परीक्षा गुरु ३६

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[ २६० ] “बहुत अच्छा! जैसी आप की मर्जी" ब्रजकिशोर नें रुखाई सै जबाब दिया, “मुझको मित्रों की तरफ सै सहायता मिलनें का विश्वास है परन्तु दैवयोग सै न मिली तो क्या इन्सालवन्ट होनें की दर ख्वास्त देनी पड़ेगी” लाला मदनमोहननें पूछा.

“अभी तो कुछ ज़रूरत नहीं मालूम होती परन्तु ऐसा विचार किया भी जाय तो आपके लेन देन और माल अस्बाब का कागज कहां तैयार है?" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया. और कचहरी जाने के लिये मदनमोहन सै रुख्सत होकर रवानें हुए.

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प्रकरण ३६.

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धोके की टट्टी

बिपत बराबर सुख नहीं जो थोरे दिन होय

इष्ट मित्र बन्धू जिते जाल परैं सब कोय॥
लोकोक्ति,
 

लाला ब्रजकिशोर के गए पीछे मदनमोहन की फिर वही दशा होगई दिन पहाड सा मालूम होनें लगा खास कर डाक की बडी तला मली लगरही थी निदान राम, राम करके डाक का समय हुआ डाक आई. उस्मैं दो तीन चिट्ठी खैर कई अख़बार थे.

एक चिट्ठी आगरे के एक जौहरी की आई थी जिस्मैं जवाहरात की बिक्री बाबत लाला साहब के रुप लेनें थे और वह [ २६१ ] यों भी लाला साहब सै बड़ी मित्रता जताया करता था उस्नें लाला साहब की चिट्ठी के जबाब मैं लिखा था कि "आप की जरूरत का हाल मालूम हुआ मैं बड़ी उमंग सै रुपे भेज कर इस्समय आपकी सहायता करता परन्तु मुझको बडा खेद है कि इन दिनों मेरा बहुत रुपया जवाहरात पर लग रहा है इसलिये मैं इस्समय कुछ नहीं भेज सक्ता आपनें मुझको पहले सैं क्यों न लिखा? अब जिस्समय मेरे पास रुपया आवेगा मैं प्रथम आपकी सेवा मैं जरूर भेजूंंगा मेरी तरफ सै आप भलीभांति विश्वास रखना और अपने चित्त को सर्वथा अधैर्य न होनें देना परमेश्वर कुशल करेगा" यह चिट्ठी उस कपटी नें ऐसी लपेट सै लिखी थी कि अजान आदमी को इस्के पढ़नें सै लाला मदनमोहन के रूप लेने का हाल सर्वथा नहीं मालूम होसक्ता था वह अच्छी तरह जान्ता था कि लाला मदनमोहनका काम बिगड़ जायगा तो मुझसें रुप मांगनें वाला कोई न रहैगा इस वास्तै उस्नें केवल इतनी ही बात पर सन्तोष न किया बल्कि वह गुप्त रीति सै मदनमोहन के विगड़नें की चर्चा फैलानें, और उस्के बड़े, बड़े लेनदारों को भड़कानें का उपाय करनें लगा. हाय! हाय! इस असार संसार मैं कुछ दिन की अनिश्चित आयु के लिये निर्भय होकर लोग कैसे घोर पाप करते हैं!!!

दुसरी चिट्ठी मदनमोहन के और एक मित्र (!) की थी वह हर साल आकर महीनें बीस रोज़ मदनमोहन के पास रहते थे इसलिये तरह, तरह की सोगात के सिवाय उनकी खातिरदारी मैं मदनमोहन के पांच सात सौ रुपे सदैव ख़र्च होजाया करते थे. उन्ने लिखा था कि "मैंने बहुत सस्ता समझ कर इस्समय एक [ २६२ ] गांव साठ हज़ार रुपे मैं खरीद लिया है मेरे पास इस्समय पचास हज़ार अन्दाज मोजूद हैं इसलिये मुझको महीने’ डेढ़ महीनें के वास्ते दस हज़ार रुपये की ज़रूरत होगी जो आप कृपा करके यह रुपया मुझको साहूकारी व्याजपर दे दैंगे तो मैं आपका बहुत उपकार मानूंगा” यह चिट्ठी लाला मदनमोहन की चिट्ठी पहुंचते ही उस्नें अगमचेती करके लिख दी थी और मिती एक दिन पहलेकी डाल दी थी कि जिस्सै भेद न खुलने पावै―

मदनमोहन के तीसरे मित्र की चिट्ठी बहुत संक्षेप थी उस्में लिखा था कि “आपकी चिट्ठी पहुंची उस्के पढ़नें सै बड़ा खेद हुआ. मैं रुपे का प्रबन्ध कर रहा हूं यदि हो सकेगा तो कुछ दिन मैं आपके पास अवश्य भेजूंंगा” इस्के पास पत्र भेजनें के समय रुपया मोजूद था परन्तु इस्नें यह पेच रक्खा था मदनमोहन का काम बना रहैगा तो पीछे सै उस्के पास रुपया भेज कर मुफ्तमें अहसान करेंगे और काम बिगड जाया तो चुप हो रहैगे अर्थात् उस्को रुपे की ज़रूरत होगी तो कुछ न देंगे और ज़रूरत न होगी तो ज़बरदस्ती गले पडेंगे!

