सामग्री पर जाएँ

पुरातत्त्व प्रसंग/तक्षशिला की कुछ प्राचीन इमारतें

विकिस्रोत से


तक्षशिला की कुछ प्राचीन इमारतें

भारतवर्ष के शतशः नहीं, सहस्रशः कीर्तिस्तम्भ बलीकाल की कुक्षि में चले गये हैं। उनका अब कहीं पता नहीं। पुराने खँडहर खोदने से यदि कही उनका कोई भग्नांश निकल आता है तो पुराण-वस्तु-विज्ञानी उससे ग्रीस, फारिस, आसिरिया और बैबीलोनिया की बू निकालने लगते हैं। ऐसी कारीगरी उस समय ग्रीस ही में होती थी। अतएव भारतवासियों ने इसे उसी देश के कारीगरों से सीखा होगा। अथवा ऐसे मन्दिर था महल उस युग में फारिस या बाबुल ही में बनते थे। इस कारण, हो न हो, यह वही की नकल है। वे लोग इसी तरह के तर्कों की उद्भावनायें करने लगते हैं। पहले इस प्रकार के तर्कों का जोर कुछ अधिक था, पर अब कुछ कम हो गया है। अब भारतवर्ष की पुरानी सभ्यता, और पुराने कला-कौशल के चिन्ह अधिक मिलते जा रहे हैं। इस कारण पुरानी तकना की कुछ इमारतें गिरने नहीं तो हिलने ज़रूर लगी हैं। क्योकि इन चिन्हो से भारत की सभ्यता के बहुत पुराने होने के प्रमाण पाये जाते हैं। कुछ नये पुराविदों ने तो इस देश की सभ्यता की

लाखो वर्ष की पुरानी सिद्ध करने के लिए पुस्तकें तक लिख डाली हैं।

यहाँ के अनेक महल, मन्दिर, स्तूप और गड़ आदि तो काल खा गया। पर इस विनाश के विषय में विशेष शोक करने की जरूरत नहीं। क्योंकि जीर्ण होने पर सभी वस्तुओं का नाश अवश्यम्भावी है। परन्तु जो इमारतें धर्म्मान्धों और बर्बर विदेशियों ने धर्मान्धता अथवा उत्पीडन की प्रेरणा ही से नष्ट कर दी उनके असमय-नाश का विचार करके अवश्य ही शोक होता है। प्राचीन काल में तक्षशिला नामक नगरी बड़ी उन्नत अवस्था में थी। वह लक्ष्मी की लाला-भूमि थी। वह विद्वानो का विहार-स्थल थी। यह बड़े बड़े प्रतापी नरेशों का प्रभुता-निकेतन थी। उसका आयतन बहुत विस्तृत था। कई नये नये नगर वहाँ बस गये थे। कई पुराने नगर उजड़ गये थे। चिन्हों से जान पड़ता है कि ईसा के पांचवे शतक तक तक्षशिला-नगरी विद्यमान थी। तब तक भी वहाँ अनेक अभ्रंकष प्रासाद, स्तूप, विहार आदि उसके वैभव की घोषणा उच्च स्वर से कर रहे थे। अकस्मात् उस पर हूणों ने चढ़ाई कर दी। वहाँ के तत्कालीन अधीश्वर की हार हुई। विजयी हूणो ने उसे खूब लूटा। पर इतने से भी उनकी तृप्ति न हुई। उन्होने उसे जला कर ख़ाक ही कर

दिया। जो अंश ख़ाक हो जाने से बचा वह उजड़ गया। उस पर जंगल उग आया। धीरे धीरे भग्नांश पृथ्वी के पेट के भीतर दब गये।

आरकियालाजीकल महकमे ने अब तक्षशिला के खँडहर खोदकर उन टूटी-फूटी इमारतों को बाहर निकालना शुरू किया है। यह काम कई सालों से जारी है। अब तक जो भग्नांश खोद निकाले गये हैं और उनसे जो जो चीज़ प्राप्त हुई हैं उनका वर्णन इस महकमे की सचित्र सालाना रिपोर्टों में हो चुका है। अब इस महकमे के अध्यक्ष, सर जान मार्शल, ने प्रत्येक भग्नांश का विवरण पृथक् पृथक् पुस्तकों में प्रकाशित करने का क्रम जारी किया है। इससे यह सुभीता होगा कि प्रत्येक स्थान-विशेष का वर्णन एक ही जगह मिल जायगा। तक्षशिला की खुदाई से अब तक जो ऐतिहासिक पदार्थ--मूर्तियाँ, स्तूप, औज़ार, व्यावहारिक वस्तुयें, सिक्के आदि--निकले हैं उन पर, साधारण तौर पर, एक अलग पुस्तक भी प्रकाशित को गई है। उसका नाम है--A guide to Taxila उसमें तक्षशिला की खोद-निकाली गई इमारतों का भी वर्णन है।

प्राचीन तक्षशिला के खँडहरों की सीमा के भीतर एक जगह जौलियाँ (Jaulian) नाम की है। उसे खोदने से जो इमारतें और जो पदार्थ निकले हैं उनका विवरण, एक अलग पुस्तक में, अभी हाल ही में, प्रकाशित

हुआ है। वह अँगरेज़ी मेंहै और सचित्र है। नाम है--Excavations at Taxila-The Stupas and Manasteries at Jaulian इसका भी प्रकाशन सर जान मार्शल ही ने किया है। इसका अधिकांश उन्हीं का लिखा हुआ भी है। अल्पांश के लेखक और कई महाशय है। पुस्तक में छोटे बड़े अनेक चित्र हैं।

