(११०) वह पहले की एक और प्रकार की हिंदू कला के पतन-काल का बना है । अब तक यह पता नहीं चलता था कि भारत की राष्ट्रीय सनातनी कला के साथ उदयगिरि-देवगढ़वाली गुप्तीय कला का क्या संबंध है; पर भूमरा के मंदिरों को देखने से स्पष्ट पता चल जाता है कि यह उन दिनों की संयोजक श्रृंखला है। राष्ट्रीय सनातनी कला केवल वघेलखंड और बुंदेलखंड में ही बची हुई दिखाई पड़ती है जहाँ कुशनों का शासन उस कला का यथेष्ट रूप से नाश नहीं कर पाया था। भार-शिव और वाकाटक संस्कृति में बहुत थोड़ा अंतर है, क्योंकि वाकाटक संस्कृत उसी भार-शिव संस्कृत का परंपरागत रूप या शेषांश है और इसलिये हम कुछ निश्चयपूर्वक यह बात मान सकते हैं कि भार-शिवों के समय में राष्ट्रीय रूपदात्री कला का पुनरुद्धार हुआ था; और इस बात की पुष्टि जानखट के भग्नावशेषों से होती है जिनका पहले से और स्वतंत्र अस्तित्व था। भार-शिवों से पहले जो शिखर बनते थे, वे चौकोर मीनार के रूप में होते थे, जैसा कि पाटलिपुत्र में मिले हुए उस धातु-खंड से सूचित होता है जिस पर बोध गया का चित्र बना है और जिस पर ईसवी पहली या दूसरी शताब्दी का एक लेख अंकित है। साथ ही सन् १५० ईसवी के लगभग की बनी हुई और मथुरा में मिली हुई शिखर-मंदिरों की उन दोनों मूर्तियुक्त प्रकृतियों से भी, जिनकी ओर डा० कुमारस्वामी ने ध्यान आकृष्ट किया है, यही बात सूचित होती है। भार-शिव और वाकाटक शिखर चौकोर मंदिर के ऊपर ? History of Indian & Indonesian Art, प्लेट १६ ।
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