पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/१५९

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( १३१ ) ओर पीछे हटकर विंध्य की पहाड़ियों में अपनी रक्षा के लिये जाकर रहने का इसमें अच्छा स्थान है।" इस स्थान की पहचान पार्वती और चतुर्मुख शिव के उन दोनों मंदिरों से होती है जिनका वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं और जिनके द्वारों पर गंगा और यमुना की मूर्तियाँ हैं। गंगा और यमुना की मूर्तियाँ बनाने की कल्पना विशेष रूप से वाकाटकों की है जो उन्होंने भार-शिवों से प्राप्त की थी। यह स्थान पृथिवी- पेण प्रथम के तीन शिलालेखों के लिये भी प्रसिद्ध है। भारतीय स्थापत्य और तक्षण कला के इतिहास में ये मंदिर अनुपम हैं और इन्हीं से उस कला का प्रारंभ होता है जिसे हम लोग गुप्त कला कहते हैं। ये सभी लेख संस्कृत में हैं। ८. वाकाटकों के संबंध में लिखित प्रमाण और उनका काल-निर्णय ३६१. सिक्कों से हमें दो वाकाटक सम्राटों के नाम मिलते हैं- एक तो प्रवरसेन प्रथम और दूसरा रुद्रसेन प्रथम जो प्रवरसेन प्रथम का पोता और उत्तराधिकारी था, (६५२ पाद-टिप्पणी)। प्रवरसेन प्रथम के पिता विंध्यशक्ति का कोई सिक्का नहीं मिलता। विंध्यशक्ति वस्तुतः भार-शिव नाग सम्राटों का अधीनस्थ राजा था और संभवतः उसने अपने सिक्के बनवाए ही नहीं थे। वाकाटक सम्राटों के जिन दो सिक्कों का ऊपर उल्लेख किया गया है और जिनके बनवाने वालों का निर्णय हमने किया है, उन पर पहले १. कनिंघम A.S. R. खंड २१, पृ. ६५। इसका शुद्ध रूप नाचना है, नान्ना नहीं।