परीक्षा गुरु ३८

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प्रकरण ३८.


सच्ची प्रीति.

धीरज धर्म मित्र अरु नारी॥
आपतिकाल परखिये चारी॥

तुलसीकृत.

लाला ब्रजकिशोर बाहर पहुxचे तो उन्को कचहरी सै कुछ दूर भीड़ भाड़सै अलग वृक्षों की छाया मैं एक सेजगाड़ी दिखाई दी. चपरासी उन्हैं वहां लिवा ले गया तो उस्मैं मदनमोहन की स्त्री बच्चों समेत मालूम हुई. लाला मदनमोहन की गिरफ्तारी का हाल सुन्ते ही वह बिचारी घबरा कर यहां दौड़ आई थी उस्की आंखों सै आंसू नहीं थमते थे और उस्को रोती देख कर उस्के छोटे, छोटे बच्चे भी रो रहे थे. ब्रजकिशोर उन्की यह दशा देख कर आप रोनें लगे. दोनों बच्चे ब्रजकिशोर के गले से लिपट गए और मदनमोहन की स्त्रीनें अपना और अपनें बच्चोंका गहना ब्रजकिशोर के पास भेज कर यह कहला भेजा कि "आपके आगे उन्की यह दशा हो इस्सै अधिक दुःख और क्या है? ख़ैर! अब यह गहना लिजिये और जितनी जल्दी होसके उन्को हवालात सै छुड़ाने का उपाय करिये"

"वह समझवार होकर अनसमझ क्यों बन्ती हैं? इस घबराहट से क्या लाभ है? वह मेरठ गई जब उन्हों नें आप कहवाया था कि ऐसी सूरत मैं इन अज्ञान बालकों की क्या दशा [ २७६ ]होगी? फिर वह आप इस बात को कैसे भूली जाती हैं? उन्को अपने लिये नहीं तो इन छोटे, छोटे बच्चों के लिये हिम्मत रखनी चाहिये" लाला ब्रजकिशोर कहने लगे "इंग्लैंड के बादशाह पहले जेम्स की बेटी इलेक्टर पेलेटीन के साथ ब्याही थी. उस्नें अपनें पति को बोहोमिया का बादशाह बनानेंकी उमंग मैं इन्की तरह अपना सब जेवर खो दिया इस्सै अन्तमैं उस्को अपनें निर्वाहके लिये भेष बदलकर भीख मांगनी पड़ी थी"।

"अपनें पति के लिये भीख मांगनी पड़ी तो क्या चिन्ता हुई? स्त्री को पति से अधिक संसार मैं और कौन है? जगत माता जानकीजीनें राज सुख छोड़ कर पति के संग बनमैं रहना बहुत अच्छा समझा था। और यह वाक्य कहा था" देत पिता परिमित सदा परिमित सुत और भ्रात। देत अमित पति तासुपद नहीं पूजहिं किहिं भांति?॥÷[१]" सती शिरोमणि सावित्रीनें पतिके प्राण वियोग पर भी वियोग नहीं सहा था. मनुस्मृति मैं लिखा है "शील रहित पर नारि रत होय सकल गुण हानि। तदपि नारि पूजै पति हि देव सदृश जिय जानि॥[२] नारिन को ब्रत यज्ञ तप और न कछु जगमाहिं। केवल पति पद पूज नित सहज स्वर्ग मैं जाहिं॥[३]" पति के लिये गहना क्या? प्राण [ २७७ ] तक देनें पड़ें तो मैं बहुत प्रसन्न हूं. हाय! वह कैद रहैं और मैं गहनें का लालच करू?, वह दुःख सहें और मैं चैन करू? हम लोगों की ज़बान नहीं है इस्सै क्यो हमारे हृदय भी प्रीति शून्य है क्या कहूं? इस्समय मेरे चित्त का जो दु:ख है वह मैं। ही जाती हूं. हे धरती माता! तू क्यों नहीं फटती जो मैं अभागी उस्मैं समा जांंऊ?" लाला मदनमोहन की स्त्री गद्गद स्वर और रुके हुए कण्ठ सै भीतर बैठी हुई बहुत धीरे, धीरे बोली! भाई! मैं तुमसै आज तक नहीं बोली थी परन्तु इस्समय दु:ख की मारी बोल्ती हूं सो मेरी ढिठाई क्षमा करना. मुझसैं यह दुःख नहीं सहा जाता मेरी छाती फटी जाती है मुझको इस्समय कुछ नहीं सूझता जो तुम अपनी बहन के और इन छोटे, छोटे बच्चों के प्राण बचाया चाहते हो तो यह गहना लो और हो सके जैसे इसी समय उन्को छुड़ा लाओ नहीं तो केवल मैं ही नहीं मरूंंगी मेरे पीछे ये छोटे, छोटे बालक भी झुर, झुर कर―”

