परीक्षा गुरु २१

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प्रकरण २१.


पतिब्रता.

पतिके संग जीवन मरण पति हर्षे हर्षाय
स्नेहमई कुलनारि की उपमा लखी न जाय†[१]

शारेगधरे.

लाला ब्रजकिशोर न जानें कब तक इसी भँवर जाल मैं फंसे रहते परन्तु मदनमोहन की पतिव्रता स्त्री के पास सै उस्के दो नन्हें, नन्हें बच्चों को लेकर एक बुढ़िया आ पहुंची इस्सै ब्रजकिशोर का ध्यान बट गया.

उन बालकों की आंखों मैं नींद घुलरही थी उन्को आतेही ब्रजकिशोर ने बड़े प्यार से अपनी गोद मैं बिठा लिया और बुढिया सै कहा "इन्को इस्समय क्यों हैरान किया? देख इन्की आंखों मैं नींद घुल रही है जिस्सै ऐसा मालूम होता है कि मानो यह भी अपने बाप के काम काज की निर्बल अवस्था देखकर उदास हो रहे हैं" उन्को छाती सै लगा कर कहा "शाबास! बेटे शाबास! तुम अपनें बाप की भूल नहीं समझते तोभी उदास मालूम होते हो परन्तु वह सब कुछ समझता है तोभी तुम्हारी हानि लाभ का कुछ बिचार नहीं करता झूंटी ज़िद अथवा हठधर्मी सै तुम्हारा वाजबी हक़ खोए देता है तुम्हारे बाप को लोग बड़ा [ १५२ ]उदार और दयालु बताते हैं परन्तु वह कैसा कठोर चित्त है कि अपनें गुलाब जैसे कोमल, और गंगाजल जैसे निर्मल वालकों के साथ विश्वासघात करके उन्को जन्म भर के लिये दरिद्री बनाए देता है वह नहीं जान्ता कि एक हकदार का हक़ छीन कर मुफ्तख़ोरों को लुटा देने में कितना पाप है! कहो अब तुम्हारे वास्तै क्या मंगवायें?"

"खिनोंने" (खिलौनें) छोटे नें कहा "बप्फी" (बर्फ़ी) बड़े बोले और दोनों ब्रजकिशोर की मूंछें पकड़ कर खेंचनें लगे. ब्रजकिशोर नें बड़े प्यार सै उन्के गुलाबी गालों पर एक, एक मीठी चूमी लेली और नौकरों को आवाज़ देकर खिलौनें और बरफी लानें का हुक्म दिया.

"जी! इन्की मानें ये बच्चे आप के पास भेजे हैं" बुढ़िया बोली "और कह दिया है कि इन्को आप के पांओं मैं डाल कर कह देना कि मुझ को आप के क्रोधित होकर चले जानें का हाल सुन्कर बड़ी चिन्ता हो रही है मुझ को अपनें दुःख सुख का कुछ विचार नहीं मैं तो उन्के साथ रहनें मैं सब तरह प्रसन्न हूं परंतु इन छोट, छोटे बच्चों की क्या दशा होगी? इन्को बिद्या कौन पढ़ायगा? नीति कौन सिखायगा? इन्की उमर कैसे कटेगी? मैं नहीं जान्ती कि आप को इस कठिन समय मैं अपना मन मार कर उन्की बुद्धि सुधारनी चाहिये थी अथवा उन्को अधर धार मैं लटका कर चले जाना चाहिये था? ख़ैर! आप उन्पर नहीं तो अपनें कर्तव्य पर दृष्टि करें, अपनें कर्तव्य पर नहीं तो इन छोटे, बच्चों पर दया करें ये अपनी रक्षा आप नहीं कर सक्ते इन्का बोझ आपके सिर है आप इन्की ख़बर न लेंगे तो संसार [ १५३ ]मैं इन्का कहीं पता न लगेगा और ये बिचारे योंही झुर कर मर जायँगे?"

