(२७४ ) ४२-४६); और उनके संबंध में कहा गया है कि वे सिक्के वहाँ उतनी ही अधिकता से पाए गए थे जितनी अधिकता से "समुद्र-तट पर घोंघे पाए जाते हैं।' भागवत में इन लोगों को अर्बुद-मालव कहा गया है और विष्णुपुराण में उनका स्थान राजपूताने ( मरुभूमि ) में बतलाया गया है। इस प्रकार यह बात निश्चित है कि वे लोग राजपूताने में आबू पर्वत से लेकर जयपुर तक रहते थे। उस प्रदेश को जो "मार- वाड़" कहते हैं, वह जान पड़ता है कि इन्हीं मालवों के निवास- स्थान होने के कारण कहते हैं। इसके दक्षिण में नागों का प्रदेश था और मालवों के सिक्के नाग-सिक्कों से बहुत मिलते-जुलते हैं । इसके ठीक उत्तर में यौधेय लोग थे और उनका विस्तार भरतपुर (जहाँ विजयगढ़ नामक स्थान में समुद्रगुप्त के समय से भी पहले का एक प्रजातंत्री शिलालेख पाया गया है) से लेकर सतलज १. जिसे हम लोग "मारवाड़" कहते हैं, उसे पंजाब में मालवाड़ कहते हैं । राजपूताना में "ड" का भी उच्चारण उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार दक्षिणी भारत में होता है । मालव- माडव+वाटक भी मारवाड़ ही होगा । "वाट' शब्द का जो “वार" रूप हो जाता है और जिसका अर्थ "विभाग" होता है, इसके लिये देखो ( अब स्व० राय बहादुर ) हीरालाल-कृत Inscriptions of C. P., पृ० २४ और ८७ तथा एपि० इं०, खंड ८, पृ० २८५ । वाटक और पाटक दोनों ही शब्द भौगोलिक नामों के साथ विभाग के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । २. देखो रैप्सन-कृत Indian Coins, विभाग ५१ और विं० स्मिथ-कृत Coins of Indian Musuem, पृ० १६२ ।
पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३०२
दिखावट