( १८१) को स्वयं अपने सिक्के चलाने का अधिकार दे दिया जाता था। गुप्त-प्रणाली में आर्यावर्त में एकमात्र शासक संबंधी वाकाटक ही थे जो पूरी तरह से स्वतंत्र थे। गुप्त लोग अपने नौकरों को ही शासक बनाकर रखना पसंद करते थे और उन्होंने अपने अधीनस्थों को सिक्के बनाने का अधिकार बिलकुल नहीं दिया था। दोनों ही अपने अधीनस्थ शासकों को "महाराज" उपाधि का प्रयोग करने देते थे और यह बात पुरानी महाक्षत्रपवाली प्रणाली के अनुरूप होती थी. पर हाँ, इस नाम या शब्द का परित्याग कर दिया था। गुणों ने तो शाहानुशाही का अनुवाद महाराजाधिराज कर लिया था, पर वाकाटक सम्राट ने ऐसा नहीं किया था, बल्कि उसने सम्राट वाली प्राचीन वैदिक उपाधि ही धारण की थी। ६६०. वाकाटक लोग कट्टर शैव थे। उनका यह मत केवल एक पीढ़ी में रुद्रसेन द्वितीय के समय बदला था; और इसका कारण उसकी पत्नी प्रभावती और श्वसुर धार्मिक मत पवित्र चंद्रगुप्त द्वितीय का प्रभाव था जो दोनों श्रवशिष्ट कट्टर वैष्णव थे। पर जब चद्रगुप्त का प्रभाव नष्ट हो गया, तब इस वंश ने फिर अपना पुराना शैव मत ग्रहण कर लिया था। वाकाटक काल के जो मंदिर और अवशेष आदि मिलते हैं, वे मुख्यतः योद्धा शिव के १. वाकाटक शिलालेखो में इसका उल्लेख है और उनके सिक्कों पर नंदी की मूर्ति रहती थी। रुद्रसेन प्रथम के समय तक महाभैरव राज-देवता थे । पृथिवीपेण ने उनका स्थान महेश्वर को दिया था जो मानों विष्णु और शिव के मध्य का रूप है। G. I. पृ० २३६, नचना में महाभैत्व हैं ( देखो परिशिष्ट क )।
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