( १०६) मंदिर अवश्य ही भार-विशों का बनवाया हुआ है । यह शैव मंदिर है । नचना के चतुर्मुख शिव की तरह का एक लिंग इस मंदिर में स्थापित किया गया था और इस मंदिर की शैली का अनुकरण समु- द्रगुप्त के समय एरन में किया गया था। इस मंदिर में ताड़ की जो विलक्षण आकृतियाँ हैं, वही नागों की परंपरागत बातों के साथ इसका संबंध स्थापित करती हैं। ताड़ नागों का चिह्न था और यह ताड़ पद्मावती में भी मिला है जो नागों की राजधानियों में से एक थी। भूमरा में तो हमें पूरे खंभे ही ऐसे मिलते हैं जो ताड़ के वृक्षों के रूप में गढ़े गए थे (देखो प्लेट ४), और खंभों का यह एक ऐसा रूप है जो और कहीं नहीं मिलता। हम तो इसे नाग (भार-शिव ) कल्पना ही कहेंगे । सजावट के लिये ताड़ के पत्ते (पंखे ) के कटावों का उपयोग किया गया है। उसमें मनुष्यों की जो मूर्तियाँ हैं, वे भी बहुत सुंदर और आदर्श रूप हैं । वे मूर्तियाँ बहुत ही जानदार हैं और उनके सभी अंगों से सजीवता टपकती है। न तो कहीं कोई ऐसी बात है जो बिलकुल प्रारंभिक अवस्था की सूचक हो और न कोई ऐसा चिह्न है जो पतन काल का बोधक हो । वे बिलकुल खास ढंग की बनी हैं, उनके बनाने में विशिष्ट कल्पना से काम लिया गया है और वे विशेष रूप से गढ़ी गई हैं। ये सब मूर्तियाँ उसी तरह की हैं जिस तरह की हमें मथुरा में प्रायः मिलती हैं। यहाँ हमें वह असली और पुरानी हिंदू कला मिलती है जो सीधी भरहुत की कला से निकली थी, और भरहुत वहाँ से कुछ ही मीलों पर है। भरहुत यों तो भूमरा से पहले का है, पर भरहुत को देखने से यह पता चलता है कि कलकत्ते के इंडियन म्यूजियम या अजायबखाने में चली गई हैं। इसके समय के लिये देखो अंत में परिशिष्ट क ।
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