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पुरातत्त्व प्रसंग/महात्मा अगस्त्य की महत्ता

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महात्मा अगस्त्य की महत्ता

कूपमण्डूकता बड़ी ही अनिष्टकारिणी क्या एक प्रकार से विनाशकारिणी होती है। मनुष्य यदि अपने ही घर, ग्राम या नगर में आमरण पड़ा रहे तो उसकी बुद्धि का विकास नहीं होता, उसके ज्ञान की वृद्धि नहीं होती, उसकी दृष्टि को दूरगामिनी गति नहीं प्राप्त होती। देश- विदेश जाने, भिन्न भिन्न जातियों और धर्मों के अनुयायियों से सम्पर्क रखने, दूर देशों में व्यापार करने आदि से विद्या, बुद्धि, धन और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है; मनुष्य में उदारता आ जाती है; जो आचार-विचार और रीति-रस्म अपने समुदाय में हानिकारक होते हैं उन्हें छोड़ देने की प्रवृत्ति हृदय में जागृत हो उठती है। जो बात एक, दो या दस, बीस मनुष्यों के लिए हितावह होती है वही एक देश के लिए भी हितावह होती है। इंगलैंड एक छोटा-सा टापू है। उसका विस्तार या रकबा हमारे देश के सूबे अवध से भी शायद कम ही होगा। पर उस छोटे से टापू के प्रगतिशील निवासियों ने हजारों कोस दूर आस्ट्रेलिया और कनाडा तक में अपना प्रभुत्व जमा लिया है। दूर की बात जाने दीजिए, अपने देश

भारत को भी पादानत करके वे आज डेढ़ सौ वर्ष से यहाँ राज्य कर रहे हैं। यदि वे कूपमण्डूकता के कायल होते तो न उनके प्रभुत्व और ऐश्वर्य की इतनी वृद्धि होती और न उनके राज्य की सीमा ही का विस्तार इतना बढ़ता। उनकी वर्तमान उन्नति और ऊर्जितावस्था का प्रधान कारण उनकी प्रगतिशीलता और अध्यवसाय ही है। जिस मनुष्य या जिस देश में महत्वाकाङ्क्षा नहीं वह कभी उन्नति नहीं कर सकता। इसे अबाध सत्य समझिए।

यद्यपि कुछ समय से इक्के दुक्के भारतवासी विद्यो-पार्जन और व्यापार के लिए इस देश के प्रायः प्रत्येक प्रान्त से अब विदेशों को जाने लगे हैं तथापि अधिकांश में समुद्र-पार करना यहाँवाले बहुत बड़ा पाप और धर्म-च्युति का कारण समझते हैं। जो राजपूत, किसी समय, जरूरत पड़ने पर, घोड़े की पीठ से भाले की नोंक से छेद कर नीचे आग में रोटियाँ पकाते और खाते थे वे तक इस समय योरप और अमेरिका आदि की यात्रा करने में धर्महानि समझते हैं। फ़ौज में भरती होकर अरब, मिस्र, फारिस, फ्रांस, इंगलैंड और हाँगकाँग जाने में हम लोगों की जाति और धर्म की हानि नहीं होती, पर अन्य उद्देश से जाने से हम डरते हैं। यह प्रवृत्ति धीरे धीरे कम हो रही है, पर उसके समूल जाते रहने में अभी बहुत समय दरकार है। हमारी इस कूपमण्डूकता ने हमारी जो हानि की है उसकी इयत्ता नहीं। उसके कुफल हम पद पद पर भोग रहे हैं। उसने हमें किसी काम का नहीं रक्खा। परन्तु दुर्देव हमें फिर भी सचेत नहीं होने देता। उसने हमें यहाँ तक अन्धा बना दिया है कि हम अपने पूर्व पुरुषों के चारेत और उनके दृष्टान्त भी भूल गये है। हमारे जिन धर्म्मधरीण प्राचीन ऋषियों और मुनियों ने द्वीपान्तरों तक में जाकर आर्य्यों के धर्म, ज्ञान और ऐश्वर्य की पताका फहराई और बड़े बड़े उपनिवेशों तक की स्थापना कर दी उनकी चरितावली आज भी हमें अपनी पुरानी पोथियों में लिखी मिलती है। परन्तु उनकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता, उनके कार्य्यों का अनुसरण करना तो दूर की बात है।

