पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १३२) कभी किसी ने ध्यान ही नहीं दिया थाः क्योंकि अब तक या तो वे ठीक तरह से पढ़े ही नहीं गए थे और या बिलकुल ही नहीं पढ़े गए थे। हमने अभी प्रवरसेन प्रथम के सिक्के का विवेचन किया है (३०) जो संभवतः अहिच्छत्र की टकसाल में बना था। रुद्रसेन प्रथम के उत्तराधिकारी वस्तुतः गुप्तों के अधीन थे और गुप्तों का यह नियम था कि वे अपने किसी अधीनस्थ राजा को सिक्के बनाने ही नहीं देते थे । परंतु ऐसा जान पड़ता है कि रुद्रसेन प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी पृथिवीपेण प्रथम के संबंध में इस नियम का पालन नहीं किया गया था और उसे अपवाद रूप से मुक्त कर दिया गया था और उसने अपने पुत्र रुद्रसेन द्वितीय का विवाह चंद्रगुप्त द्वितीय की कन्या से किया था । जान पड़ता है कि उसका सिक्का भी हम लोगों को मिल चुका है। डा० विंसेंट स्मिथ ने अपने Catalogue of the Coins in Indian Museum नामक ग्रंथ में', प्लेट नंबर २० पर दिया है और जिस पर पीछे की ओर सॉड़ की एक बहुत अच्छी मूर्ति बनी है, वह सिक्का पृथिवीपेण प्रथम का ही है। इस सिक्के के सामनेवाले भाग पर वही. प्रसिद्ध बृक्ष बना है जो कोसम की टकसाल में बने हुए भार-शिव सिक्कों पर पाया जाता है; और उस पर एक पर्वत की भी आकृति बनी हुई है। इस पर का लेख ब्राह्मी लिपि में है। डा. स्मिथ (पृ० १५५ ) ने इसे पवतस पढ़ा था जिसका अर्थ उन्होंने लगाया था - पवत का। परंतु इसमें का पहला अक्षर प नहीं है, बल्कि पृ है और ऋ की मात्रा अक्षर के नीचे है। दूसरा अक्षर संयुक्त अक्षर है और उसमें गुतीय थ (जिसके मध्य में एक स्पष्ट बिंदु है) के नीचे आधा १. साथ ही देखो इस ग्रंथ का तीसरा प्लेट ।