परीक्षा गुरु ३५

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प्रकरण ३५.

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स्तुति निन्दाका भेद.

बिनसत बार न लागही ओछे जनकी प्रीति॥

अंबर डंबर सांझके अरु बारूकी भींति॥
सभाविलास.
 

दूसरे दिन सवेरे लाला मोदनमोहन नित्य कृत्य सै निबटकर अपनें कमरे मैं इकल्ले बैठे थे. मन मुर्झा रहा था किसी काम मैं जी नहीं लगता था एक, एक घड़ी एक, एक बरस के बराबर बीतती थी इतनें मैं अचानक घड़ी देखनें के लिये मेज़पर दृष्टि गई तो घड़ी का पता न पाया. हें! यह क्या हुआ! रातको सोती बार जेबसै निकालकर घड़ी रक्खी थी फिर इतनी देर मैं कहां चली गई! नौकरों सै बुलाकर पूछा तो उन्होनें साफ़ जवाब दिया कि "हम क्या जानें आपनें कहां रक्खी थी? जो मौकूफ़ करना हो तो यों ही करदैं बृथा चोरी क्यों लगाते हैं" लाचार मदनमोहन को चुप होना पड़ा क्योंकि आप तो किसी जगह आनें जाने लायक़ ही न थे सहायता को कोई आदमी पास न रहा लाला जवाहरलाल की तलाश कराई तो वह भी घर सै अभी नहीं आए थे लाला मदनमोहनको अपाहजों की तरह अपनी hपराधीन दशा देखकर अत्यंत दुःख हुआ परन्तु क्या कर सक्ते थे? उन्के भाग्य सै उन्का दुःख बटानें के लिये इस्समय बाबू बैजंनाथ आ पहुंचे उन्को देखकर लाला मदनमोहन के शरीर मैं प्राण आगया. [ २५४ ]लाला मदनमोहनने आंखों सें आंसू बहाकर उन्सै अपना सब दु:ख कहा और अंत में अपनी घडी जानें का हाल कह कर इस काम मैं सहायता चाही.

“आपका हाल सुन्कर मुझको बहुत खेद होता है मुझे चुन्नीलाल आदि की तरफ सै सर्वथा ऐसा भरोसा न था इसी तरह आप अपनें काम कांज सै इतनें वे खबर होंगे यह भी उम्मेद न थी” बाबू बैजनाथ नें काम बिगड़े पीछे अपनी आदत मूजिब सबकी भूल निकालकर कहा "मैंनें तो अख़बारों मैं आपके नाम की धूम मचा दी थी परंतु आप अपनें काम ही की सम्हाल न रक्खें तो मैं क्या करूंं? महाजनी काम मुझको नहीं आता और इतना अवकाश भी नहीं मिलता. मैं घडीका पता लगानें के लिए उपाय करता परंतु आजकल रेल पर काम बहुत है इस्सै मैं लाचार हूं. मेरे निकट इस्समय आपके लिये यही मुनासिब है कि आप इन्साल्वन्ट होंनें की दरखास्त दे दै."

"अच्छा! बाबू साहब! आपसैं और कुछ नहीं हो सक्ता तो आप केवल इतनीही कृपा करें कि मेरी घडी जानें कि रपट कोतवाली मैं लिखाते जायँ" लाला मदनमोहननें, गिड़गिड़ाकर कहां

“मैं रेलवे कम्पनी का नौकर हुंं इस वास्ते कोतवाली मैं रिपोर्ट नहीं लिखा सक्ता बलिक प्रगट होकर किसी काम मैं आप को कुछ सहायता नहीं दे सक्ता मुझ सै निज मैं आपकी कुछ सहायता हो सकेगी तो मैं बाहर नहीं हूं परंतु आप मुझ सै किसी जाहरी काम के वास्तै कहकर मुझसे अधिक लज्जित न करें और अंत मैं मैं आपको इतनी ही सलाह देता हूं कि "आप [ २५५ ] लाला ब्रजकिशोर पर विश्वास रखकर उस्के बसमें न हो जायँ बल्कि उसको अपनें बस मैं रखकर अपना काम आप करते रहैं”

