सामग्री पर जाएँ

परीक्षा गुरु २७

विकिस्रोत से

सहायता के लिये चिट्ठी लिखता हूं मुझको विश्वास है कि उन्की तरफ़ से पूरी सहायता मिलेगी परन्तु सब सै पहले ब्रजकिशोर के नाम चिट्ठी लिखूंगा कि अब वह मुझको अपना काला मुंह जन्म भर न दिखलाय" यह कह कर लाला मदनमोहन चिट्ठियां लिखनें लगे.


 

प्रकरण २७.


लोक चर्चा (अफ़वाह)

निन्दा, चुगली, झूंठ अरु पर दुखदायक बात।
जे न करहिं तिन पर द्रवहिं सर्वेश्वर बहुभांत॥+[]

विष्णुपुराणे.

उस तरफ़ लाला ब्रजकिशोर नें प्रातःकाल उठ कर नित्य नियम सै निश्चिन्त होतेही मुन्शी हीरालाल को बुलानें के लिये आदमी भेजा.

हीरालाल मुन्शी चुन्नीलाल का भाई है यह पहले बंदोबस्त के महकमे मैं नौकर था जब सै वह काम पूरा हुआ; इस्की नौकरी कहीं नहीं लगी थी.

"तुमनें इतने दिन सै आकर सूरत तक नहीं दिखाई घर बैठे क्या किया करते हो?" हीरालाल को आते ही ब्रजकिशोर कहनें लगे "दफ़्तर मैं जाते थे जब तक तो ख़ैर अवकाश ही न था परन्तु अब क्यों नहीं आते?"

"हुज़ूर! मैं तो हरवक्त हाज़िर हूं परन्तु बेकाम आनें मैं शर्म आती थी आज आपनें याद किया तो हाज़िर हुआ फ़रमाइये क्या हुक्म है?" हीरालाल ने कहा.

"तुम ख़ाली बैठे हो इस्की मुझे बड़ी चिन्ता है तुह्मारे बिचार सुधरे हुए हैं इस्सै तुमको पुरानें हक़ का कुछ ख़याल हो या न हो (!) परन्तु मैं तो नहीं भूल सक्ता तुह्मारा भाई जवानी की तरंग मैं आकर नौकरी छोड़ गया परन्तु मैं तो तुम्हें नहीं छोड सक्ता. मेरे यहां इन दिनों एक मुहर्रिर की चाह थी सब सै पहले मुझको तुम्हारी याद आई (मुस्करा कर) तुह्मारे भाई को दस रुपे महीना मिलता था परन्तु तुम उस्सै बड़े हो इसलिये तुम को उस्सै दूनी तनख्वाह मिलेगी"

"जी हां! फिर आप को चिन्ता न होगी तो और किस्को होगी? आप के सिवाय हमारा सहायक कौन है? चुन्नीलाल नें निस्संदेह मूर्खता की परन्तु फ़िर भी तो जो कुछ हुआ आप ही के प्रताप से हुआ." "नहीं मुझको चुन्नीलाल की मूर्खता का कुछ बिचार नहीं है मैं तो यही चाहता हूं कि वह जहां रहै प्रसन्न रहै. हां मेरी उपदेश की कोई, कोई बात उस्को बुरी लगती होगी परन्तु मैं क्या करूं? जो अपना होता है उस्का दर्द आता ही है"

"इस्मैं क्या सन्देह है? जो आप को हमारा दर्द न होता तो आप इस समय मुझको घर सै बुलाकर क्यों इतनी कृपा करते? आपका उपकार मान्नें के लिये मुझ को कोई शब्द नहीं मिल्ते परन्तु मुझ को चुन्नीलाल की समझ पर बड़ा अफ़सोस आता है की उस्नें आप जैसे प्रतिपालक के छोड़ जानें की ढिठाई की. अब वह अपनें किये का फल पावेगा तब उस्की आखें खुलेंगी"

"मैं उस्के किसी, किसी काम को निस्सन्देह नापसन्द करता हूं परन्तु यह सर्बथा नहीं चाहता कि उस्को किसी तरह का दुःख हो"

"यह आप की दयालुता है परन्तु कार्य कारण के सम्बन्ध को आप कैसे रोक सक्ते हैं? आज लाला मदनमोहन पर तकाज़ा होगया. जो ये लोग आप का उपदेश मान्ते तो ऐसा क्यों होता?"