"रूपम" नाम का एक सामयिक पत्र अंगरेज़ी में निकलता है। उसमें बड़े ही महत्त्व के लेख और चिन्न प्रकाशित होते हैं। उसमें ओ० सी० गांगुली नाम के एक महाशय ने एक लेख अगस्त्य-ऋषि के सम्बन्ध में प्रकाशित कराया है। यही लेख कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की विश्वभारती नामक पत्रिका के गत जुलाई महीने के अंक में उद्धृत हुभा है। उस लेख में यह लिखा गया है कि हमारे प्रसिद्ध और प्राचीन अगस्त्य मुनि ने कम्बोडिया ही में नहीं, सुमात्रा, जावा भौर बोर्नियो

तक में जाकर वहाँ पर भारतीय सभ्यता का प्रचार किया था। यह वही अगस्त्य ऋपि जान पड़ते हैं जिनके विषय में कहा जाता है कि उन्होने समुद्र को अपने चुल्लू में भर कर पी लिया था। इस अतिशयोक्ति या रूपक का मतलब शायद इतना ही है कि जिस समुद्र के पार जाना लोग पाप समझते या जिसके सन्तरण से लोग भयभीत होते थे उसी के वे इस तरह पार चले गये जिस तरह लोग चुल्लू भर पानी का पार कर जाते हैं। अगस्त्य को आप कल्पनाप्रसुत पुरुष न समझ लीजिएगा। उनका उल्लेख भाश्वलायन-गृखसूत्रों तक में है। पुराणो में तो उनकी न मालूम कितनी कथाय पाई जाती हैं। उनके चलाये हुए अगस्त्य-गोत्र में इस समय भी सहस्रशः मनप्य विद्यमान हैं। पूर्वीय द्वीपों में पाये गये एक शिलालेख तक में इस घात का निर्देश है।

अगस्त्य-ऋषि का निवासस्थान काशी था। वे महाशैव थे और काशी के एक शिव-मन्दिर, बहुत करके विश्वनाथ के मन्दिर, से सम्बन्ध रखते थे। वे बड़े विद्वान और बड़े तपस्वी थे। उनमें धर्म प्रचार-विषयक उत्साह अखण्ड था। शव-मत की अभिवृद्धि के लिए उन्होंने दक्षिणा-पथ के प्रान्तों में जाने का निश्चय किया। उस समय विन्ध्य-पर्वत के पार दक्षिणी प्रान्तों में जाना दुष्कर कार्य था। क्योंकि घोर अरण्यो को पार करके

जाना पड़ता था। परन्तु सारी कठिनाइयों को हल करके सहामुनि अगस्त्य विन्ध्याचल के उस पार पहुँच गये। वहाँ जाकर उन्होंने दूर दूर तक के जंगल कटवाकर वह प्रान्त मनुष्यों के बसने और आवागमन करने योग्य बना दिया। वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में लिखा है कि उस प्रान्त को मनुष्यों के बसने योग्य बनाने में दण्डकारण्य के असभ्य जंगली लोगों (राक्षसों) ने अगस्त्य के काम में बड़ी बड़ी बाधाये डाली। परन्तु अगस्त्य ने उन सबका पराभव करके कितने ही आश्रमों और नगरों की स्थापना कर दी। इरावल और वातापी नाम के दो राक्षस (शायद असभ्य जंगली लोगों के सरदार) उस समय वहाँ बड़े ही प्रबल थे। उनके उत्पात सदा ही जारी रहते थे। उन्हें भी अगस्त्य से हार खानी पड़ी। इस बात का भी उल्लेख पूर्वोक्त रामायण के लङ्का-काण्ड में है। वर्तमान ऐपोल और बादामी नगर उन दोनो राक्षसों की याद अब तक दिला रहे है।

अगस्त्य ऋपि ने दक्षिण में अपने मत ही का प्रचार नही किया। उन्होंने वहाँ वालों को कला-कौशल भी सिखाया। कितने ही नरेशों तक को उन्होंने अपने धर्म में दीक्षित किया। पाड्य-देश के अधीश्वरों के यहाँ तो उनका सबसे अधिक सम्मान हुआ। उनको वे लोग

