पुरातत्त्व प्रसंग/सुमात्रा और जात्रा आदि द्वीपों में प्राचीन हिन्दू-सभ्यता

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सुमात्रा और जात्रा आदि द्वीपों में प्राचीन हिन्दू-सभ्यता

उस दिन अख़बारों में पढ़ा कि कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने स्याम, अनाम, कम्बोडिया और मलय-द्वीप-समूह की यात्रा के निमित्त कलकत्त से प्रस्थान कर दिया। आप इन देशों और द्वीपों के निवासियों पर वेदो और उपनिषदों की अमृत-रस से सिञ्चित वाणी की वर्षा करेंगे और हिन्दुभो तथा बौद्धो की प्राचीन सभ्यता के तत्रस्थ चिह्नों के दर्शनो से कृतार्थ होगे।

सुमात्रा, जावा, बोर्नियो, कम्बोडिया ( काम्बोन) और बाली आदि में किसी समय हिन्दुओ ही का राज्य था। उन्ही ने वहाँ उपनिवेशों की स्थापना की थी। उन्हीं वे वहाँ वैदिक सभ्यता फैलाई थी। इन देशो तथा द्वीपों में भारत की प्राचीन सभ्यता की धुंधली झलक अब भी देखने को मिल सकती है। कौन ऐसा सभ्यताभिमानी भारतवासी होगा जो अपने पूर्वजों के कीर्ति-कलाप की उस झलक के दर्शन करने की इच्छा न करे।

अध्यापक विज्ञानराज चैटर्जी (Bijanraj Chatter- ji) अथवा परम पवित्र और परमपूर्ण अँगरेज़ी भाषा की
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कृपा से विजनराज या विजानराज चैटर्जी ने तिब्बत, इंडो-चायना और जावा आदि को खूब सैर की है और वहाँ के प्राचीन इतिहास से विशेष अभिज्ञता भी प्राप्त को है। उन्होंने पुरातन काम्बोज अर्थात् अर्वाचीन कम्बो- डिया पर एक पुस्तक भो लिखी है। उनके लेख से मालूम होता है कि छोटे से वाली नामक टापू में अब तक प्राचीन हिन्दुओं के वंशज वर्तमान हैं। उनमें हिन्दुओ के अनेक रीति-रवाज अब तक वैसे ही पाये जाते हैं जैसे कि किसी समय हमारे पूर्वज भारत-वालियों के थे। उनके धर्म में यद्यपि बौद्ध धर्म का मिश्रण हो गया है तथापि अनेक विषयों में वे अब भी हिन्दुओं ही के धर्म-विश्वास के पक्षपाती है । उनकी उपासना-पद्धति, उनके खानपान और उनके मन्दिर आदि देख कर यह निश्चय करने में देर नहीं लगती कि वे लोग प्राचीन हिन्दुओ ही को सन्तति हैं।

जिन अध्यापक विज्ञान (विजान या विजन ) राज चैटजी का उल्लेख ऊपर किया गया उनका लिखा हुआ एक लेख गत जून के "माडर्न रिव्यू" में प्रकाशित हुआ है। वह अँगरेज़ी भाषा में है। उसमें जावा आदि टापुओं के प्राचीन इतिहास का महत्त्वपूर्ण दिग्दर्शन है। उसमें निर्दिष्ट भनेक बातें भारतवासियों के लिए नई, अतएव जानने योग्य हैं। इसी से हम उनके कुछ अंशों
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का अवतरण नीचे देते है।

गत ३० वर्षों मे हालैंड के पुरातत्त्वज्ञों ने प्राचीन पुस्तकों, लेखो और परम्परा से सुनी गई गाथाओं की सहायता से जावा आदि टापुओं के इतिहास पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है।