इन्के पीछे लाला मदनमोहन एक अख़बार खोलकर देखनें लगे तो उस्मैं एक यह लेख दृष्टि आयाः―

"सुंंसभ्यता का फल"

“हमारे शहरके एक जवान सुशिक्षित रईसकी पहली उठान देखकर हमको यह आशा होती थी बल्कि हमनें अपनी यह आशा प्रगट भी कर दी थी कि कुछ दिनमैं उस्के कामोंसै कोई. देशोपकारी बात अवश्य दिखाई देगी परन्तु खेद है कि हमारी वह आशा बिल्कुल नष्ट हो गई बल्कि उस्के विपरीत भाव प्रतीत होनें [ २६३ ]लगा गिन्ती के दिनोंमें तीन चार लाख पर पानी फिरगया. वलायत मैं डरमोडी नामी एक लड़का ऐसा तीक्षण बुद्धि हुआ था कि वह नो वर्ष की अवस्था मैं और विद्यार्थियों को ग्रीक और लाटिन भाषाके पाठ पढ़ाता था परन्तु आगे चलकर उस्का चाल चलन अच्छा नहीं रहा इसी तरही यहां प्रारंभ सै परिणाम बिपरीत हुआ. हिन्दुस्थानियों का सुधरना केवल दिखानें के लिये है वह अपनी रीति भांति बदलनें मैं सब सुसभ्यता समझते हैं परंतु असल मैं अपनें स्वभाव और विचारोंके सुधारनें का कुछ उद्योग नहीं करते बचपन मैं उन्की तबियत का कुछ, कुछ लगाव इस तरफ को मालूम होता भी है तो मदरसा छोड़े पीछे नाम को नहीं दिखाई देता. दरिद्रियों को भोजन वस्त्र की फिकर पड़ती है और धनवानों को भोग विलास सै अवकास नहीं मिलता फिर देशोन्नति का विचार कौन करे? बिद्या और कला की चर्चा कौन फैलाय? हमको अपनें देश की दीन दशा पर दृष्टि करके किसी धनवान का काम बिगड़ता देख कर बड़ा खेद होता है परन्तु देश के हित के लिये तो हम यही चाहते हैं कि इस्तरह पर प्रगट मैं नए सुधारे की झलक दिखा कर भीतर सै दीये तले अन्धेरा रखनें वालों का भंडा जल्दी फूट जाय जिस्सै और लोगों की आंखैं खुलें और लोग सिंहका चमड़ा ओढ़नें वाले भेड़िये को सिंह न समझैं" इस अख़बार के ऐडीटर को पहलै लाला मदनमोहन से अच्छा फ़ायदा हो चुका था परन्तु बहुत दिन बीत जानें सै मानों उस्का कुछ असर नहीं रहा जिस तरह हरेक चीज़ के पुरानें पड़नें सै उस्के बन्धन ढीले पड़ते जाते है इसी तरह ऐसे स्वार्थपर मनुष्यों के चित्त मैं किसी के उपकार पर, लेन देन पर, [ २६४ ]प्रीति व्यवहार पर, बहुत काल बीत जानें सै मानों उस्का असर कुछ नहीं रहता जब उन्के प्रयोजनका समय निकल जाता है तब उन्की आंखैं सहसा बदल जाती है जब वह किसी लायक होते हैं तब उन्के हृदय पर स्वेच्छाचार छा जाता है जब उन्के स्वार्थ मैं कुछ हानि होती है तब वह पहले के बड़े सैं बड़े उपकारों को ताक़ पर रख कर बैर लेनें के लिये तैयार हो जाते हैं सादी ने कहा है "करत खुशामद जो मनुष्य सो कछु दे बहु लेत। एक दिवस पावै न तो दो सै दूषण देत॥+[१]" इस अखबार का एडीटर विद्वान था और विद्या निस्सन्देह मनुष्य की बुद्धि को तीक्ष्ण करती है परन्तु स्वभाव नहीं बदल सक्ती. जिस मनुष्यको विद्या होती है पर वह उस्पर बरताव नहीं करता वह बिना फल के बृक्षकी तरह निकम्मा है.