देवता के सदृश पूजने लगे। अगस्त्य ही ने वहाँ पहले पहल आयुर्वेद का प्रचार करके रोग-निवारण की विद्या लोगो को सिखाई। कहते हैं कि उन्होने तामील-भाषा का प्रचार या सुधार किया। द्रविडदेशीय वर्णमाला का संशोधन भी उन्हीं के द्वारा हुआ माना जाता है। उसके व्याकरण का निर्माण भी उन्हीं ने किया। उन्हीं के नामानुसार वह अगोथियम आख्या से अभिहित है। मूर्ति-निर्म्माण-विद्या पर भी अगस्त्य ऋषि के द्वारा निम्मित एक संहिता सुनी जाती है। मतलब यह कि इस महर्षि ने दक्षिणापथ को मनुष्यों के निवासयोग्य ही नहीं बना दिया, किन्तु उन्होंने वहाँ के निवासियों को धर्म्म, विद्या और कलाओं आदि का भी दान देकर उन्हें सभ्य और शिक्षित भी कर दिया।

परन्तु अगस्त्य को इतने ही से सन्तोष न हुआ। उपनिवेश-सस्थापन और सभ्यता-प्रचार की पिपासा उनके हृदय से फिर भी दूर न हुई। इस कारण उन्होंने समुद्र-बन्धन को तोड़कर द्वीपान्तरों को जाने की ठानी। उन्होंने समुद्र को पी डाला। अथवा आज-कल की भाषा में कहना चाहिए कि तरण-योग्य यान या जहाज़ वनवा कर उनकी सहायता से वे उसे पार करके उसके पूर्व तटवर्त्ती द्वीपों या देशों में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने हिन्दू या भार्य्य धर्म्म का प्रचार आरम्भ कर दिया।
शिलालेखों से ज्ञात होता है कि धीरे धीरे चे दूरवर्ती कम्बोडिया तक में पहुँच गये। उस देश में एक जगह अशोर-बट नामक है। वहाँ एक टूटा-फूटा शिलालेख मिला है। उसमें लिखा है--

"ब्राह्मण अगस्त्य आर्ययदेश के निवासी थे। वे शैवमत के अनुयायी थे। उनमें अलौकिक शक्ति थी। उसी के प्रभाव से वे इस देश तक पहुँच सके थे। यहाँ आकर उन्होंने भद्रेश्वर नामक शिवलिंग की पूजा-अचा बहुत काल तक की। यहीं वे परमधाम को पधारे।"

कम्बोडिया में अगस्त्य ऋषि ने अनेक बड़े बड़े शिव- मन्दिरों का निर्म्माण करा कर उनमें लिङ्ग-स्थापना की। वहाँ उन्होंने एक राजवंश की भी नींव डाली। इस प्रकार उन्होंने कम्बोडिया के तत्कालीन निवासियों को अपने धर्म्म में दीक्षित करके उन्हें सभ्य और सुशिक्षित बना दिया।

यह सब करके भी अगस्त्यजी को शान्ति न मिली। वायु-पुराण में लिखा है कि वे बर्हिद्वीप (बोर्नियो), कुशद्वीप, वराहद्वीप और शांख्यद्वीप तक में गये और वहाँ अपने धर्म्म का प्रचार किया। ये पिछले तीनों द्वीप कौन से हैं, पह नहीं बताया जा सकता। तथापि इसमें सन्देह नहीं कि ये बोर्नियो के आसपास वाले द्वीपों ही में से कोई होंगे। अगस्त्य के विषय में जो बातें ज्ञात हुई हैं वे यद्यपि कहानियाँ सी जान पड़ती हैं, तथापि शिलालेखों, मन्दिरों, मूर्तियों और परम्परा से सनी गई कथाओं के आधार पर मालूम यही होता है कि इनमें तथ्य का कुछ न कुछ अंश जरूर है। जावा, कम्बोडिया और भारत के प्राचीन ग्रन्थों और शिलालेखों में जिस अगस्त्य का उल्लेख है, सम्भव है, वह एक ही व्यक्ति न हो--जुदे जुदे कई व्यक्ति एक ही नाम के हो; क्योंकि अगस्त्य- ऋषि का गोत्र भी तो प्रचलित है। हो सकता है कि उस गोत्र के अन्य लोग भी अगस्त्य ही के नाम से प्रसिद्ध हुए हों। तथापि इसमें सन्देह नहीं कि अगस्त्य नामधारी भारतवासियों ने अपने देश के दक्षिणी भागों तथा कम्बोडिया और जावा आदि दूर देशो में भारतीय- धर्म का प्रचार करके वहां के निवासियों को भारतीय सभ्यता प्रदान की।

कितने परिताप की बात है कि उन्हीं अगस्त्य के देशवासी हम लोग अब कूपमण्डूक बनकर दुर्गति के गत में पड़े हुए सड़ रहे हैं। (प्रबुद्ध भारत से )

[दिसम्बर १९२६

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