परीक्षा गुरु १७

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स्वतन्त्रता और स्वेच्छाचार.
 


दस पांच दिन यहां से बाहर चले जाना अच्छा समझते हैं और इसी वास्ते ये झट-पट दिल्ली से बाहर जाने की तैयारी कर रहे हैं.


प्रकरण-१७

स्वतन्त्रता और स्वेच्छाचार.

जो कंहु सब प्राणीन सों होय सरलता भाव.
सब तीरथ अभिषेक ते ताको अधिक-प्रभाव+

विदुर विदुरप्रजागरे.

लाला मदनमोन कुतब जाने की तैयारी कर रहे थे इतने में लाला ब्रजकिशोर भी आ पहुंचे.

"आपने लाला हरकिशोर का कुछ हाल सुना?" ब्रजकिशोर के आते ही मदनमोहन ने पूछा.

"नहीं! मैं तो कचहरी से सीधा चला आया हूँ." फिर आप नित्य तो घर होकर आते थे आज सीधे कैसे चले आए?" मास्टर शिंभूदयाल ने संदेह प्रकट करके कहा.

"इसमें कुछ दोष हुआ? मुझको कचहरी में देर हो गयी थी इस वास्ते सीधा चला आया. तुम अपना मतलब कहो."


+ सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्व भूतेषु चार्जवम्॥
उभे त्वेते सने स्याता मार्जवं वा विशिष्यते॥

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"मतलब तो आपका और मेरा लाला साहब खुद समझते होंगे परन्तु मुझको यह बात कुछ नई-नई सी मालूम होती है” मास्टर शिंभूदयाल ने सन्देह बढ़ाने के वास्ते कहा.

"सीधी बात को बे मतलब पहेली बनाना क्या ज़रूरी है? जो कुछ कहना हो साफ़ कहो”

"अच्छा! सुनिये” लाला मदनमोहन कहने लगे “लाला हरकिशोर के स्वभाव को तो आप जानते ही हैं आपके और उनके बीच बचपन से झगड़ा चला आता-"

"वह झगड़ा भी आप ही की बदौलत है परन्तु खैर! इस समय आप उसका कुछ विचार न करें अपना वृत्तान्त सुनाएँ और औरों के काम में अपनी निज की बातों का सस्बन्ध मिलाना बड़ी अनुचित बात है? ” लाला ब्रजकिशोर ने कहा.

"अच्छा! आप हमारा वृत्तान्त सुनिये" लाला मदनमोहन कहने लगे "कई दिन से लाला हरकिशोर रूठे रूठे से रहते थे. कल बेसबब हरगोविन्द से लड़ पडे उसकी जिद पर आप पांच-पांच रुपये के घाटे से टोपियाँ देने लगे. शाम को बाग में गए तो लाला हरदयाल साहब से वृथा झगड़ पडे़, आज यहां आए तो मुझको और चुन्नी लाल को सैंकड़ों कहनी न कहनी सुना गए!”

"बेसबब तो कोई बात नहीं होती आप इसका असली सबब

बताइये? और लाला हरकिशोर पांच-पांच रुपये के घाट पर प्रसन्नता से आपको टोपियाँ देते थे तो आपने उनमें से दस पांच क्यों नही ले लीं? इनमें आप से आप हरकिशोर पर बीस-पच्चीस रुपये का जुर्माना हो जाता” लाला ब्रजकिशोर ने मुस्कुरा कर कहा. [ ११९ ]
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स्वतन्त्रता और स्वेच्छाचार
 

"तो क्या मैं हरकिशोर की जिद पर उसकी टोपियाँ ले लेता और दस बीस रुपये के वास्ते हरगोविंद को नीचा देखने देता? मैं हरगोविंद की भूल अपने ऊपर लेने को तैयार हो परंतु अपने आश्रितुओं की ऐसी बेइज्जती नहीं किया चाहता" लाला मदनमोहन ने ज़ोर देकर कहा.