रामायण कम से कम ईसा के पहले शतक की पुस्तक है। उसमें जावा अर्थात् यवद्वीप का नाम भाया है। मित्र देश के प्राचीन इतिहासवेत्ता टालमी ने, दूसरे शतक में, उसका उल्लेख किया है। बोर्नियो नाम के टापू में एक बहुत पुराना शिलालेख मिला है। वह संस्कृत- भाषा में है और ईसा के चौथे शतक का मालूम होता है। वह जिस लिपि मे है उसी लिपि के लेख चम्पा और काम्बोज में भी मिले है। उनकी लिपि और भाषा दक्षिणी भारत के पल्लव-नरेशों के शिलालेखों से मिलती- जुलती है। बोर्नियो के शिलालेख में अश्ववना नामक राजा का उल्लेख है। यह राजा अपने वंश का आदि पुरुष था। इसके पुत्र मूलवर्म्मा ने बहुसुवर्णक नाम का यज्ञ किया था। इसके बाद पाँचवें शतक के शिलालेख मिले हैं; वे पश्चिमी जावा के राजा पूर्णवर्म्मा के है। इनकी भी लिपि पल्लववंशी नरेशों की ग्रन्थ-नामक लिपि के सदृश है। वर्तमान बटेविया नगर के पास किसी समय तरुण-नगर नाम की एक बस्ती थी। पूर्णवमी वहीं
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का राजा था। उसने दो नहर खुदाये थे। एक का नाम था चन्द्रभागा और दसरे का गोसती। ये दोनो ही नाम उत्तरी भारत की नदियों के नाम की नकल हैं। बहुत सम्भव है कि इसी पूर्णवर्म्मा या इसके परवर्ती राजा के राजत्व-काल में प्रसिद्ध चीनी यात्री फा-हीन सिंहलद्वीप से पश्चिमी जावा में पहुँचा हो। इस यात्री ने लिखा है कि उस समय वहां अनेक ब्राह्मण थे। बौद्ध- धर्म्म का प्रचार शुरू हो गया था, परन्तु तव तक उसके अनुयायी बहुत कम थे। इस यात्री ने, ४१३ ईसवी में, जावा से कैण्टन नामक नगर के लिए जिस जहाज़ पर प्रस्थान किया था उस पर २०० हिन्दू-व्यापारी थे। यह बात उसने स्वयं ही अपने यात्रा-वर्णन में लिखी है।

पुराने अवतरणी और उल्लेखों से मालूम होता है कि माया में पहले-पहल काश्मीर के राजा या राजकुमार गुलवम्मा ने, ४२३ ईसवी में घौद्ध-धर्म्म का प्रचार किया। यह राजकुमार जावा से चीन को एक ऐसे जहाज पर गया था जिसका मालिक नन्दी नाम का एक हिन्द था। इससे सिद्ध है कि उस समय इन टापुओं के हिन्दू जहाज बनाने, जहाज चलाने और जहाजों के द्वारा वाणिज्य करने में निपुण थे।

चीन की प्राचीन पुस्तकों से भी जावा के अस्तित्व और वहाँ हिन्दुओं का राज्य होने के प्रमाण मिलते हैं। [ ७६ ]
चीन के पहले सुङ्गवंश के इतिहास में लिखा है कि ४३५ ईसवी में जावा-नरेश श्रीपाद-धारावर्म्मा ने अपने दूत के द्वारा चीन के राजाधिराज के पास एक पत्र भेजा था। छठे शतक के एक अन्य चीनी इतिहास में लिखा है कि जावा के निवासी कहते है कि इनके राज्य की स्थापना हुए ४०० वर्ष व्यतीत हए।

मालूम होता है कि छठे शतक के अन्त में पश्चिमी जावा के राज्य का पतन होगया और मध्य-जावा मे एक नये ही राज्य की स्थापना हुई। चीन के ऐतिहासिक ग्रन्थों में लिखा है कि मध्य-जावा में कलिङ्ग-नामक राज्य का उदय हुआ। उनमें यह भी लिखा है कि उस राज्य से तथा बाली से भी, ६३७ और ६४९ ईस्वी के बीच कई राजदूत चीन को गये और वहाँ के राजेश्वर के सम्मुख उपस्थित होकर उन्होंने अपने अपने देश के स्वामियों के पत्र उसे दिये। ६७४ ईसवी में कलिङ्ग के राजासन पर सीमा नाम की एक रानी आसीन हुई। उसका राज्य राम-राज्य के सदृश था। प्रजा का पालन उसने पुत्रवत् किया--"चोरी" का शब्द केवल कोश मे रह गया--