"हाय! हाय! तुम यह क्या कहते हो? मदनमोहन पर तकाज़ा होगया! तुमनें यह बात किस्सै सुनी? मैं चाहता हूं कि परमेश्वर करे यह बात झूंट निकले" लाला ब्रजकिशोर इतनी बात कह कर दुःख सागर मैं डूब गए उन्के शरीर मैं बिजली का सा एक झटका लगा, आखों मैं आंसू भर आए, हाथ पांव शिथिल होगए. मदनमोहन के आचरण सै बड़े दुःख के साथ वह यह परिणाम पहले ही समझ रहे थे इस लिये उन्को उस्का जितना दुःख होना चाहिये पहले होचुका था तथापि उन्को ऐसी जल्दी इस दुखदाई ख़बर के सुन्नें की सर्बथा आशा न थी इस लिये यह ख़बर सुन्ते ही उन्का जी एक साथ उमड आया परन्तु वह थोड़ी देर मैं अपनें चित्तका समाधान करके कहनें लगेः—

"हा! कल क्या था! आज क्या होगया!! शृंगाररसका सुहावनां समां एका एक करुणा सै बदलगया! बेलजिअम की राजधानी ब्रसेलस पर नैपोलियन नें चढाई कीथी उस्समय की दुर्दशा इस्समय याद आती है, लार्डबायरन लिखता है:—

"निशि मैं बरसेलस गाजि रह्यो॥
बल, रूप बढाय विराजि रह्यो
अति रूपवती युक्ती दरसैं॥
बलवान सुजान जवान लसैं
सब के मुख दीपनसों दमकैं॥
सब के हिय आनँद सों धमकैं
बहुभांति बिनोद प्रमोद करैं॥
मधुरे सुर गाय उमंग भरैं
जब रागन की मृदु तान उड़ैं॥
प्रियप्रीतम नैनन सैन जुड़ैं
चहुंओर सुखी सुख छायरह्यो॥
जनु ब्याहन घंट निनाद भयो
पर मौनगहो! अबिलोक इतै!॥
यह होत भयानक शब्द कितै?
डरपौ जिन चंचल बायु बहै॥
अथवा रथ दौरत आवत है
प्रिय! नाचहु, नाचहु ना ठहरो॥
अपनें सुख की अवधी न करो
जब जोबन और उमंग मिलैं॥
सुख लुटन को दुहु दोर चलैं
तब नींद कहूं निशआवत है?॥
कुछ औरहु बात सुहावत है?

पर कान लगा; अब फेर सुनो॥
वह शब्द भयानक है दुगनो!
घनघोरघटा गरजी अब ही॥
तिहँ गूंज मनो दुहराय रही
यह तोप दनादन आवत हैं॥
ढिंग आवत भूमि कँपावत हैं
"सब शस्त्रसजो, सब शस्त्रसजो"॥
घबराट बढो सुख दूर भजो
दुखसों बिलपैं कलपैं सबही॥
तिनकी करुणा नहिं जाय कही
निज कोमलता सुनि लाज गए॥
सुकपोल ततक्षण पीत भए
दुखपाय कराहि बियोग लहैं॥
जनु प्राण बियोग शरीर सहैं
किहिं भांति करों अनुमान यहू॥
प्रिय प्रीतम नैन मिलैं कबहू?
जब वा सुख चैनहि रात गई॥
इहिं भांत भयंकर प्रात भई!!!" +[]

हां यह खबर तुमनें किस्सै सुनी?"

"चुन्नीलाल अभी घर भोजन करनें आया था वह कहता था"

"वह अबतक घर हो तो उसे एक बार मेरे पास भेज देना हम लोग खुशी प्रसन्नतामैं चाहे जितनें लडते झगडते रहें परन्तु दुःख दर्द सबमैं एक हैं. तुम चुन्नीलाल, सै कह देना कि मेरे पास आनें मैं कुछ संकोच न करे मै उस्सै ज़रा भी अप्रसन्न नहीं हूं" "राम, राम! यह हज़ूर क्या फरमाते हैं? आप की अप्रसन्नता का विचार कैसे हो सक्ता है? आप तो हमारे प्रतिपालक है. मैं जाकर अभी चुन्नीलाल को भेजता हूं वह आकर अपना अपराध क्षमा करायगा और चला गया होगा तो शामको हाजिर होगा" हीरालालने उठते उठते कहा.

"अच्छा! तुम कितनी देर मैं आओगे?"

"मैं अभी भोजन करके हाजिर होता हूं" यह कह कर हीरालाल रुखसत हुआ.

लाला ब्रजकिशोर अपनें मनमैं बिचारनें लगे कि "अब चुन्नीलाल सै सहज मैं मेल हो जायगा परन्तु यह तक़ाज़ा कैसे हुआ? कल हरकिशोर क्रोधमैं भर रहा था इस्सै शायद उसीनें यह अफ़वा फैलाई हो उस्नें ऐसा किया तो उस्के क्रोधनें बड़ा अनुचित मार्ग लिया और लोगोंनें उस्के कहने में आकर बडा धोका खाया.