"बहन! क्या इस्तमय तुम बावली होगई हो तुझै अपनें हानि लाभका कुछ भी विचार नहीं है?" लाला ब्रजकिशोर बाहर सै समझानें लगे “देखो शकुन्तला भी पतिव्रता थी परन्तु जब उस्के पतिनें उस्को झूंटा कलंक लगाकर परित्याग करनें का विचार किया तब उसै भी क्रोध आए बिना नहीं रहा. क्या तुम उस्सै भी बढ़कर हो जो अपनें छोटें, छोटे बच्चोंके दुःख का कुछ बिचार नहीं करतीं? थोड़ी देर धैर्य रक्खो धीरे, धीरे सब,होजायगा"

"भाई! धैर्य तो पहलैहीं बिदा होचुका अब मैं क्या करूंं? तुम बार, बार बाल बच्चों की याद दिवाते हो परन्तु मेरे जान [ २७८ ] पति सै अधिक स्त्रीके लिये कोई भी नहीं है" मदनमोहन की स्त्री लजा कर भीतर सैं कहनें लगी “पतिसै बिबाद करना तो बहुत बात है परन्तु शकुन्तलाके मन में दुष्यन्तकी अत्यंत प्रीति हुए पीछे शकुन्तला को दुष्यन्तके दोष कैसे दिखाई दिये यही बात मेरी समझ मैं नहीं आती फिर मैं शकुन्तला की अधिक नक़ल कैसे करू? मैं बड़ी आधीनता सैं कहती हूँँ कि ऐसे मर्मबेधी बचन कहकर मेरे हृदयको अधिक घायल मत करो और यह सब गहना ले जाकर होसके जितनी जल्दी इस डूबती नावको बचाने का उपाय करो. मुझको तुह्मारे साम्नें इस बिषयमें बात करते अत्यन्त लज्जा आती है हाय! यह पापी प्राण अब भी क्यों नहीं निकलते इस्सै अधिक और क्या दु:ख होगा?" यह बात सुन्तेही ब्रजकिशोर की आंखों सै आसू टपकनें लगे थोडी देर कुछ नहीं बोला गया उस्को उस्समय नारमेण्डी के अमीरजाद रोबर्टकी स्त्री समबिल्लाकी सच्ची प्रीति याद आई रोर्बट के शरीर मैं एक जहरी तीर लगनेंसैं ऐसा घाव होगया था कि डाक्टरोंके बिचारमैं जब तक कोई मनुष्य उस्का जहर न चूसे रोबर्ट के प्राण बचनें की आशा न थी और जहर चूसनें सै चूसनें वाले का प्रण भय था. रोबर्ट नें अपनी प्राण रक्षाके लिये एक मनुष्यके प्राण लेनें सर्वथा अंगीकार न किये परन्तु उस्की पतिव्रता स्त्रीनें उस्के सोतेमैं उस्के घाव का बिष चूसकर उस्पर अपनें प्राण न्योछावर कर दिये.