वातोऽपि नाश्वसयदशुकानि

कोलम्बयेदाहरणाय हस्तम्।

उस समय सुमात्रा के पश्चिमी-समुद्र-तटवर्ती प्रान्त में
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कुछ अरव बस गये थे। उनके सरदार ने अशर्फियों से भरी हुई एक थैली कलिङ्ग-राज्य की सीमा के भीतर, एक सड़क पर, रखवा दी कि देखें उसे कोई उठा ले जाता है या नहीं। तीन वर्ष तक वह वहीं पड़ी रही; किसी ने उसे छुवा तक नहीं। इसके बाद एक दिन कलिङ्ग के युवराज के पैर से वह थैली टकरा गई। इस पर रानी सिमा सख्त नाराज़ हुई। पहले तो उसने युवराज को वध-दण्ड दिये जाने की आज्ञा दे दी; पर लोगो के बहुत कुछ समझाने पर उसने युवराज के उस पैर का केवल अँगूठा कटवा कर उसे छोड़ दिया। इस घटना का भी उल्लेख चीनियों के इतिहास मे है।

मध्य-जावा में एक जगह जगाल है। वहाँ एक शिला- लेख, शक ६५४ (७३२ ईसवी) का, मिला है। यह पहला ही शिलालेख है, जिसमें सन्-संवत् दिया हुआ है। इसकी भी भाषा संस्कृत और लिपि वही पल्लव- ग्रन्ध है। इसमें एक शिवालय के पुनर्निर्माण का उल्लेख है। दक्षिणी भारत में अगस्त्य मुनि के एक आश्रम का नाम कुञ्जर-कुञ्ज था। जावा का वह शिवालय इसी कुञ्जर-कुञ्ज के शिवालय के ढंग का बनाया गया था। इसमें मध्य-जावा के दो नरेशो--सन्नाह और सञ्जय—— का ज़िक्र है और लिखा है कि उन्होंने इस भू-मण्डल पर, चिरकाल तक, मनु के सदृश न्यायपूर्वक राज्य किया। [ ७८ ]
सञ्जय बड़ा ही बलशाली राजा हुआ। उसने सुमात्रा, वाली और मलयप्रायद्वीप के समस्त नरेशों का पराजय करके उन्हें अपने अधीन कर लिया था।

शक ६८२ (सन् ७६० ईसवी) में उत्कीर्ण एक और शिलालेख, पूर्वी जावा में, प्राप्त हुआ है। उसमें अगस्त्य ऋषि की एक प्रस्तर-मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है। उसकी स्थापना गजयान नामक राजा ने की थी। यह राजा ब्राह्मणों का पुरस्कर्ता और कुम्भयोनि अगस्त्य का उपासक था।

यवद्वीप के निवासी अगस्त्य के परम उपासक थे। ८६३ ईसवी के एक और शिलालेख में भी अगस्त्य का नाम आया है। इस लेख को भाषा "कवी" है। संस्कृत और जावा की तत्कालीन प्रान्तिक भाषा के मिश्रण से बनी हुई भाषा का नाम "कवी" है। इस शिलालेख में भद्रलोक नाम के एक मन्दिर का उल्लेख है। उसे स्वयं अगस्त्य ने बनवाया था। उसमें अगस्त्य की सन्तति के विषय मे आशीर्वाद है। इससे सूचित होता है कि अगस्त्य-मुनि दक्षिणी भारत से जावा में जा बसे थे।