यह बात सुनकर ब्रजकिशोर की आंखें भर आईं थोड़ी देर कुछ नहीं बोला गया फिर चित्त स्थिर कर के कहनें लगे "तुम बहन सै कह देना कि मुझको अपना कर्तव्य अच्छी तरह याद है परन्तु क्या करूं? मैं विबस हूं काल की कुटिल गति सै मुझ को अपनें मनोर्थ के विपरीति आचरण (बरताव) करना पड़ता है तथापि वह चिन्ता न करे. ईश्वर का कोई काम भलाई सै ख़ाली नहीं होता उस्ने इस्मैं भी अपना कुछ न कुछ हित ही लोचा होगा" लड़कों की तरफ देखकर कहा "बेटे! तुम कुछ उदास मत हो जिस तरह सूर्य चन्द्रमा को ग्रहण लग जाता है इसी तरह निर्दोष मनुष्यों पर भी कभी, कभी अनायास विपत्ति आपड़ती है परंतु उस समय उन्हें अपनी निर्दोषता का विचार कर के मन मैं धैर्य रखना चाहिये"

उन अनसमझ बच्चों को इन बातों की कुछ परवा न थी बरफ़ी और खिलोनों के लालच सै उन्की नींद उड़ गई थी इस वास्तै वह तो हरेक चीज़ की उठाया धरी मैं लग रहे थे और ब्रजकिशोर पर तक़ाजा जारी था.

थोड़ी देर मैं बरफ़ी और खिलोनें भी आपहुंचे इस्समय उन्की खुशी की हद न रही. ब्रजकिशोर दोनों को बरफ़ी बांटा चाहते थे इतने मैं छोटा हाथ मार कर सब ले भागा और बड़ा उस्सै छीन्नें लगा तो सब की सब एकबार मुंह मैं रख गया. मुंह छोटा था इसलिये वह मुंह मैं नहीं समाती थी परन्तु यह खुशी भो कुछ थोडी न थी कनअंखियों से बड़े की तरफ़ देखकर [ १५४ ]मुस्कराता जाता था और नाचता जाता था वह भोली, भोली सूरत, ठुमक, ठुमक कर नाचना, छिप, छिप कर बड़े की तरफ़ देखना, सैन मारना. उस्के मुस्करानें मैं दूध के छोटे. छोटे दांतों की मोंती की सी झलक देखकर थोड़ी देर के लिये ब्रजकिशोर अपनें सब चारा बिचार भूल गए परन्तु इस्को नाचता कूदता देखकर अब लडा मचल पडा उस्ने सब खिलोनें अपनें कब्ज़े मैं कर लिये और ठिनक, ठिनक कर रोने लगा. ब्रजकिशोर उस्को बहुत समझाते थे कि "वह तुम्हारा छोटा भाई है तुम्हारे हिस्से की बरफ़ी खाली तो क्या हुआ? तुम ही जाने दो" परन्तु यहां इन्बातों की कुछ सुनाई न थी इधर छोटे खिलोनों की छीना झपटी मैं लग रहे थे! निदान ब्रजकिशोर को बड़े के वास्तै बरफ़ी और छोटे के वास्तै खिलोने फिर मगानें पड़े. जब दोनों की रज़ामन्दी हो गई तो ब्रजकिशोर ने बड़े प्यार सै दोनों की एक, एक मिट्टी (मीट्टी चूमी) लेकर उन्हें बिदा किया और जाती बार बुढ़िया को समझा दिया कि "बहन को अच्छी तरह समझा देना वह कुछ चिन्ता न करे."

परन्तु बुढिया मकान पर पहुंची जितनें वहां की तो रंगत ही बदल गई थी मदनमोहन के साले जगजीवनदास अपनी बहन को लिवा लेजाने के लिये मेरठ सै आए थे वह अपनी मा अर्थात् (मदनमोहन की सास) की तबियत अच्छी नहीं बताते थे और आज ही रात की रेल मैं अपनी बहनको मेरठ लिवा ले जाने की तैयारी करा रहे थे मदनमोहन की स्त्री के मनमैं इस्समय मदनमोहन को अकेले छोड़ कर जानें की बिल्कुल न थी परन्तु एक तो वह अपने भाई सै लज्जाके मारे कुछ नहीं कह सक्ती थी दूसरे [ १५५ ]मा की मांदगीका मामला था तीसरे मदनमोहन हुक्म दे चुके थे इस लिये लाचार होकर उस्ने दो, एक दिन के वास्ते जाने की तैयारी की थी.