"अफ़वा वह भयंकर बस्तु है जिस्सै बहुत से निर्दोष दूषित बन जाते हैं. बहुत लोगोंके जोमैं रंज पड जाते हैं बहुत लोगों के घर बिगड जाते हैं. हिन्दुस्थानियोंमैं अबतक बिद्याका ब्यसन नहीं है समय की क़दर नहीं है भले बुरे कामों की पूरी पहचान नहीं है इसी सै यहांके निवासी अपना बहुत समय औरों के निज की बातों पर हाशिया लगानें मैं और इधर उधरकी ज़टल्ल हांकनें मैं खो देतेहैं जिस्से तरह, तरह की अफ़वाएं पैदा होती हैं और भलेमानसोंकी झूंटी निंदा अफ़वाकी ज़हरी पवन मैं मिल्कर उन्के सुयशको धूंधला करती है इन अफवा फैलानें वालोंमैं कोई, कोई दुर्जन खानें कमानें वाले हैं कोई कोई दुष्ट बैर और जलन सै औरों की निन्दा करनें वाले हैं और कोई पापी ऐसे भी हैं जो आप किसी तरह की योग्यता नहीं रखते इस लिये अपना भरम बढानें को बडे बडे योग्य मनुष्यों की साधारण भूलों पर टीका करकै आप उन्के बराबर के बना चाहते हैं अथवा अपना दोष छिपानें के लिये दुसरे के दोष ढुंडते फिरते हैं या किसी की निंदित चर्चा सुन्कर आप उस्सै जुदे बन्नें के लिये उस्की चर्चा फैलानें में शामिल होजाते हैं या किसी लाभदायक बस्तु सै केवल अपना लाभ स्थिर रखनें के लिये औरों के आगे उस्की निंदा किया करते हैं पर बहुतसै ठिलुए अपना मन बहलानें के लिये औरों की पंचायत ले बैठते हैं बहुतसै अन्समझ भोले भावसै बात का मर्म जानें बिना लोगोंकी बनावट मैं आकर धोका खाते हैं जो लोग औरों की निंदा सुन्कर कांपते हैं वह आप भी अपनें अजानपनें मैं औरोंकी निंदा करते हैं! जो लोग निर्दोष मनुष्यों की निंदा सुन्कर उन्पर दया करते हैं वह आप भी धीरे सै, कान मैं झुककर, औरों सै कहनें के वास्तै मनै करकर, औरोंकी निंदा करते हैं! जिन लोगोंके मुख से यह वाक्य सुनाई देते हैं कि "बड़े खेद की बात है" "बड़ी बुरी बात है" बड़ी लज्जा की बात है" "यह बात मान्नें योग्य नहीं" "इस्मैं बहुत संदेह है" "इन्बातों सै हाथ उठाओ" वह आप भी औरों की निंदा करते हैं! वह आप भी अफ़वाह फैलानें वालोंकी बात पर थोड़ा बहुत विश्वास रखते हैं! झूंटी अफ़वासै केवल भोले आदमियों के चित्त पर ही बुरा असर नहीं होता वह सावधान सै सावधान मनुष्यों को भी ठगती है. उस्का एक, एक शब्द भले मानसों की इज्जत लूटता है कल्पद्रुम मैं कहा है "होत चुगल संसर्ग ते सज्जन मनहुं विकार॥ कमल गंध वाही गलिन धूर उड़ावत ब्यार॥[]* "जो लोग असली बात निश्चय किये बिना केवल अफ़वाके भरोसे किसी के लिये मत बांध लेते हैं वह उस्के हक़ मैं बडी बेइन्साफ़ी करते हैं, अफ़वा के कारण अबतक हमारे देशको बहुत कुछ नुक्सान हो चुका है नादिरशाहसै हारमान्कर मुहम्मदशाह उसै दिल्ली मैं लिवा लाया तब नगर निवासियोंनें यह झूंटी अफ़वा उड़ा दी की नादिरशाह मरगया. नादिरशाह नें इस झूंटी अफ़वा को रोक नें के लिये बहुत उपाय किये परन्तु अफ़वा फैले पीछे कब रुकसक्ती थी! लाचार होकर नादिरशाहनें बिज़न बोल दिया. दोपहरके भीतर भीतर लाख मनुष्यों सै अधिक मारे गए! तथापि हिन्दुस्थानियों की आंख न खुली.