"बहन! मैं तुम्हारे लिये तुम सै कुछ नहीं कहता परंतु तुम्हारे छोटे छोटे बालकोंको देखकर मेरा हृदय अकुलाता है। तुम थोड़ी देर धैर्य धरो ईश्वर सब मंगल करेगा” लाला ब्रज किशोरनें जैसे तैसे हिम्मत बांधकर कहा. [ २७९ ]"भाई! तुम कहते हो तो मैं भी समझती हूं यह बालक मेरी आत्मा हैं और विपत्त मैं धैर्य धरना भी अच्छा है परंतु क्या करूंं? मेरा बस नहीं चलता देखो तुम ऐसे कठोर मत बनो" मदनमोहनकी स्त्री विलाप कर कहनें लगी" महाभारत मैं लिखा है कि जिस्समय एक कपोतनें अतिथि सत्कारके विचार सै एक बधिक के लिये प्रसन्नता पूर्वक अपनें प्राण दिये तब उस्की कपोती बिलाप कर कहनें लगी" हा! नाथ! हमनें कभी आपका अमंगल नहीं विचारा संतान के होनें पर भी स्त्री पति बिना सदा दु:ख सागर में डूबी रहती है भाई बंधु भी उस्को देखकर शोक करते हैं. आप के साथ मैं सब दशाओं में प्रसन्न थी पर्वत, गुफा, नदी, झर्ना, वृक्ष और आकाश मैं मुझको आपके साथ अत्यन्त सुख मिलता था परंतु वह सुख आज कहां है? पति ही स्त्री का जीवन है पति बिना स्त्री को जीकर क्या करना है" यह कहकर वह कपोती आग मैं कूद पड़ी फिर क्या मैं एक पक्षी सै भी गई बीती हूँँ? तुमसै हो सके तो सौ काम छोड़ कर पहलै इस्का उपाय करो न हो सके तो स्पष्ट उत्तर दो मुझ स्त्री की जातिसै जो उपाय हो सकेगा सो मैं ही करूंंगी. हाय! यह क्या ग़ज़ब है! क्या अभागों को मोत भी मांगी नहीं मिलती!”

“अच्छा! बहन! तुमको ऐसा ही आग्रह है तो तुम घर जाओ मैं अभी जाकर उन्कौ छुड़ाने का उपाय करता हूँँ" लाला ब्रजकिशोरनें कहा.

न जानें कैसी घडीमैं मैं मेरठ गई थी कि पीछेसै यह ग़ज़ब हुआ जिस्समय मेरे पास रहने की आवश्यकता थी उसी समय में अभाग़ी दूर जा पड़ी! इस दुःख है मेरा कलेजा फटता है मुझको [ २८० ] तुम्हारे कहनें पर पूरा विश्वास है परन्तु मैं एकबार अपनी आंंख स भी उन्हैं देख सकती हूं?" मदनमोहन की स्त्री नें रोकर कहा.

"इस्समय तो कचहरी में हजारों आदमियोंकी भीड़ हो रही है सन्ध्या को मौक़ा होगा तो देखा जायगा” ब्रजकिशोरनें जवाब दिया.

"तो क्या सन्ध्या तक भी वह— "मदनमोहन की स्त्री के मुख से पूरा बचन न निकल सका कंठ रुक गया और उस्को रोते देख कर उस्के बच्चे भी रोनें लगे.

निदान बड़ी कठिनाई सै समझा कर ब्रजकिशोरनें मदनमोहन की स्त्री को घर भेजा परन्तु वह जाती बार जबरदस्ती अपना सब गहना ब्रजकिशोर को देती गई और उस्के बच्चे भी ब्रजकिशोर को छोड़कर घर न गए जब ब्रजकिशोरके साथ कचहरी मैं जाते थे तब उन्की दृष्टि एकाएक मदनमोहन पर जा पड़ी और वह उस्को वहां देखते ही उस्मै जाकर लिपट गए.

“क्यों जी! यह कहां से आए?" मदनमोहननें आश्चर्यसै पूछा.

“इन्की माके साथ ये अभी मेरठसै आए हैं वह बिचारी आप का यह हाल सुन्कर यहां दौड आई थी सो मैंने उसे बडी मुशकिलझे समझा बुझाकर घर भेजा है” ब्रजकिशोरनें जवाब दिया.

"लाला जी घर क्यों नहीं चल्ते? यहां क्यों बैंठे हो?” एक लडकेनें गले से लिपट कर कहा.

“मैं तो तुम्हारे छंग (संग) आज हवा खाने चलूंगा और [ २८१ ] अपनें बाग मै चलकर मच्छियों का तमाछा (तमाशा) देख़ूंगा" दूसरा लड़का गोदमैं बैठकर कहनें लगा.

“लाला जी तुम बोल्ते क्यों नहीं? यहां इकल्लै क्यों बैठे हो? चलो छैल (सैर) करने चलैं" एक लडका हात पकड कर खैंचनें लगा.

‘जानें चुन्नीआल (लाल) कहां हैं? विन्नें (उन्होंने) हमें एक तछवीर (तस्वीर) देनी कही थी लाला जी! तुम उछे (उसे) चोकट मैं लगवा दोगे?” दूसरे लडकेनें कहा.

