो खिसियानपन अभी से छा गया!" हरगोविन्द ने मुस्करा कर कहा.


“मुझको नहीं मालूम था कि मेरी सूरत में दर्पण की खासियत है” हरकिशोर ने हंस कर जवाब दिया.


"चलो चुप रहो क्यों थोथी बातें बनाते हो?” मुन्शी चुन्नीलाल ने रोकने के वास्ते भरम में बोले.


“बहुत अच्छा! अब मैं टोपी लाये पीछे ही बात करूँगा।" यह कह कर हरकिशोर वहां से चल दिये.


“यहां के दुकानदारों में यह बड़ा ऐब है कि जलन के मारे दूसरे के माल को बारह आने का जाँच देते हैं” मुन्शी चुन्नीलालन ने कहा.


"और किसी समय मुक़ाबला आ पड़े तो अपनी गिरह से घाटा भी दे बैठते हैं” मास्टर शिंभूदयाल बोले. "न जाने लोगों को अपनी नाक कटा कर औरों की बदशगूनी करने मैं क्या मज़ा आता है" हकीमजी ने कहा.

"और जो हरगोविन्द कुछ ठगा आया होगा तो क्या मैं इन्के पीछे उस्का मन बिगाडूंगा?" लाला मदनमोहन बोले.

"आपकी ये ही बातैं तो लोगों को बेदाम गुलाम बना लेती हैं" मुन्शी चुन्नीलाल ने कहा.

"कुछ दिन सै यहां ग्वालियर के दो गवैये निहायत अच्छे आए हैं मरज़ी हो दो घड़ी के वास्तै आज की मजलिस मैं उन्हें बुला लिया जाय?" हरकिसन दलाल ने पूछा.

"अच्छा! बुलालो तुम्हारी पसंद है तो ज़रूर अच्छे होंगे" मदनमोहन ने कहा.

"लखनऊ की अमीरजान भी इन दिनों यहीं है इस्के गाने की बड़ी तारीफ़ सुनी गई है पर मैंने अपने कान सै अब तक उस्का गाना नहीं सुना" हकीमजी बोले.

"अच्छा! आप के सुन्ने को हम उसे भी यहां बुलाये लेते हैं पर उस्के गाने ने समा न बांधा तो उस्के बदले आप को गाना पड़ेगा!" लाला मदनमोहन ने हंस कर कहा.

"सच तो ये है कि आप के सबब सै दिल्ली की बात बन रही है जो गुणी यहां आता है कुछ न कुछ ज़रूर ले जाता है आप न होते तो उन बिचारों को यहां कौन पूछता? आपकी इस उदारता सै आपका नाम विक्रम और हातम की तरह दूर, दूर तक फैल गया है औ बहुत लोग आप के दर्शनों की अभिलाषा रखते हैं" मुन्शी चुन्नीलाल ने छींटा दिया.
परीक्षा गुरु
२२
 

इतने में हरकिशोर टोपी ले कर आ पहुँचे और बारह-बारह रुपये में खुशी से देने लगे.


"सच कहो तुमने इसमें अपनी गिरह का पलोथन क्या लगाया है?” शिंभूदयाल ने पूछा.


“पलोथन लगाने की क्या जरूरत थी मैं तो इसमें लाला साहब से कुछ इनाम लिया चाहता हूँ" हरकिशोर ने जवाब दिया.


"मुझको टोपियाँ लेनी होती तो मैं किसी न किसी तरह से आप ही तुम्हारा घाटा निकालता पर मैं तो अपनी जरूरत के लायक पहले ले चुका" लाला मदनमोहन ने रुखाई से कहा.


आप को इनकी कीमत में कुछ संदेह हो तो मैं असल मालिक को रूबरू कर सकता हूं?"


"जिस गांव नहीं जाना उसका रास्ता पूछना क्या जरूरत" “तो मैं इन्हें ले जाऊँ?"


“मैंने मंगाई कब थी जो मुझसे पूछते हो" यह कह कर लाला मदनमोहन ने कुछ ऐसी त्योरी बदली कि हरकिशोर का दिल खट्टा हो गया और लोग तरह-तरह की नकलें करके उसका ठट्ठा उड़ाने लगे.


हरकिशोर उस समय वहां से उठ कर सीधा अपने घर चला

गया पर उसके मन में इन बातों का बड़ा खेद रहा.
२३
मित्रमिलाप
 
प्रकरण ४.

मित्रमिलाप(!)

दूरहिसों करबढ़ाय, नयननते जलबहाय,
आदरसों ढिंगबूलाय, अर्धासन देतसो॥
हितसोहियों मैं लगाय, रुचिसमबाणी बनाय,
कहत सुनत अति सुभाय, आनंद भरि लेत जो॥
ऊपरसों मधु समान, भीतर हलाहल जान,
छलमैं पंडितमहान्, कपटको निकेतवो॥
ऐसो नाटक विचित्र, देख्यो ना कबहु मित्र,
दुष्टनकों यह चरित्र, सिखवे को हेतको?.

लाला मदनमोहन को हरदयाल से मिलने की लालसा में दिन पूरा करना कठिन हो गया. वह घड़ी-घड़ी घंटे की तरफ़ देखते थे और उखताते थे. जब ठीक चार बजे अपने मकान से सवार होकर मिस्तरीख़ाने में पहुंचे यहां तीन बग्गियें लाला मदनमोहन की फ़र्मायिश से नई चाल की बन रही थीं. उनके लिये बहुत सा सामान विलायत से मंगाया गया था और मुंबई के दो कारीगरों की राह से वह बनाई जाती थीं. लाला मदनमोहन ने कह रखा था कि "चीज़ अच्छी बनें खर्च की कुछ नहीं अटकी जो होगा


दूरा दुछितपाणि रार्द्रनयन: प्रात्सारितार्गांसनो
गाढ़लिंग्गनतत्पर: प्रिवक्कथाद्रत्रेषु दत्तादर:॥
अन्तर्भूतविषी वहिर्मघुमयश्चातीव मायापटु.
कोनामायमपूर्वनाटकविधिर्य: शिक्षितोदुर्जन:॥१॥

This work is in the public domain in the United States because it was first published outside the United States (and not published in the U.S. within 30 days), and it was first published before 1989 without complying with U.S. copyright formalities (renewal and/or copyright notice) and it was in the public domain in its home country on the URAA date (January 1, 1996 for most countries).