जिस तरह (१०७) मन्नत पूरी होने पर बनवाए गए थे और ठीक उसी तरह के हैं, के स्तूप कुशनकाल में मन्नत पूरी होने पर बनवाए जाते थे। इस प्रकार स्थापत्य की दृष्टि से भी ये मंदिर कुशन- काल के ठीक बाद ही बने होंगे। मन्नत पूरी होने पर जो शिखर- वाले मंदिर बनवाए जाते थे, उनकी अपेक्षा साधारण रूप से बनवाए हुए मंदिर अवश्य ही बहुत बड़े होते होंगे। शिखर बहुत पुराने समय से बनते चले आते थे। हाथी-गुंफावाले शिलालेख ( लगभग १६० ई० पू० ) में भी शिखरों का उल्लेख है जहाँ कहा गया है-“ऐसे सुंदर शिखर जिनके अंदर नक्काशी का काम किया है। यह भी उल्लेख है कि वे शिखर बनाने- वालों को, जिनकी संख्या एक सौ थी, सम्राट खारवेल की ओर से भूमि-संबंधी दानपत्र मिले थे ( एपिग्राफिया इंडिका, २०, पृ० ८०, पंक्ति १३)। नागर शिखर एक विशेष प्रकार का और संभवतः बिलकुल नए ढंग का होता था, जिसका बनना नागों के समय अर्थात्, भार-शिव राजवंश के शासन- काल में आरंभ हुआ था; और उन्हीं के नाम पर उस शैली को स्थायी और बहुत दूर तक प्रचलित 'नागर' नाम प्राप्त हुआ था । वाकाटक काल में, जो नाग काल के उपरांत हुआ था, हमें नागर शिखर का नमूना नचना के चतुर्मुख शिववाले मंदिर रूप में मिलता है। वहाँ पार्वती का जो मंदिर है, वह पर्वत के अनुरूप बना था और उसमें वन्य पशुओं से युक्त गुफाएँ भी बनी थीं। परंतु शिव के मंदिर में केवल शिखर ( कैलास ) ही है । ये दोनों मंदिर एक ही समय में बने थे और दोनों शैलियाँ भी एक ही काल में प्रचलित थीं। इन दोनों का वही समय निश्चित किया गया है जो गुप्त मूर्तियों का समय कहलाता है. और इसका अभिप्राय यह है कि वे मंदिर गुप्तों के बाद के तो नहीं हैं,
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