( ८३ ) की मूर्तियाँ हैं। उनकी मुख्य बातें अप्सराओं की सी ही हैं और उनके स्नान करने की भाव-भंगियों आदि के कारण ही वे जल- अप्सराएँ कही गई हैं। जब प्रश्न यह है कि बौद्धों और जैनों को ये अप्सराएँ कहाँ से मिलीं । बौद्धों और जैनों को गज-लक्ष्मी कहाँ से मिली; और गरुडध्वज धारण करनेवाली वैष्णवी ही बौद्धों को कहाँ से मिली ? मेरा उत्तर यह है कि उन्होंने ये सब चीजें सनातनी हिंदू इमारतों से ली हैं। उन दिनों वास्तुकला में इन सब बातों का इतना अधिक प्रचार हो गया था कि इमारतें बनानेवाले कारीगर आदि उन्हें किसी प्रकार छोड़ ही नहीं सकते थे। जिस समय बौद्धों ने अपने पवित्र स्मृति-चिन्ह आदि बनाने प्रारंभ किए थे, उस समय कुछ ऐसी प्रथा सी चल गई थी कि जिन भवनों और मंदिरों आदि में इस प्रकार की मूर्तियाँ नहीं होती थीं, वे पवित्र और धार्मिक ही नहीं समझे जाते थे और इसीलिये बौद्धों तथा जैनों आदि को भी विवश होकर उसी ढंग की इमारतें बनानी पड़नी थीं, जिस ढंग की इमारतें पहले देश में बनती चली आ रही थीं। हिंदू मंदिरों पर तो इस प्रकार की मूर्तियों का होना योग और परंपरा आदि के विचार से सार्थक ही था, क्योंकि हिंदुओं में इस प्रकार की भावनाएँ वैदिक युग से चली आ रही थीं और हिंदुओं के प्राचीन पौराणिक इतिहास के साथ इनका घनिष्ठ संबंध था; और हिंदुओं के अंतिम दिनों तक उनके मंदिरों और मूर्तियों आदि में ये सब बातें बराबर चली आई थीं। पर घौद्ध तथा जैन भवनों आदि में इस प्रकार की मूर्तियों के बनने का इसके सिवा और कोई अर्थ नहीं हो सकता कि वे केवल भवनों की शोभा और शृंगागार के लिये बनाई जाती थीं और सनातनी हिंदू भवनों से ही वे ली गई थीं और उन्हीं की नकल पर बनाई गई थीं। कुशन काल से पहले की जो सनातनी इमा-
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