(६२) बात का बहुत अच्छा प्रमाण स्वयं वीरसेन के सिक्कों से ही मिलता है जो समस्त संयुक्त प्रांत में और पंजाब के भी कुछ भाग में पाए जाते हैं। कुशन राजाओं को भार-शिवों ने इतना अधिक दबाया था कि अंत में उन्हें सासानी सम्राट शापूर (सन् २३६ और २६६ ई० के बीच में) के संरक्षण में चला जाना पड़ा था, जिसकी मूत्तिं कुशन राजाओं को अपने सिक्कों तक पर अंकित करनी पड़ी थी। समुद्रगुप्त के समय से पहले ही पंजाब का भी बहुत बड़ा भाग स्वतंत्र हो गया था। माद्रकों ने फिर से अपने सिक्के बनाने प्रारंभ कर दिए थे और उन्होंने समुद्रगुप्त के साथ संधि करके उसका प्रभुत्व स्वीकृत कर लिया था। जिस समय समुद्रगुप्त रंगस्थल पर आया था, उस समय काँगड़े की पहाड़ियों तक के प्रदेश फिर से हिंदू राजाओं के अधिकार में आ गए थे। और इस संबंध का अधिकांश कार्य दस अश्वमेध यज्ञ करनेवाले भार-शिव नागों ने ही किया था और उनके उपरांत वाकाटकों ने भी भार-शिव राजाओं की नीति का ही अवलंबन करके उस स्वतंत्रता प्राप्त राज्य की पचास वर्षों तक केवल रक्षा ही नहीं की थी, बल्कि उसमें वृद्धि भी की थी। ६३६. भार-शिवों की सफलता का ठीक ठीक अनुमान करने के लिये हमें पहले यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि बैक्ट्रिया के उन तुखारों का, जिन्हें आज- कुशनों की प्रतिष्ठा कल हम लोग कुशन कहते हैं, कितना श्रोर शक्ति तथा भार- अधिक प्रभाव था। वे ऐसे शासक थे शिवों का साहस जिनके पास बहुत अधिक रक्षित शक्ति या सेना थी; और वह रक्षित शक्ति उनके मूल निवास-स्थान मध्य एशिया में रहती थी जहाँ से उनके सैनिकों के
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