"सच है यह समय किसी पर विश्वास रखनें का नहीं है। जो लोग अपने मतलब की बार सच्चे मित्र बनकर मेरे पसीनेंकी जगह खून डालनें को तैयार रहते थे मतलब निकल जाने सै आज उन्की छाया भी नहीं दिखाई देती. सत्सम्मति देना तो अलग रहा मेरे पास खड़े रहनें तक के साथी नहीं होते. जो लोग किसी समय मेरी मुलाक़ात के लिये तरस्ते थे वह अब तीन; तीन बार बुलाने से नहीं आते मेरे पास आनें जानें सै जिन् लोगों की इज्जत बढ़ती थी वह आज मुझ सै किसी तरह संबंध रखनें मैं लजाते हैं” लाला मदनमोहननें भरमा भरमी इतनी बात कहकर अपनी छाती का बोझ हल्का किया.

“यह तो सच है जिसका प्रयोजन होता है उसै उचित अनुचित बातोंका कुछ बिचार नहीं रहता” बाबू बैजनाथनें जैसे का तैसा जवाब दिया और थोड़ी देर इधर उधर की बातें करके रुखसत हुआ.

लाला मदनमोहन बड़े चकित थे कि हे! परमेश्वर! यह क्या भेद है मेरी दशा बदलते ही सब संसार के विचार कैसे बदल गए. और जिन्नै मेरा किसी तरह का संबंध न था वह भी मुझ को अकारण क्यों तुच्छ समझनें लगे? मेरे नर्म होनें पर भी बेप्रयोजन मुझ सैं क्यों लड़ाई झगड़ा करनें लगे? जिन लोगों को मेरी योग्यता और सावधानी के सिवाय अब तक कुछ नहीं दिखाई देता था उन्को अब क्यों मेरे दोष दृष्टि आनें लगे? लाला मदनमोहन इन बातों का विचार कर रहे थे इतनें मैं लाला [ २५६ ] ब्रजकिशोर वहां जा पहुंंचे और मदनमोहन नें अपनें मन का सब संदेह उन्हें कह सुनाया.

