पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/१७९

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के व्याघ्र ( १४६ ) इस बात से भी चलता है कि चंद्रगुप्त प्रथम के सिक्के कभी गुप्त सम्राटों के सिक्कों के साथ नहीं मिले हैं। समुद्रगुप्त रूपवाले जो सिक्के मिले हैं, उनसे सूचित होता है कि उसने कुछ दिन एक छोटे राजा के रूप में, साकेत में रहकर अथवा बनारस और साकेत के बीच में रहकर, बिताए थे । इन सिक्कों पर केवल 'राजा समुद्रगुप्त' लिखा है। तब तक उसने न तो गरुड़ध्वज का ही अंगीकार किया था और न उन दूसरे चिह्नों का ही जो उसके उन सिक्कों पर मिलते हैं जो उसके सम्राट होने की दशा में बने थे इन सिक्कों पर, पीछे की ओर, एक शिंशुमार पर खड़ी हुई गंगा की मूर्ति है। वाकाटकों के समय में गंगा और यमुना दोनों साम्राज्य के चिह्न थे। भारशिव सिक्कों पर और प्रवरसेन के सिक्कों पर भी, गंगा की मूर्ति मिलती है जान पड़ता है कि जिस समय समुद्रगुप्त एक करद और अधीनस्थ राजा के रूप में था, उस समय उसने वाकाटक सम्राटों का गंगावाला चिह्न अपने सिक्कों पर रखा था। आगे चलकर जब वह सम्राट हुआ था, तब उसने जो सिक्के बनवाए थे, उन पर यह गंगा का चिह्न नहीं मिलता। व्याघ्र रूपवाले सिक्के बहुत ही कम मिलते हैं; तो भी उनके जो नमूने मिले हैं, उनसे हम यह तो निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि इन सिक्कों के दो वर्ग थे अथवा ये दो बार अलग अलग बने थे। व्याघ शैलीवाले सिकों पर समुद्रगुप्त, अपने प्रपिता की तरह, सम्राट् पद के उपयुक्त जिरह-वक्तर आदि नहीं पहने है। और इससे भी यही सूचित होता है कि वाकाटकों के अन्यान्य करद तथा अधीनस्थ राजाओं की तरह उस समय समुद्र. गुप्त भी संयुक्त प्रांत के सामान्य सनातनी हिंदू राजाओं की तरह रहता था। यदि हम यह मान लें कि चंद्रगुप्त प्रथम सन् ३२० से ३४० ई० तक राज्य करता था और राजा समुद्रगुप्त के व्याघ्र