इस बीच में राजनैतिक उलट-फेर बहुत कुछ हो जाने के कारण मध्य-जावा, शैव-सम्प्रदाय के नरेशों के हाथ से निकल कर, सुमात्रा के महायान-सम्प्रदाय वाले बौद्धों के अधिकार में चला गया। यह घटना ईसा के
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आठवें शतक के मध्य में हुई जान पड़ती है। चीन के ऐतिहासिक ग्रन्थों में लिखा है कि सुमात्रा में, ईसा के पाँचवें शतक में, हिन्दुओं का राज्य था। वहाँ के शैले- न्द्रवंशी नरेशों ने अपने राज्य का विस्तार, धीरे धीरे, बहुत दूर तक बढ़ा लिया था। बौद्ध हो जाने पर उन्होंने मध्य-जावा के शैवों से उनका राज्य छीन कर वहाँ भी अपना प्रभुत्व जमाया। दसवें शतक में इसी वंश के एक राजा ने मदरास के पास नेगापट्टन में एक मन्दिर बनवाया। इस काम में जो कुछ ख़र्च पड़ा वह उसी राजा ने दिया; मन्दिर बनवाने की आज्ञा-मात्र दक्षिण के तत्कालीन चोल-नरेश ने दो। सुमात्रा के इन नरेशों ने भारत में और भी कई मठ तथा मन्दिर आदि बनवाये। नालन्द में एक ताम्रपत्र मिला है। उसमें लिखा है कि सुवर्णद्वीप ( सुमात्रा) के शैलेन्द्र-वंशी राजा बालपुत्रदेव ने वहाँ पर एक मठ या विहार बनवाया। उसके ख़र्च के लिए बङ्गाल के पाल-नरेश ने कुछ गाँव अलग कर दिये, क्योंकि उसका झुकाव बौद्ध-धर्म की ओर था।

सुमात्रा के नरेशों की राजधानी श्रीविजय नामक नगर था और वहाँ के पराक्रमी अधिपति महायान-सम्प्र- दाय के बौद्ध थे। ये लोग पहले हीनयान-सम्प्रदाय के थे; क्योंकि सातवें शतक में जब चीनी परिव्राजक इरिसंग सुमात्रा में था तब उसने वहाँ हीनयान-सम्प्रदाय
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हो का आधिक्य पाया था।

सुमात्रा और जावा में उपनिवेश स्थापित करके वहीं बस जानेवाले हिन्दुओं का अधिक सम्पर्क, पहले पहल, दक्षिणी भारत से था। वे लोग दक्षिण ही से, जाकर वहाँ बस गये थे। पर निकट होने के कारण, कालान्तर में, उनका आवागमन बङ्गाल और मगध से अधिक होने लगा। फल यह हुआ कि शिलालेखों और ताम्रपत्रों में दक्षिण की पल्लव ग्रन्थ-लिपि के बदले उत्तरी-भारत को लिपि स्थान पाने लगी। शैलेन्द्रवंशी एक राजा ने ७०० शक (७७८ ईसवी) मे तारा का एक मन्दिर, जावा में, बनवाया। उससे सम्बन्ध रखनेवाले लेख में उत्तरी-भारत की लिपि का प्रयोग हुआ है। यह लिपि देवनागरी से कम, बंगला से अधिक, मिलती-जुलती है।

श्रीविजय के नरेशों के शासन-काल में जावा अर्थात् यवद्वीप की बड़ी उन्नति हुई। कला-कौशल और मन्दिर- निर्म्माण आदि के कुछ ऐसे काम उस समय हुए जिन्हें देखकर बड़े बड़े यंजिनियर और कला-कोविद शतमुख से उनकी प्रशंसा करते है। बोरोवोदूर के विश्वविश्रुत मन्दिर-समूह उसी समय बने। चण्डी-मेन्दूत को अवलो- कितेश्वर की प्रसिद्ध मूर्ति का निर्म्माण भी तभी हुई। यह मूर्ति गुप्तकालीन मूर्ति- निर्म्माण-प्रणाली से टक्कर
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खाती है और बहुत ही अच्छी है। श्रीविनय के शैलेन्द्र- नरेश संस्कृत भाषा के साहित्य के भी उन्नायक थे। उनमें से एक राजा ने अपने यहाँ की "कवी' भाषा में संस्कृत के एक शब्दकोश की रचना भी की। जावा में सुमात्रा के श्रीविजय-नरेशों का राज्य ईसा के दसवें शतक तक रहा।