मदनमोहन की स्त्री अपनें पतिकी सच्ची प्रीतिमान, शुभचिंतक, दुःख सुखकी साथन, और आज्ञा मैं रहनें वाली थी और मदनमोहन भी प्रारंभ मैं उस्सै बहुत ही प्रीति रखता था परन्तु जबसै वह चुन्नीलाल और शिंभूदयाल आदि नए मित्रोंकी संगति मैं बैठने लगा नाचरंग की धुनलगी, बेश्याओंके झूंटे हावभाव देखकर लोट पोट होगया? "अय! सुभानअल्लाह! क्या जोबन खिलरहा है!" "वल्लाह! क्या बहार आरही है?" "चश्म बद्‌दूर क्या भोली, भोली सूरत है!" "अय! परे हटो!" "मैं सदकै! मैं कुर्बान मुझे न छेड़ो!" "खुदाकी क़सम! मेरी तरफ़ तिरछी नज़र सै न देखो!" बस यह चोचलेकी बातें चित्तमैं चुभगईं किसी बातका अनुभव तो था ही नहीं तरुणाई की तरंग, शिंभूदयाल और चुन्नीलाल आदिकी संगति, द्रव्य और अधिकार के नशे मैं ऐसा चकचूर हुआ कि लोक परलोक की कुछ ख़बर न रही.

यह बिचारी सीधी सादी सुयोग्य स्त्री अब गंवारी मालूम होने लगी पहले, पहले कुछ दिन यह बात छिपी रही परन्तु प्रीति के फूलमैं कीड़ा लगे पीछे वह रस कहां रहसक्ता है? उस्समय परस्पर के मिलाप सै किसी का जी नहीं भरताथा, बातोंकी गुलझटी कभी सुलझनें नहीं पातीथी, आधी बात मुख मैं और आधी होटोंही मैं हो जातीथी, आंखसै आंख मिल्तेही दोनोंको अपने आप हँसी आजाती थी केवल हँसी नहीं उस हँसी मैं धूप छाया [ १५६ ]की तरह आधी प्रीति और आधी लज्जाकी झलक दिखाई देती थी और सञ्ची प्रीतिके कारण संसार की कोई वस्तु सुन्दरतामैं उस्सै अधिक नहीं मालूम होती थी. एककी गुप्त दृष्टि सदा दूसरे की ताक झाक मैं लगी रहती थी क्या चित्रपट देखने मैं, क्या रमणीक स्थानों की सैर करनें मैं, क्या हँसी दिल्‌लगी की बातों मैं कोई मौक़ा नोक झोक सै ख़ाली नहीं जाताथा और संसार के सब सुख अपनें प्राण जीवन बिना उन्को फीके लगते थे परन्तु अब वह बातें कहां हैं? उस्की स्त्री अबतक सब बातों मैं वैसीही दृढ है बल्कि अज्ञान अवस्था की अपेक्षा अब अधिक प्रीति रखती है परन्तु मदनमोहन का चित्त वह न रहा वह उस बिचारी सै कोसों भागता है उस्को आफ़त समझता है क्या इन् बातों से अनसमझ तरुणों की प्रीति केवल आंखों मैं नहीं मालूम होती? क्या यह उस्की बेक़दरी और झूंटी हिर्सका सबसे अधिक प्रमाण नहीं है? क्या यह जानें पीछे कोइ बुद्धिमान ऐसे अनसमझ आदमियों की प्रतिज्ञाओंका विश्वास कर सक्ता है? क्या ऐसी पवित्र प्रीतिके जोड़े मैं अंतर डालनेंवालों को बाल्मीकि ऋषि का शाप +[२] भस्म न करेगा? क्या एक हक़दार की सच्ची प्रीति के ऐसे चोरों को परमेश्वर के यहां सै कठिन दंड न होगा?

