वनस्पर ( ७६ ) और मगध का इतिहास पूरा करने के लिये पुराणों ने बीच में वनस्पर का इतिहास भी जोड़ दिया है। पुराणों में इस शब्द के कई रूप मिलते हैं; तथा विश्वस्फटि (क), विश्वस्फाणि और बिंबस्फाटि' जिसमें के खरोष्ठी लिपि के न को लोगों ने भूल से श पढ़ा और श ही लिखा है । इस प्रकार की भूल लोगों ने कुणाल के संबंध में भी की है और उसे कुशाल पढ़ा है । यह बिस्फाटि और वि (न् ) वस्फाणि भी वही है जो सारनाथवाले शिलालेखों के वनस्फर और वनस्पर हैं । सारनाथ के दो शिलालेखों से हमें पता चलता है ( E. I. खंड ८, पृ० १७३ ) कि कनिष्क के शासन-काल के तीसरे वर्ष में वनस्पर उस प्रांत का क्षत्रप या वर्नर था जिसमें बनारस पड़ता था। उस समय वनस्फर ( वनस्पर ) केवल एक क्षत्रप या गवर्नर था। और उसका प्रधान खरपल्लान महाक्षत्रप या वाइसराय था । बाद में वनस्फर भी महाक्षत्रप हो गया होगा। उसका शासन-काल कुछ अधिक दिनों तक था, इसलिये हम यह मान सकते हैं कि उसका समय लगभग सन् ६० ई० से १२० ई० तक रहा होगा। यह वही समय है जो विदिशा के नागों ने अज्ञातवास में बताया था। ६ ३४. इस वनस्पर का महत्त्व इतना अधिक था कि इसके वंशज, जो बुंदेलखंड के बनाफर कहलाते हैं, चंदेलों के समय तक अपनी वीरता और युद्धकौशल के लिये बहुत प्रसिद्ध थे । मूल या उत्पत्ति के विचार से ये लोग कुछ निम्न कोटि के १. पारजिटर कृत Purana Text पृ० ५२ की पाद-टिप्पणी नं. ४५ तथा दूसरी टिप्पणियाँ । २. उक्त ग्रंथ पृ० ८५ ।
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