“यह आपका झूठा पक्षपात है" लाला ब्रजकिशोर स्वतन्त्रता से कहने लगे "पापी आप पाप करने से ही नहीं होता. पापियों की सहायता करनेवाले, पापियों को उत्तेजना देने वाले बहुत प्रकार के पापी होते हैं; कोई अपने स्वार्थ, कोई अपराधी की मित्रता से, कोई औरों की शत्रुता से, कोई अपराधी के संबंधियों की दया से, कोई अपने निज के संबंध से, कोई खुशामद से, महान् अपराधियों का पक्ष करनेवाले बन जाते हैं, परंतु वह सब पापी समझे जाते हैं और वह प्रकट में चाहे जैसे धर्मात्मा, दयालु,कोमल चित्त हों, भीतर से वह भी बहुधा वैसे ही पापी और कुटिल होते हैं”

"तो क्या आपकी राय में किसी की सहायता नहीं करनी चाहिये?” लाला मदनमोहन ने तेज़ होकर पूछा.

"नहीं बुरे कामों के लिये बुरे आदमियों की सहायता कभी नहीं करनी चाहिये” लाला ब्रजकिशोर कहने लगे. रशिया का शहन्शाह पीटर एक बार भरजवानी में ज्वर से मरने लायक

हो गया था उस समय उसके वज़ीर ने पूछा कि "नो अपराधियों को अभी लूट, मार के कारण कठोर दंड दिया गया है क्या वह भी ईश्वर प्रार्थना के लिये छोड दिये जायें?" पीटर ने निर्बल आवाज से कहा "क्या तुम यह समझते हो कि इन अभागों को [ १२० ]
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क्षमा करने और इन्साफ़ की राह में कांटे बोने से मैं कोई अच्छा काम करूँगा? और जो अभागे माया जाल में फंसकर उस सर्व शक्तिमान ईश्वर को ही भूल गए हैं मेरे फायदे के लिये ईश्वर उनकी प्रार्थना अंगीकार करेगा? नहीं, हरगिज़ नहीं; जो कोई काम मुझ से ईश्वर की प्रसन्नता लायक बन पड़े तो वह यही इन्साफ़ का शुभ काम है”

“में तो आप के कहने से इन्साफ के लिये परमार्थ करना कभी नहीं छोड़ सकता " लाला मदनमोहन तमक कर कहने लगे.

“जो जिसके लिये करना चाहिये सो करना इंसाफ़ में आ गया परंतु स्वार्थ का काम परमार्थ करे कैसे हो सकता है? एक के लाभ के लिये दूसरों की अनुचित हानि परमार्थ में कैसे समझी जा सकती है? किसी तरह के स्वार्थ बिना केवल अपने ऊपर परिश्रम उठाकर, आप दुःख सहकर, अपना मन मारकर औरों को दुखी करना सच्चा धर्म समझा जाता है जैसे यूनान में कोडर्स नामी बादशाह राज करता था. उस समय यूनानियों पर हेरेकडिली लोगों ने चढ़ाई की. उस समय के लोग ऐसे अवसर पर मंदिर में जाकर हार जीत का प्रश्न किया करते थे. इसी तरह कोडर्स ने प्रश्न किया तब उसे यह उत्तर मिला कि "तू शत्रु के हाथ से मारा जायेगा तो तेरा राज स्वदेशियों के हाथ बना रहेगा और तू जीता रहेगा तो शत्रु प्रबल होता जायेगा." कोडर्स देशोपकार के लिये प्रसन्नता से अपने प्राण देने को तैयार था परंतु कोडर्स के शत्रु को भी यह बात मालूम हो गई इस लिये उसनें अपनी सेना में हुक्म दे दिया कि कोडर्स को कोई न मारे तथापि कोडर्स ने यह बात लोग दिखाई के लिये नहीं की थी. इससे वह [ १२१ ]साधारण सिपाही का भेष बना कर लड़ाई मैं लड़ मरा परन्तु अपने देशियों की स्वतन्त्रता शत्रुके हाथ न जाने दी"

"जब आप स्वतन्त्रता को ऐसा अच्छा पदार्थ समझते हैं तो आप लाला साहब को इच्छानुसार काम करने से रोककर क्यों पिंजरेका पंछी बनाया चाहते हैं ? ” मास्टर शिंभूदयाल ने कहा.