"हिन्दुस्थानियों को आज कल हर बात मैं अंग्रेजों की नक़ल करनें का चस्का पड रहा है तो वह भोजन बस्त्रादि निरर्थक बातों की नक़ल करनें के बदले उन्के सच्चे सद्गुणों की नक़ल क्यों नहीं करते? देशोपकार, कारीगरी और ब्यापारादि मैं उन्की सी उन्नति क्यों नहीं करते? अपना स्वभाव स्थिर रखनें मैं उन्का दृष्टांत क्यों नहीं लेते? अंग्रेजों की बात चीत मैं किसी की निजकी बातों का चर्चा करना अत्यंत दूषित समझा जाता है. किसीकी तन्ख्वाह या किसी की आमदनी, किसी का अधिकार या किसी का रोज़गार, किसी की सन्तान या किसी के घर का बृतान्त पूछनें मैं, पूछा होय तो कहने मैं कहा होय तो सुन्नें मैं वह लोग आनाकानी करते हैं और किसी समय तो किसी का नाम, पता और उन पूछना भी विटाई समझा जाता है अपनें निज के सम्बन्धियों की निज की बातों सै भी अजान रहना वह लोग बहुधा पसंद करते हैं रेल मैं, जहाज़ मैं खानें पीनें के जलसों मैं, पास बैठनें मैं और बात चीत करने मैं जान पहचान नहीं समझी जाती. वह लोग किराए के मकान मैं बहुत दिन पास रहनें पर बल्कि दुःख दर्द मैं साधारण रीति सै सहायता करनें पर भी दूसरे की निज बातों सै अजान रहते हैं. जबतक जान पहचान स्थिर रखनें के लिये दूसरे की तरफ़ से सवाल न हो, अथवा किसी तीसरे मनुष्य नें जान पहचान न कराई हो, नित्य की मिला भेटी और साधारण रीति सै बात चीत होनें पर भी जान पहचान नहीं समझी जाती और जान पहचान हुए पीछै भी मित्रता होनें मैं बडी देर लगती है क्योंकि वह लोग स्वभाव पहचानें बिना मित्रता नहीं करते पर मित्रता हुए पीछै भी दूसरे की निज की बातों सै अजान रहना अधिक पसन्द करते हैं. उन्के यहां निज की बातों के पूछनें की रीति नहीं है उन्को देश सम्बन्धी बातैं करनें का इतना अभ्यास होता है कि निज के वृतान्त पूछनें का अवकाश ही नहीं मिल्ता परंतु निज की बातों सै अजान रहनें के कारण उन्की प्रीति मैं कुछ अन्तर नहीं आता. मनुष्य का दुराचार साबित होनें पर वह उसै तत्काल छोड देते हैं परंतु केवल अफ़वा पर वह कुछ ख्याल नहीं करते बल्कि उस्का अपराध साबित न हो जबतक वह उस्को अपना बचाव करनें के लिये पूरा अवकाश देते हैं और उचित रीति सै उस्का पक्ष करते हैं."


This work is in the public domain in the United States because it was first published outside the United States (and not published in the U.S. within 30 days), and it was first published before 1989 without complying with U.S. copyright formalities (renewal and/or copyright notice) and it was in the public domain in its home country on the URAA date (January 1, 1996 for most countries).

 
  1. + परापवादपैशुन्य मनृतं च न भाषते।
    अन्धद्विगकरं चापि तोष्यते तेन केशवः॥

  2. x There was a sound of revelry by night,
    And Belgium's capital had gathered then
    Her Beauty and her Chivalry, and bright
    The lamps shone o'er fair women and brave men;
    A thousand hearts beat happily; and when
    Music arose with its voluptuous swell,
    Soft eyes look'd love to eyes which spake again,
    And all went merry as a marriage bell;
    But, hush! hark! a deep sound strikes like a rising knell!
    Did ye not hear it?—No;'t was but the wind,
    Or the car rattling o'er the stony street;
    On with the dance! let joy be unconfined,
    No sleep till morn, when, Youth and Pleasure meet
    To chase the glowing hours with flying feet-
    But hark!-that heavy sound breaks in once more,
    As if the clouds its echo would repeat;
    And nearer, clearer, deadlier, than before!
    Arm! arm! it is- it is- the cannon's opening roar!
    Ah! then and there was hurrying to and fro,
    And gathering tears and tremblings of distress,
    And cheeks all pale, which but an hour ago
    Blush'd at the praise of their own loveliness;
    And there were sudden partings, such as press
    The life from out young hearts, and choking sighs
    Which ne'er might be repeated: who would guess
    If ever more should meet those mutual eyes,
    Since upon night so sweet such awful morn should rise!

    Lord Byron.

    • सुजनाना मपित्हृदयं पिशुनपरिषवंगलिप्त मिह भवति।

    पवनः परागवाही रथ्यासुवहन् रजखलो भवति॥