दसवें शतक में मध्य-जावा के शैव नरेश, जो अपने देश से निकाले जाने पर पूर्वी जावा में जा बसे थे, फिर प्रबल हुए। उस समय श्रीविजय के सूबेदार या गवर्नर मध्य-जावा में शासन करते थे। उन्होंने उन सूबेदारों को निकाल बाहर किया और अपना राज्य उनसे छीन लिया। तब शैवों का प्रभुत्व वहाँ फिर बढ़ा और अनेक विशालकाय शिवालयों और मन्दिरो का निर्म्माण हुआ। उनमें से एक मन्दिर में रामायण से सम्बन्ध रखनेवाली बड़ी ही सुन्दर चित्रावलियाँ और मूर्तियाँ बनाई गई। इसके बाद किसी दुर्घटना--बहुत करके किसी ज्वालामुखी पर्वत के स्फोट के कारण मध्य-जावा उजड़ गया।

तदनन्तर पूर्वी जावा की बारी आई। यू-सिन्दोक नामक नरेश के प्रताप से उसकी उन्नति हुई। उसने वहाँ एक बलवान राज्य की नीव डाली। उसकी पौत्री महेन्द्रदत्ता का विवाह वाली के गवर्नर उदयन के साथ
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हुआ। उदयन का पुत्र एरलिङ्गः बड़ा प्रतापी हुआ। पन्द्रह ही वर्ष की उम्र में उसे, अपने शत्रुओं के भय से, वाणगिरि नामक जड्गल को भाग जाना पडा। वहाँ उसने बहुत समय बडे कष्ट से काटा। उसने वहाँ प्रतिज्ञा की कि यदि मुझे मेरा पैत्रिक राज्य फिर प्राप्त हुआ तो मैं इस अरण्य में एक आश्रम बनवाऊँगा। उसकी इच्छा, कालान्तर में, पूर्ण हुई। तब उसने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उस अरण्य में एक भव्य आश्रम का निर्माण कराया। वहीं पर प्राप्त हुए सन् १०३५ ईसवी के एक शिलालेख से ये सब बातें मालूम हुई हैं। यह राजा बड़ा प्रतापी था। अपने सभी शत्रुओं पर इसने विजय- प्राप्ति की। इसके राज्यकाल में साहित्य की बहुत उन्नति हुई। अर्जुन-विवाह और विराटपर्व काव्य तथा रामायण और महाभारत के अनुवाद आदि अनेक महत्व- पूर्ण ग्रन्थ, इसी के समय में, जावा की पुरानी ("कवी') भाषा में निर्म्मित हुए। वृद्ध होने पर एरलिस वानप्रस्थ हो गया। उसने अपना राज्य अपने दोनों बेटों को बराबर बराबर बाँट दिया। यह हिस्सा-बाँट भरत नाम के एक "सिद्ध" मुनि ने किया। एक को केदरी का और दूसरे को जाङ्गल का राज्य मिला। यह घटना १०४२ ईसवी में हुई।

जाङ्गल-राज्य के विषय में तो विशेष कुछ भी ज्ञात- नहीं; परन्तु केदिरी-राज्य ने बड़ी ख्याति पाई। उस राज्य
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के कवियों ने "कवी" भाषा के साहित्य की बहुत उन्नति की। वजय नामक राजा के आश्रित कवि त्रिगुण ने, ११०४ ईसवी में, सुमनसान्तक और कृष्णजन नामक प्रसिद्ध काव्यों की रचना की। ११२० ईसवी के आस- पास, कामेश्वर नामक राजा के समय में, पू-धर्मज नाम के कवि ने स्मरदहन नाम के काव्य का निर्माण किया। इस राजा का विवाह जाङ्गल-देश की राजकुमारी चन्द्र- किरण के साथ हुआ था।