"एक तो ज़ो लोग प्रथम स्वार्थबस प्रीति करते हैं उन्की कलई ऐसे अवसर पर खुल जाती है. दूसरे साधारण लोगों की स्तुति निन्दा कुछ भरोसे लायक़ नहीं होती वह किसी बात का तत्व नहीं जान्ते प्रगट मैं जैसी दशा देखते हैं वैसा ही कहनें लगते हैं बल्कि उसीके अनुसार बरताव करते हैं इस्सै साधारण लोगों की प्रतिष्ठा योग्यताके अनुसार नहीं होती द्रव्य अथवा जाहरदारी के अनुसार होती है और द्रव्य अथवा जाहरदारीके परदे तले घोर पापी अपने पापोंको छिपाकर क्रम, क्रम सै प्रतिष्ठित लोगों मैं मिल सकता है बल्कि प्रतिष्ठित लोगों मैं मिलना क्या? कोई पूरा चालाक मनुष्य हो तब तो वह द्रव्य के भरम और जाहर दारी के बरताव सै द्रव्य तक पैदा कर सकता है! ऐसा मनुष्य पहले अपनें द्रव्य अथवा योग्यता का झूटा प्रपंच फैला कर लोगोंके मनमें अपना विश्वास बैठाता है और विश्वास हुए पीछै कमाई की अनेक राह सहज मैं उस्के हाथ आ जाती है लोग उस्को अपनें आप धीरनें लगते हैं कभी, कभी ऐसे मनुष्य अपनी धूर्तता सै सच्चे योग्य अथवा धनविनों सै बढकर काम बना लेते हैं यद्यपि अंत मैं उन्की कलई बहुधा खुल जाती है परंतु साधारण लोग केवल बर्तमान दशा पर दृष्टि रखते हैं. जिस्समय जिसकी उन्नति देखते हैं उन्नति का मूल कारण निश्चय किये बिना उस्की बडाई करनें लगते हैं उस्के सब काम बुद्धिमानी के समझते हैं इसी तरह जब किसी की प्रगट मैं अवनति दिखाई देती है तो वह उसकी मूर्खता समझते हैं और उसके गुणों मैं भी [ २५७ ] दोषारोप करनें लगते हैं! उस्समय उन्को उस्की भूलही भूल दृष्टि आती है सो आप प्रत्यक्ष देख लीजिये कि जब तक सर्व साधारणको प्रगट मैं आपकी उन्नतिका रूप दिखाई देता था. आपका द्रव्य, आपका वैभव, आपका यश, आपकी उदारता, आपका सीधापन, आपकी मिलन्सारी, देखकर वह आपका आचरण अच्छा समझते थे आपकी बुद्धिमानीकी प्रशंसा करते थे आपसै प्रीति रखते थे. जब आपको यह झटका लगा प्रगट मैं आपकी अवनति का सामान दिखाई देनें लगा झट उन्की राह बदल गई आपके बडप्पन के बदले उन्के मन मैं धिक्कार उत्पन्न हुआ आप की अतिब्ययशीलता, अदूरदुष्टि, अप्रबन्ध और आत्मसुखपरायणता आदि दोष उन्को दिखाई देने लगे. आपके बने रहनें पर उन लोगोंको आप सै जो, जो आशाएँ थीं और उन आशाओं के कारण आपसै स्वार्थपरता की जितनी प्रीति थी वह उन आशाओं के नष्ट होते ही सहसा छाया के समान उन्के हृदयसै जाती रही बल्कि आशा भंग होनें का एक प्रकार खेद हुआ फिर जब साधारण लोगों का यह अभिप्राय हो, मुन्शी चुन्नीलाल, शिंभूदयाल आदि आपको यों अकेला छोडकर चले जायं तब आपके छोटे नौकर निडर होकर आपके मालकी लूट मचानें लगें जो चीज जिस्के पास हो वह उस्का मालिक बन बैठे इस्मैं कौन आश्चर्य है?

"अच्छा! अब आगे के लिये आप कहैं जैसे करूंं इस्का कुछ प्रबन्ध तो अवश्य होना चाहिये" लाला मदनमोहन नें गिडगिडा कर कहा.

इस्पर लाला ब्रजकिशोर घर के सब नौकरों को धमका कर [ २५८ ] बड़े क्रोधसै कहनें लगे "आज सवेरे सै इस कमरे के भीतर कौन, कौन आया था उन सबके नाम लिखवाओ मैं अभी कोतवाली को रुक्का लिखता हूं वह सब हवालात मैं भेज दिये जायंगे और उन्के मकानों की उन्के संबन्धियों समेत तलाशी ली जायगी जिन्के घर सै कोई चीज़ चोरी की निकलेगी या जिनपर और किसी तरह चोरी का अपराध साबित होगा उन्को ताजी रात हिन्द की दफै ४०८ के अनुसार सात बरस तक की कैद और जुर्माने का दण्ड भी हो सकेगा”

“अजी महाराज! एक मनुष्य के अपराध सै सबको दण्ड हो यह तो बड़ा अनर्थ है” बहुतसे नौकर गिडगिडा कर कहनें लगे” हम लोग अबतक लाला साहब के यहां बेटा बेटी की तरह पले हैं इस्सै अब ऐसी ही मर्जी हो तो हमको मौकूफ कर दीज़िये परन्तु बदनामी का टीका लगा कर और जगह के कमानें खानें का रस्ता तो बन्द न कीजिये.”

“हां हां यह तो सफाई सै निकल जानें का अच्छा ढंग है परन्तु इस्तरह तुम्हारा पीछा नहीं छुटगा जो तुम लाला साहब के यहां बेटा बेटी की तरह पले हो तो तुमको इस्समय यह बात कहनी चाहिये? तुम इस्समय लाला साहब सै अलग होनें में अपना लाभ समझते हो परन्तु यह तुम्हारी भूल है इस्मैं तुम उल्टे फस जाओगे" लाला ब्रजकिशोर नें सिंह की तरह गर्ज कर कहा.