“यह स्वतन्त्रता नहीं स्वेच्छाचार है ; और इन्कों एक समझनें से लोग बारम्बार धोखा खाते हैं” लाला ब्रजकिशोर कहने लगे ‘ईश्वर में मनुष्यों को स्वतन्त्र बनाया है पर स्वेच्छाचारी नहीं बनाया क्योंकि उस्को प्रकृति के नियमों में अदलबदल करने की कुछ शक्ति नहीं दी गई वह किसी पदार्थ की स्वाभाविक शक्ति में तिलभर घटा बढ़ी नहीं करसक्ता जिन पदार्थों मैं अलग, अलग रहने अथवा रसायनिक संयोग होने से जो, जो शक्ति उत्पन्न होने का नियम ईश्वर ने बना दिया है वृद्धि द्वारा उन पदार्थों की शक्ति पहचानकर केवल उनसै लाभ लेने के लिये मनुष्य को स्वतन्त्रता मिली है इसलिये जो काम ईश्वर के निय मानुसार स्वाधीन भाव से किया जाय वह स्वतन्त्रता में समझा जाता है और जो काम उसके नियमों के विपरीत स्वाधीन भाव से किया जाय वह स्वेच्छाचार और उस्का स्पष्ट दृष्टांत यह है कि शतरंज के खेल में दोनों खिलाड़ियों को अपनी मर्जी जब चाल चलने की स्वतन्त्रता दी गई है परंतु वह लोग घोड़े को हाथी की चाल या हाथीको घोडे की चाल नहीं चल सक-और जो वे इस्तरह चलें तो उनका चलना शतरंज के [ १२२ ]खेल से अलग होकर स्वेच्छाचार समझा जायगा यह स्वेच्छाचार अत्यंत दूषित है और इस्का परिणाम महा भयङ्कर होता है इस लिये वर्तमान समय के अनुसार सब के फायदे की बातों पर सत् शास्त्र और शिष्टाचार की एकता सै बरताव करना सच्ची स्वतन्त्रता है और बड़े लोगों ने स्वतन्त्रता की यह हद बांध दी है. मनुमहाराज कहते हैं "बिना सताए काहु के धोरे धर्म्म बटोर॥ जों मृत्तिका दीमक हरत क्रम क्रमसों चहुंओर॥*"[१] महाभारत कर्णपर्व मैं युधिष्ठिर और अर्जुन का बिगाड़ हुआ उस्समय श्रीकृष्णनें अर्जुन से कहा है कि "धर्म्म ज्ञान अनुमानते अतिशय कठिन लखाय॥ एक धर्म्म है वेद यह भाषत जनसमुदाय॥ १ तामैं कछु संशय नहीं पर लख धर्म अपार॥ स्पष्टकरन हित कहुं कहूं पंडित करत विचार॥ २ जहां न पीडित होय कोउ सोसुधर्म निरधार॥ हिंसक हिंसा हरनहित भयो सुधर्म प्रचार ३†[२] प्राणिनकों धारण करे ताते कहियत धर्म्म॥ जासों जन रक्षित रहैं सो निश्चय शुभकर्म॥ ४ जे जन परसंतोष हित करैं पाप शुभजान॥ तिनसों [ १२३ ]कबहुं न बोलिये श्रुति विरुद्ध पहिचान॥ ५" x[३] इसलिये दूसरेकी प्रसन्नता के हेतु अधर्म्म करनें का किसी को अधिकार नहीं है इसी तरह अपनें या औरों के लाभ के लिये दूसरे के वाजवी हकों मैं अन्तर डालनें का भी किसी को अधिकार नहीं है जिस्समय महाराज रामचन्द्रजी ने निर्दोष जनकनंदनी का परित्याग किया जानकीजी को कुछ थोड़ा दुःख था? परंतु वह गर्भनाश के भय सै अपना शरीर न छोड़ सकीं हां जिस्तरह उन्हें अकारण अत्यंत दुःख पानें पर भी कभी रघुनाथजी के दोष नहीं विचारे थे इस तरह सब प्राणियों को अपने विषय मैं अपराधी के अपराध क्षमा करने का पूरा अधिकार है और इस तरह अपने निज के अपराधों का क्षमा करना मनुष्यमात्र के लिये अच्छे से अच्छा गुण समझा जाता है परंतु औरों को किसी तरह की अनुचित हानि हो वहां यह रीति काम मैं नहीं लाई जा सक्ती"