जौलियाँ में, जहाँ खुदाई हुई है वहाँ, कोई डेढ़ हज़ार वर्ष पहले बौद्धों के कितने ही स्तूप, विहार और चैत्य आदि थे। ये सब एक उॅची जगह, पहाड़ी पर, थे। खोदने पर इन इमारतों में आग लगकर गिर जाने के चिन्ह पाये गये है। ईसा की पाँचवी सदी में तक्षशिला और उसके आस पास के प्रान्त पर हूणो के धावे हुए थे। उन्होंने उस प्रान्त का विध्वंस-साधन किया था। बहुत सम्भव है, उन्हीने जलाकर इन इमारतों का नाश किया हो।

खोदने से इन खॅडहरों में एक बहुत बड़े स्तूप का खण्डांश निकला है। छोटे छोटे स्तूप तो बहुत से निकले हैं। यहीं, स्तूपों के पास, बौद्ध भिक्षुओं के रहने की जगह भी थी। वह एक विस्तृत विहार था, जिसमे पचास साठ भिक्षुओं के रहने के लिए अलग अलग कमरे थे। वह दो मॅजिला था। खोदने से, जौलियाँ में, बुद्ध और बोधिसत्वों की बहुत सी मूर्तियाँ मिली हैं। कई मूर्तियाँ अखण्डित हैं और बड़ी विशाल हैं। स्तूपों के चारों ओर, कई कतारों में, मिट्टी और चूने के पलस्तर की और भी सैकड़ों मूर्तियाँ पाई गई हैं। वे बुद्ध, बोधिसत्वों, भिक्षुओ, उपासिकाओं, देवों और यक्षों आदि की हैं। इन सबकी वेशभूषा, आभूषण आदि देखकर उस समय के वस्त्राच्छादन और सामाजिक व्यवस्था का सच्चा हाल मालूम हो सकता है। पुरुषों के उष्णीष और अङ्ग-वस्त्र, स्त्रियो के सलूके और कर्ण-कुण्डल, तथा देवों और यक्षों के कुतूहल-जनक आकार-प्रकार और भावभङ्गियाँ बड़ी योग्यता से मूतियों में दिखाई गई हैं। उस समय के भारतवासियो ने जिन हूणों को म्लेक्ष संज्ञा दे रक्खी थी उनकी भी मूर्तियाँ मिली हैं। जिन धार्मिक बौद्धो ने अपने अपने नाम से स्तूप बनवाये थे उनके खुदाये हुए, खरोष्ठी लिपि में, कई अभिलेख भी यहाँ मिले हैं। वे कुछ कुछ इस प्रकार

"बुद्धरच्छितस भिक्षुस दनमुखो"

अर्थात् भिक्षु बुद्धरक्षित का दान किया हुआ।

पुरातत्वज्ञों का अनुमान था कि ३०० ईसवी ही में खरोष्ठी लिपि का रवाज भारत से उठ गया था। पर यह बात इन अभिलेखों से गलत साबित हो गई, क्योंकि ये

चौथी या पाँचवी सदी के हैं। इससे ज्ञात हुआ कि और भी सौ दो सौ वर्ष तक इस लिपि का रवाज भारत के पश्चिमोत्तर भाग में था।

खोदने से यहाँ अनेक प्राचीन सिक्के, मिट्टी के वर्तन और सीले, लोहे और ताँबे के अरघे, चमचे, जंजीरें और कीलकाँटे आदि निकले हैं। सोने की भी कुछ चीजे प्राप्त हुई हैं। मिट्टी के एक बर्तन के भीतर एक अधजली पुस्तक भी मिली है। वह भोजपत्र पर लिखी हुई है। संस्कृत भाषा में है। बौद्ध धर्म्म-विषयक कोई ग्रन्थ मालूम होता है। प्रायः वसन्त-तिलकवृत्त में है। खेद है, इसका एक भी पृष्ठ पूर्ण नही।

कई स्तूपों में अस्यिभस्म भी मिली है। मालूम होता है कि कितने ही छोटे छोटे स्तूपों के भीतर अस्थि-भस्म रक्खी गई थी। क्योंकि रखने की जगह तो बनी हुई है, पर अस्थिगर्भ डिब्बे या बक्स नही मिले। वे या तो नष्ट हो गये या निकाल लिये गये। स्तूप नम्बर ११A में एक छतरीदार, ३ फुट ८ इंच ऊँची, विचिन्न बनावट की एक चीज़ मिली है। वह पलस्तर की है और स्तूपाकार है। उस पर नीला और सुर्ख रङ्ग है। ऊपर कई प्रकार के पत्थर, जिनमें से कुछ रत्न सहश भी हैं, जड़े हुए हैं। जिस कोठरी के भीतर यह चीज़ मिली है वह १०॥ इंच चौकोर और ३ फुट ८॥ इञ्च ऊँची है। इस

स्तूपाकार वस्तु के भीतर लकड़ी की एक छोटी सी डिबिया थी। वह सड़ी मिली है। उसमें मूंगा, सुवर्ण पत्र, हाथीदाँत, बिल्लौर के मनके आदि थे। उसके भी भीतर धातु की एक छोटी सी डिबिया थी। उस डिबिया के भी भीतर एक और डिबिया थी। उसी में काली काली ज़रा सी राख थी। यह राख किसीकी अस्थियो को अवशिष्ट भस्म के सिवा और क्या हो सकती है।

यदि भारत के प्राचीन खँडहरो की खुदाई के लिए गवर्नमेंट कुछ अधिक रुपया खर्च करती और यह काम कुछ अधिक झपाटे से होता तो दस ही पाँच सालो में अनेक खँडहर खुद जाते और उनसे निकली हुई वस्तुओं और इमारतों के आधार पर प्राचीन भारत का इतिहास लिखने में बहुत सुभीता होता। परन्तु, अभाग्यवश, वह दिन अभी दूर मालूम होता है।

[मार्च १९२२

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।