पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/१०६

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(८०) लोग उस प्राचीन सनातनी और अभिमानी समाज का मुकाबला कर सकते थे जो मनुष्यों के प्राकृतिक तथा जातीय विभागों के आधार पर संघटित हुआ था। ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था के कारण ये म्लेच्छ शासक बहुत ही उपेक्षा और घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे जिससे उन म्लेच्छों को बहुत बुरा लगता था और इसीलिये उस सामाजिक व्यवस्था के नाश के लिये वे लोग अनेक प्रकार के उपाय करते थे जो उन्हें बहिष्कृत रखती थी। इसके परिणाम स्वरूप काश्मीर में बहुत बड़ा आंदोलन हुआ था, और इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजा गोनर्द तृतीय ने उस नाग उपासना को फिर से प्रचलित किया था जिसका हुप्क, जुष्क और कनिष्क के तुरुष्क अर्थात् कुशन शासन ने नाश कर डाला था। भारतवर्ष में भी ठीक यही बात हुई थी, और बिना इस बात को जाने हम यह नहीं समझ सकते कि भार-शिवों के समय में जो राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा हुआ था, उसका क्या कारण था। कुशन शासन-काल में हमें केवल बौद्ध और जैन धर्मों के ही स्मृति-चिह्न आदि मिलते हैं । उस समय का ऐसा कोई स्मृति-चिह्न नहीं मिलता जो हिंदू ढंग की सनातनी कुशनों के पहले के उपासना से संबंध रखता हो। यद्यपि सब सनातनी स्मृति-निह लोग यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि और कुशनों की जिस समय बौद्धों के सबसे प्रारंभिक सामाजिक नीति स्मति-चिह्न बने थे, उससे बहुत पहले से ही सनातनी और हिंदू लोग अनेक प्रकार स्मृति- चिह्न, भवन और मूर्तियाँ आदि बनाया करते थे, तो भी हमें बौद्धों से पहले का सनातनी हिंदुओं का कोई स्मृति-चिह्न या वस्तुअथवा