"छैल (सैर) करनें नहीं चन्ते तो घर ही चलो, अम्मा आज सवेरे सै न जानें क्यों रो रही है और बिन्नों आज कुछ भोजन भी नहीं किया" एक लड़का बोला.

"लाला जी! तुम बोल्ते क्यों नहीं? गुछा (गुस्सा) हो? चलो, घर चलो हम मेरठ छे (सै) खिलौनें लाए हैं छो (सो) तुम्हें दिखावेंगे” दूसल ठोडी पकड कर कहनें लगा.

"तुम तो दंगा करते हो चलो हमारे साथ चलो हम तुमको वरफ़ी मंगादेंगें यहां लालाजी को कुछ काम है” व्रजकिशोरने कहा―

"आं आंं हमतो लालाजी के छंग (संग) छैल का जायंगे बाग मैं मच्छियोंका तमाछा देखेंगे हमको बप्फी (बरफ़ी) नहीं चाहिये हम तुम्हारे छंग नहीं चलते" दोनों लडके मचल गए.

"चलो हम तुम्हैं पीतल की एक, एक ऐसी मछली खरीद देंगे। जो लोहेकी सलाई सिखाते ही तुम्हारे पास दौड आया करेगी” लाला ब्रजकिशोरने कहा.

“हम यों नहीं चल्ते हमतो लालाजीके छंग चलेंगे.” [ २८२ ]"और जबतक लालाजी घर नहीं जायंगे हम भी नहीं जायंगे" यह कहकर दोनों लड़के मदनमोहन के गलेसे लिपट गए और रोनें लगे उस्समय मदनमोहन की आंखों सै आंसू टपक पड़े और ब्रजकिशोर का जी भर आया.

"अच्छा! तो तुम लालाजीके पास खेलते रहोगे? मैं जाउ?” लाला ब्रजकिशोरनें पूछा.

“हां हां तुम अलेई जाओ, हम अपनें लालाजी के पाछ (पास) खेला करेंगे” एक लड़केनें कहा.

"और भूक लगी तो?” ब्रजकिशोर नें पूछा

“यह हमें बप्फी मंगा देंगे” छोटा लड़का अंगुली से मदनमोहन को दिखाकर मुस्करा दिया.

“महाकवि कालिदास नें सच कहा है वे मनुष्य धन्य हैं जो अपने पुत्रों को गोद मैं लेकर उन्के शरीर की धूल सै अपनी गोद मैली करते हैं और ज़ब पुत्रों के मुख अकारण हंसी सै खुल जाते हैं तो उन्के उज्ज्वल दांतों की शोभा देखकर अपना जन्म सफल करते हैं” लाला ब्रजकिशोर बोले और उन लड़कों के पास उन्के रखवाले को छोड़कर आप अपने काम को चले गए.

बच्चे थोडी देर प्रसन्नता सै खेलते रहे परन्तु उन्को भूक लगी तब वह भूकके मारे रोनें लगे पर वहां कुछ खानें को मौजूद न था इसलिये मदनमोहन का जी उस्समय बहुत उदास हुआ.

इतने में सन्ध्या हुई इस्लै हवालात का दरवाज़ा बन्द करनें के लिये पोलिस आ पहुची अबतक उस्नें दीवानी की हवालात और मदनमोहन ब्रजकिशोर आदि का काम समझकर विशेष [ २८३ ]रोक टोक नहीं की थी परन्तु अब करनी पडी वह छोटे छोटे, बच्चे मदनमोहन के साथ घर जानें की ज़िद करते थे और ज़बरदरती हटानें सै फूटफूटकर रोते थे लोगोंके हाथों से छूट, छूट कर मदनमोहन के गले सै जा लिपटते थे इसलिये इस्समय ऐसी करुणा छा रही थी कि सब की आंखो सै टप, टप आंसू टपकनें लगे.

निदान उन बच्चों को बड़ी कठिनाई सै रखवाले के साथ घर भेजा गया और हवालात का दरवाज़ा बन्द हुआ.

 

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  1. ÷ मितं ददाति हि पिता मितं भ्राता मितं सुतः।
    अमितस्वच दातारं भर्तारं का न पूजयेत्॥

  2. विशीलः कामवृत्तो वा गुणौर्वा परिवर्ज्जितः।
    उपचर्य्यः स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिः॥

  3. नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न ब्रतन्नाप्युपोषितम्।
    पतिं शुश्रूषते येन तेन स्वर्गे महीयते॥