"मैं तो यह समझता हूं कि मुझ सै एक मनुष्य का भी कुछ उपकार हो सके तो मेरा जन्म सफल है" लाला मदनमोहन ने कहा.

"जिस्मैं नामवरी आदि स्वार्थका कुछ अंश हो वह परोपकार नहीं और परोपकार करने मैं भी किसी ख़ास मनुष्य का पक्ष किया जाय तो बहुधा उस्के पक्षपात सै औरों की हानि होने का डर रहता है इसलिये अशक्त अपाहजों का पालन पोषण करना, [ १२४ ]इन्साफ़ का साथ देना और हर तरह का स्वार्थ छोडकर सर्व साधारण के हित मैं तत्पर रहना मेरे जान सच्चा परोपकार हैं" लाला ब्रजकिशोर ने जवाब दिया.


प्रकरण १८.

क्षमा.

नरको भूषण रूप है रूपहुको गुणजान।
गुणको भूषण ज्ञान है क्षमा ज्ञान को मान ॥१॥
*[४]

सुभाषित रत्नाकरे.

"आप चाहे स्वार्थ समझैं चाहे पक्षपात समझैं हरकिशोर ने तो मुझे ऐसा चिड़ाया है कि मैं उस्सै बदला लिये बिना कभी नहीं रहूंगा" लाला मदनमोहन ने गुस्से सै कहा.

"उस्का कसूर क्या है? हरेक मनुष्य सै तीन तरह की हानि हो सक्ती है एक अपवाद करके दूसरे के यश मैं धब्बा लगाना, दूसरे शरीर की चोट, तीसरे माल का नुक्सान करना इन्में हरकिशोर ने आप की कौनसी हानि की?" लाला ब्रजकिशोर ने कहा.

लाला मदनमोहन के मन में यह बात निश्चय समा रही थी कि हरकिशोर ने कोई बड़ा भारी अपराध किया है परंतु ब्रजकिशोर ने तीन तरह के अपराध बताकर हरकिशोर का अपराध पूछा तब वह कुछ न बता सके क्योंकि मदनमोहन की वाक़फियत मैं ऐसा कोई अपराध हरकिशोर का न था. मदनमोहन

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    • धर्म्मं शनस्सं चिंनुयाइहल्मीक मिव पुत्तिका॥

    परलोक सहायार्थं सर्व भूतान्ध पीडयन्॥

  1. † दुष्करं परमं ज्ञानं तणानु व्यवस्मति॥
    श्रुतेर्धर्म इतित्द्ये के बदंति बहवोजनाः॥ १
    तत्तेन प्रत्यसूयामि नचसर्वं विधीयते॥
    प्रभवार्थार्यभूतानां धर्म प्रवचनं कृतं॥ २
    यतस्याद हिंसा संयुक्तं सधर्मइति निश्चयः॥
    अहिंसार्थाय हिंस्त्राणां धर्म प्रवचनं कृतं ॥ ३

  2. + धारणाद्धर्म मित्याहु र्धर्मो धारयते प्रजाः॥
    यत्स्या द्धारण संयुक्तं सधर्मइति निश्चयः॥ ४
    येन्यायेन जिहीर्षंतो धर्ममिच्छंति कर्हिचित्॥
    अकूजनेन मोक्षं वा नानुकूजेत् कथंचन॥ ५

  3. *नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभरणं गुणः॥
    गुणस्याभरणं ज्ञान ज्ञानस्थाभरणं क्षमा