मदनमोहन की पतिव्रता स्त्री अपने पतिपर क्रोध करना तो सीखीही नहीं है मदनमोहन उस्की दृष्टि मैं एक देवता है वह अपनें ऊपर के सब दुःखों को मदनमोहन की सूरत देखते ही भूल जाती है और मदनमोहन के बड़े से बड़े अपराधों को सदा [ १५७ ]जाना न जाना करती रहती है मदनमोहन महीनों उस्की याद नहीं करता परंतु वह केवल मदनमोहन को देखकर जीती है वह अपना जीवन अपनें लिये नहीं; अपनें प्राणपति के लिये समझती है जब वह मदनमोहन को कुछ उदास देखती है तो उस्के शरीर का रुधिर सूख जाता है जब उस्को मदनमोहन के शरीर मैं कुछ पीड़ा मालूम होती है तो वह उस्की चिन्ता सै बावली बन जाती है मदनमोहन की चिन्ता सै उस्का शरीर सूखकर कांटा हो गया है उस्को अपनें खानें पीनें की बिल्कुल लालसा नहीं है परंतु वह मदनमोहन के खाने पीने की सब सै अधिक चिन्ता रखती है वह सदा मदनमोहन की बड़ाई करती रहती है और जो लोग मदनमोहन की ज़रा भी निन्दा करते हैं वह उन्की शत्रु बन जाती है वह सदा मदनमोहन को प्रसन्न रखनें के लिये उपाय करती है उस्के सन्मुख प्रसन्न रहती है अपना दुःख उस्को नहीं जताती और सच्ची प्रीति सै बड़प्पन का विचार रखकर भय और सावधानी के साथ सदा उस्की आज्ञा प्रतिपालन करती रहती है.

थोड़े ख़र्च मैं घर का प्रबंध ऐसी अच्छी तरह कर रक्खा है कि मदनमोहन को घर के कामों मैं ज़रा परिश्रम नहीं करना पड़ता जिस्पर फुर्सत के समय ख़ाली बैठकर और लोगों की पंचायत और स्त्रिओं के गहनें गांठे की थोथी बातों के बदले कुछ, कुछ लिखनें पढ़नें, कसीदा काढ़नें और चित्रादि बनानें का अभ्यास रखती है बच्चे बहुत छोटे हैं परंतु उन्को खेल ही खेल मैं अभी सै नीति के तत्व समझाए जाते हैं ओर बेमालूम रीति सै धीरे, धीरे हरेक वस्तु का ज्ञान बढ़ाकर ज्ञान बढ़ाने की उन्की [ १५८ ]स्वाभाविक रुचिको उत्तेजन दिया जाता है परंतु उन्के मनपर किसी तरह का बोझ नहीं डाला जाता उन्के निर्दोष खेलकूद और हंसनें बोलनें की स्वतन्त्रता मैं किसी तरहकी बाधा नहीं होनें पाती.

मदनमोहन की स्त्री अपनें पतिको किसी समय मौकेसै नेक सलाह भी देती है परन्तु बडोंकी तरह दबाकर नहीं; बराबर वालों की तरह झगड़ कर नहीं, छोटों की तरह अपनें पतीकी पदवीका विचार करके, उन्के चित्त दुःखित होनें का विचार करके, अपनी अज्ञानता प्रगट करके, स्त्रिओंकी ओछी समझ जता कर धीरजसै अपना भाव प्रगट करती है परन्तु कभी लोटकर जवाब नहीं देती, विवाद नहीं करती. वह बुद्धिमती चुन्नीलाल और शिंभूदयाल इत्यादि की स्वार्थपरतासै अच्छी तरह भेदी है परन्तु पतिकी ताबेदारी करना अपना कर्तव्य समझ कर समयकी वाट देख रही है और ब्रजकिशोर को मदनमोहनका सच्चा शुभचिंतक जान्कर केवल उसी सै मदनमोहनकी भलाईकी आशा रखती है. वह कभी ब्रजकिशोर सै सन्मुख होकर नहीं मिली परन्तु उस्को धर्म्मका भाई मान्ती है और केवल अपनें पतिकी भलाईके लिये जो कुछ नया वृतान्त कहलानें के लायक़ मालूम होता है वह गुपचुप उस्सै कहला भेजती है. ब्रजकिशोर भी उस्को धर्म की बहन समझता है इस कारण आज ब्रजकिशोरके अनायास क्रोध करके चले जानें पर उसनें मदनमोहनके हक़मैं ब्रजकिशोरकी दया उत्पन्न करनें के लिये इस्समय अपने नन्हें बच्चोंको टहलनीके साथ ब्रजकिशोरके पास भेज दिया था परन्तु वह लोटकर आए जितनें अपनी ही मेरठ जाने की तैयारी होगई और रातों रात वहां जाना पड़ा.


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  1. † जीवति जीवति नाथे मृतेमृता या मुदायुता मुदिते॥
    सहजस्नेह रसाला कुलबनिता केन तुल्यास्‌यात्॥
  2. + मानिषाद प्रतिष्ठां त्वपगमः साश्वतीः सनाः॥
    यत्‌क्रौंचमिथुना देकमवधीः काममोहितम्॥