"अच्छा! हम को सांझ, तककी छुट्टी दीजिये हमसै हो सकेगा जहां तक हम घड़ी का पता लगावेंगे” नौकरोंने जवाब दिया. [ २५९ ]“तुम लोग यह बहाना करके अपनें घर सै चोरी का माल दूर किया चाहते हो परन्तु मैं घड़ी का पता लगाये बिना तुम को कभी ढीला नहीं छोडूंगा, मैं अभी कोतवाली को रुक्का लिखता हूंं” यह कह कर लाला ब्रजकिशोर सचमुच रुक्का लिखनें लगे.

जिन लोगोंनें सवेरे मदनमोहन की बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया था वही इसमय ब्रजकिशोर की ज़रा सी धमकी सै मदनमोहन के पांव पकड़ कर रोनें लगे. तुलसी दासजी नें सच कहा है “शूद्र गमार ढोल पशु नारी। सकल ताड़नाके अधिकारी॥"

“भाई! इन्को सांझ तक अवकाश दे दो जो तुम अब करना चाहते हो सांझ हो कर लेना" लाला मदनमोहन नें पिंगल कर अथवा किसी गुप्त कारण सै दब कर कहा.

"आप को किसीकी रिआयत हो तो आप निज मैं भले ही उन्को कुछ इनाम दे दैं परन्तु प्रबन्ध के कामों मैं इस तरह अपराधियों पर दया करके अपनें हाथ सै प्रबन्ध न बिगाड़ें ये लोग आपका क्या कर सक्ते हैं? मनुस्मृति मैं कहा है "दंड बिषै संभ्रम भये बर्ण दोष है जाय। मचै उपद्रव देश मैं सब मर्याद नसाय॥" * सादी कहते हैं “पापिन मांहि दया है ऐसी। सज्जन संग क्रूरता जैसी।" लाला ब्रजकिशोर ने कहा.

“खैर! कुछ हो आज का दिन तो इन्को छोड दीजिये” लाला मदनमोहन नें दबा कर कहा.


 * दुष्ये युः सर्दवर्णा भिद्देरन् सर्वसेतव:॥

सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्व विक्भभमात्॥

† निकोई बाबदा कर्दन् चुनानस्त की बदकर्दन बजाय नेकमदां॥

[ २६० ] “बहुत अच्छा! जैसी आप की मर्जी" ब्रजकिशोर नें रुखाई सै जबाब दिया, “मुझको मित्रों की तरफ सै सहायता मिलनें का विश्वास है परन्तु दैवयोग सै न मिली तो क्या इन्सालवन्ट होनें की दर ख्वास्त देनी पड़ेगी” लाला मदनमोहननें पूछा.

“अभी तो कुछ ज़रूरत नहीं मालूम होती परन्तु ऐसा विचार किया भी जाय तो आपके लेन देन और माल अस्बाब का कागज कहां तैयार है?" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया. और कचहरी जाने के लिये मदनमोहन सै रुख्सत होकर रवानें हुए.

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प्रकरण ३६.

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धोके की टट्टी

बिपत बराबर सुख नहीं जो थोरे दिन होय

इष्ट मित्र बन्धू जिते जाल परैं सब कोय॥
लोकोक्ति,
 

लाला ब्रजकिशोर के गए पीछे मदनमोहन की फिर वही दशा होगई दिन पहाड सा मालूम होनें लगा खास कर डाक की बडी तला मली लगरही थी निदान राम, राम करके डाक का समय हुआ डाक आई. उस्मैं दो तीन चिट्ठी खैर कई अख़बार थे.

एक चिट्ठी आगरे के एक जौहरी की आई थी जिस्मैं जवाहरात की बिक्री बाबत लाला साहब के रुप लेनें थे और वह

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