सन् ११३५ और ११५५ ईसवी के बीच, केदिरी- राज्य के सिंहासन पर जयवय नाम का राजा आसीन रहा। उसने बड़ी ख्याति पाई। उसके राज्यकाल के सुखैश्वर्य के वर्णन प्राचीन पुस्तको में लिखे हुए पाये जाते हैं। उसका राज्य धर्म्म-राज्य माना गया है। उसके समय में भारत युद्ध और हरिवंश-नामक ग्रन्थो का उदय हुआ। भारत- युद्ध का वर्णन प्रथम पुस्तक में इस तरह किया गया जैसे वह जावा ही में हुआ हो और कौरव-पाण्डवों के बदले वहीं के नरेशों ने आपस में युद्ध किया हो। लिखा है कि जयवय राजा इतना प्रतापी और पराक्रमी हुआ कि उसने सुवर्णद्वीप ( सुमात्रा) तक को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया। यह राजा वैष्णव था।

११२९ ईसवी में कैदिरी-नरेश को चीन के राजरा- जेश्वर ने "राजा" की उपाधि से अलंकृत किया। उस
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समय यवद्वीप के व्यवसायी सामुद्रिक यात्रायें दूर दूर तक करते थे। आफ़रीका के पूर्व-तटवती सोफाला नामक वन्दरगाह तक उनके जहाज़ जाते थे। वे लोग वहाँ से हबशी दास भी जावा को ले आते थे। वे केदिरी-नरेश की सेवा के लिए नियुक्त होते थे। कुछ पुरातत्त्व-वेत्ताओं का खयाल है कि सन् ईसवी को प्रारम्भिक शताब्दियों में सुमात्रा और जावा के हिन्दुओं ने मैडेगास्कर नामक द्वीप में अपने उपनिवेश स्थापित करके उसे आवाद किया था।

जावा की पुरानी भाषा "कवी" में दो इतिहास बड़े मार्के के हैं। एक का नाम है नगर कृतागम, दूसरे का परा- रतन। पहले ग्रन्थ में ईसा की बारहवीं सदी से १३६५ ईसवी तक का और दूसरी में १४७८ ईसवी तक का इतिहास निबद्ध है। इनसे जो बातें जानी जाती है उनका दिग्दर्शन नीचे किया जाता है।

जावा मे केन-अरोक नाम का एक बड़ा ही मायावी सरदार था। वह बुद्धिमान भी था और साथ ही कुटिल और कपटी भी था। केदिरी के अन्तिम अधिपति का नाश करके, १२२० ईलवी में, वह उस राज्य का स्वामी बन बैठा। उसने शृङ्गभी (सिद्धसारी ) को अपनी राजधानी बनाया। सात वर्ष में वह अपने राज्य को दृढ़ कर ही पाया था कि १२२७ ईसवी में वह मारा गया। उसके अनन्तर दो राजे और हुए; पर उनके राजत्वकाल में कुछ भी विशेष
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घटनायें नहीं हुई। शृङ्गश्री के चौथे राजा कृतनगर का राजत्वकाल, अनेक विषयों में, महत्त्व-पूर्ण घटनाओ के कारण बहुत प्रसिद्ध हुआ। उसने अपने राज्य की सीमा के पास पढ़ोसवाले कितने ही देशों और प्रदेशों पर चढ़ाइयाँ करके उन पर विजयप्राति की। परन्तु बाहरी लड़ाइयों में लगे रहने के कारण यह स्वदेश का शासन अच्छी तरह न कर सका। वह बड़ा अभिमानी था। उसने चीन के राजेश्वर कुदिलाईखा के भेजे हुए राजदृत तक का अपमान किया। उससे उसके सरदार और मण्डलेश भी नाराज़ थे। फल यह हुआ कि केदिरी के मण्डलेश्वर जपलटोग ने उसे मार डाला। उसका दामाद रेडन-विजय, इस युद्ध में, अपने ससुर कृतनगर का सहायक था। वह भी जयकटींग के भय से एक छोटे से टापू को भाग गया। कुछ समय के अनन्तर वह वहाँ से लौटा और कपटाचार की बदौलत अपने शत्रु जयकटोंग को मार कर आप राजा बन गया। उसने माजा-सहित नाम का एक नया नगर बसाया। वहीं उसने, १२९४ ईसवी में, अपना अभिपेक कराया। सिंहा- सनासीन होने पर उसने अपना नाम रक्खा--कृतराजस जयवर्धन। जिस स्थान पर इस राजा के शव का दाह हुआ था वहाँ पर उसको एक बड़ी ही सुन्दर प्रस्तरमूर्ति विद्यमान है। उसम उसकी आकृति विष्णु की जैसी बनाई गई है। विष्णु के आयुध भी उसमें ज्यों के त्यों बने हुए
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हैं। इससे सिद्ध है कि वह पूर्ण पैषणव था।