लाला मदनमोहन इन लिखावटों को देख कर बड़ा आश्चर्य करते थे परन्तु इस्सै भी अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि बहुत लोगोंनें कुछ भी जवाब नहीं भेजा उन्मैं कोई, कोई तो ऐसे थे कि बड़ों की लकीर पर फकीर बनें बैठे थे यद्यपि उन्के पास कुछ पूंजी नहीं रही थी उन्का कार व्योहार थक गया था उन्का हाल सब लोग जान्ते थे इस्सै आगे को भी कोई बुर्द हाथ लगनें की आशा न थी परन्तु फिर भी वह खर्च घटानें मैं बेइज्जती समझते थे. सन्तान को पढ़ाने लिखानें की कुछ चिन्ता न थी परन्तु ब्याह शादियों मैं अब तक उधार लेकर द्रब्य लुटाते थे उन्सै इस अवसर पर सहायता की क्या आशा थी? कितनें ही ऐसे. [ २६५ ]थे जिन्हों नें केवल अपनें फ़ायदे के लिये धनवानों का सा ठाठ बना रक्खा था इस वास्तै वह मदनमोहन के मित्र न थे उस्के द्रब्यके मित्र थे वह मदनमोहन पर किसी न किसी तरहका छप्पर रखनें के लिये उस्का आदर सत्कार करते थे इस लिये इस अवसर पर वह अपना पर्दा ढकनें के हेतु मदनमोहन के बिगाड़नें मैं अधिक उद्योग न करें इसी मैं उन्का विशेष अनुग्रह था इस्सै अधिक सहायता मिलनें की उन्सै क्या आशा हो सकती थी? कोई, कोई धनवान ऐसे थे जो केवल हाकमों की प्रसन्नता के लिये उन्की पसन्दके कामों मैं अपनी अरुचि होनें पर भी जी खोलकर रुपया दे देते थे परन्तु सच्ची देशोन्नति और उदारताके नाम फूटी कौड़ी नहीं ख़र्ची जाती थी वह केवल हाकमों सै मेल रखने मैं अपनी प्रतिष्ठा समझते थे परन्तु स्वदेशियों के हानि लाभ का उन्हें कुछ विचार न था, केवल हाकमों मैं आनें जानें वाले रईसों से मेल रखते थे और हाकमों की हां मैं हां मिलाया करते थे इसवास्ते साधारण लोगों की दृष्टि मैं उन्का कुछ महत्व न था. हाकमों मैं आनें जानें के हेतु मदनमोहन की उन्सै जान पहचान हो गई थी परन्तु वह मदनमोहन का काम बिगड़ने सै प्रसन्न थे क्योंकि वह मदनमोहन की जगह कमेटी इत्यादि मैं अपना नाम लिखाया चाहते थे इस वास्तै वह इस अवसर पर हाकमों सै मदनमोहन के हक़ मैं कुछ उलट पुलट न जड़ते यही उनकी बड़ी कृपा थी इस्सै बढ़ कर उन्की तरफ़ सै और क्या सहायता हो सक्ती थी? कोई, कोई मनुष्य ऐसे भी थे जो उनकी रक़म मैं कुछ जोखों न हो तो वह मदनमोहन को सहारा देनें के लिये तैयार थे परंतु अपनें ऊपर जोखों उठा [ २६६ ]कर इस डूबती नाव का सहारा लगानें वाला कोई न था. विष्णु पुराण के इस वाक्य सै उन्के सब लक्षण मिल्ते थे "जाचत हूं निज मित्र हित करैं न स्वारथ हानि। दस कौड़ी हू की कसर खायँ न दुखिया जानि॥+[२]"

निदान लाला मदनमोहन आज की डाक देखे पीछे बाहर के मित्रों की सहायता से कुछ, कुछ निराश हो कर शहर के बाक़ी मित्रों का माजना देखनें के लिये सवार हुए


 

प्रकरण ३७.


बिपत्तमैं धैर्य.

प्रिय बियोग को मूढ़जन गिनत गड़ी हिय भालि॥
ताही कोंं निकरी गिनत धीरपुरुष गुणशालि॥*[३]

रघुबन्शे.

लाला ब्रजकिशोर नें अदालत मैं पहुंचकर हरकिशोर के मुकद्दमे मैं बहुत अच्छी तरह बिबाद किया. निहालचन्द आदि के कई छोटे, छोटे मामलों मैं राजीनामा होगया जब ब्रजकिशोर को अदालत के काम सै अबकाश मिला तो वह वहां से सीधे मिस्टर ब्राइट के पास चले गए.

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  1. + अला ता नश्‌नवी दह सखुन गोए कि अन्दक मायः नफए अज़तो दारद॥
    अगर रोज़े मुरादश वर नयारी दोसद चन्दा अयूबत बर शुमारद॥

  2. x अभ्यर्थि तोपि सुत्‌हदा स्वार्थहानिं न मानवः॥
    पणार्धार्धाध मात्रेण करिष्यति तदाहिज॥

    • अवगच्छति मूढचेतन : प्रियनाशं तदृदिशल्य मर्पितम्॥

    स्थिरधी स्तुतदेव मन्यते कुशलहारतया समुद्धतम्॥