कृतराजस का पुत्र निकम्मा नरेश हुआ। उसके बाद उसकी बहन त्रिभुवनोतुङ्गादेवी जयविष्णुवर्द्धिनी सिंहासन पर बैठो। उसकी बहन राजदेवी और माता गायत्री भी उसके साथ, राजकार्य में, भाग लेती रहीं। रानी का प्रधानामात्य गजमद बड़ा चतुर और शासन-कुशल था। उसने, १३४३ ईसवी में, वाली और उसके निकटवर्ती द्वीपों और प्रान्तों को जीत कर माजापिहित-राज्य की सीमा खूब विस्तृत कर दी। उसने और भी कई राज्यो पर विजय पाने की प्रतिज्ञा को थी। पर उसका यह काम, शायद जयविष्णुवर्धिनी रानी के अनन्तर राजासन प्राप्त करने- वाले हेमऊरुफ नामक राजा के राज्यकाल में, सफल हुआ।

इसी समय (शक १२६९) का एक शिलालेख मिला है। वह आदित्यवर्मा का है। वह सुमात्रा का राजा था। उससे सिद्ध है कि यह राजा तान्त्रिक-सम्प्रदाय का बौद्ध था। नगरकृतागम के कत्ती प्रपञ्च-पण्डित ने भी अपने ग्रन्थ में लिखा है कि उस समय वहाँ तान्त्रिक क्रियाओं का बड़ा जोर था। सुमात्रा और जावा दोनों ही में तान्त्रि- कों का भाधिक्य होते होते हिन्दू और बौद्ध दोनों धर्म्मों की जड़ में घुन लग गया। फल यह हुआ कि कालान्तर में, इन द्वीपों में, मुलसमानी धर्म्म के प्रचार के लिए मैदान साफ होता गया। [ ८७ ]माजापिहित की रानी जयविष्णुवद्धिनी राजासन पर इस कारण बैठी थी कि उसका पुत्र हेमऊरुफ अल्प- चयस्क था। १३५० ईसवी में वह वयस्क हुआ और गद्दी पर बैठा। गजमद ही उसका प्रधान मन्त्री बना रहा। इस राजा के राज्य-काल में गजमद के पराक्रम और चातुर्य के प्रभाव से, माजापिहित राज्य की बड़ी उन्नति हुई। दूर दूर तक के देश--न्यूगिनी तक के--इस राज्य के अन्तभुक्त हो गचे। सुमात्रा, बोर्नियो और सिंहपुर (सिंहापुर ) आदि सभी द्वीपो के अधिकारियों ने माजापिहित के अधीश्वर के सामने सिर झुकाया। चह एक प्रकार से चक्रपती राजा हो गया और अपना नाम हेमऊरुफ बदल कर श्रीराजसनागर रक्खा। इस राजा ने अनेक बलशाली देशों के शासको के साथ मैत्री की भी स्थापना की। उनमें से मरुत्तमा ( मर्तबान ) काम्बोज, चाम्पा, यवन (उत्तरी अनाम) और स्यामदेश की अयोध्या तथा राजपुरी के नरेश मुख्य थे।

श्रीराजसनागर के राज्य-काल में माजापिहित राज्य उन्नति के शिखर पर पहुँच गया। दूर देशो में राज्य- शासन के लिए जो सरदार या गवर्नर उसने रक्खे थे वे समय समय पर माजापिहित में उपस्थित होकर राजा की पाद-वन्दना कर जाते थे।

राजा ने भिल भिन्न महकमों के कार्य्यनिरीक्षण के
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लिए ५ मन्त्री रक्खे थे। उन्हीं की सलाह से वह राज्य- संचालन करता था। उसके मन्त्री और "भुजङ्ग" देश में दौरे भी करते थे। भुजङ्ग एक प्रकार के धर्म्माध्यक्ष अथया पुरोहित थे, वे राजकार्य भी करते और धर्म्म- सम्बन्धी व्यवस्था आदि भी देते थे। शैव और बौद्ध दोनों धर्मों के अध्यक्ष अलग अलग थे। राजाज्ञा का उल्लंघन करनेवालो को राजा के "जलधि-मन्त्री" दण्ड देते थे।

श्री राजसनागर की प्रधान महिषी का नाम पुम्ना- देवो था। वह रति का अवतार मानी जाती थी। राज- बानी माजापिहित बड़ा ही शोभाशाली नगर था। उसके इस यवद्वीपीय नाम का संस्कृत रूप बिल्वतिक्त अथवा तिक्तश्रीफल होता है। उसमे सुन्दर सरोवर, विशाल उद्यान, अभ्रकष प्रासाद, बड़े बड़े बाज़ार और मनोहर मन्त्रणागृह ( वितान ) थे। शैव ब्राह्मण एक तरफ़ रहते थे, बौद्ध दूसरी तरफ़। क्षत्रियों, राज-कर्मचारियों और मन्त्रियों के रहने के स्थान भी अलग, एक ओर, थे। सर्वसाधारण-जन, विशेष करके शैव थे। उच्चपदस्थ कर्म्म- चारी और मन्त्रिमण्डल तथा धनी मनुष्य प्रायः बौद्ध थे।

१३८९ ईसवी में हेमऊरुफ की मृत्यु हुई। इसके अनन्तर ही माजापिहित की अवनति का आरम्भ हो
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गया। मृत-राजा के पुत्र और दामाद में युद्ध छिड़ गया। इस बहुकालव्यापी युद्ध ने राज्य को तहस-नहस कर दिया। कितने ही देशांश और प्रान्त स्वतन्त्र हो गये। वे बिल्वतिक्त के चक्रवत्ती राजा के आधिपत्य से निकल गये। इसी समय देश में घोर दुर्भिक्ष भी पड़ा। उसने बची-खुची प्रजा का अधिकांश मृत्यु के सुख में पहुँचा दिया।

इसके आगे विल्वतिक्त के नरेशों का वृत्तान्त बहुत कम मिलता है। हेमऊरुफ की पौत्री सुहिता के राज्य- काल में और भी कई प्रान्त स्वतन्त्र हो गये। उसके अनन्तर उसके छोटे भाई कृतविजय ने राज्य पाया। उसने चम्पा की राजकुमारी का पाणिग्रहण किया। वह १४४८ ईसवी में मरी। इस रानी का झुकाव इस्लाम- धर्म की ओर था। अतएव उसके राज्य-काल ही में इस धर्म्म ने उसके राज्य में धीरे धीरे प्रवेश करना आरम्भ कर दिया था।

साजापिहित के अन्तिम राजा प्रा-विजय (पञ्चम) ने मुसलमानो के साथ बहुत कुछ रियायत की। पर उन्होने उसकी कृपाओ का बदला कृतघ्नता से दिया। वह १४७८ ईसवी में मरा। उसी समय से जावा में मुसलमानों का राज्य हो गया। कालान्तर में उसका नाश करके हालैंड के डचों ने जावा आदि द्वीपों को
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अपने अधिकार में कर लिया। उनका वह अधिकार अब तक अक्षुण्ण है।

जावा के अनेक निवासी भाग कर बाली में जा बसे। वहाँ यद्यपि बौद्ध धर्म का भी प्रचार है, पर शैव ब्राह्मणों ही की संख्या अधिक है। इस छोटे से टापू में हिन्दुओं के कई पुराण, वेदों के कुछ भाग तथा राजनीति के कई ग्रन्थ था ग्रन्थांश अब तक, संस्कृत-भाषा में, विद्यमान हैं। रामायण और महाभारत भी, खण्डित रूप में, वहाँ पाये जाते है। पर उनकी भाषा संस्कृत नही, जावा की प्राचीन भाषा "कवी" है।

[आक्टोबर १९२७

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।