पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३८२

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( ३५४ ) विष्णुगोप ने स्कंदवर्मन् प्रथम तक की वंशावली दी है, जिसका उल्लेख यहाँ बिना "शिव" शब्द के हुआ है, और उसके पिता स्कंदवर्मन् द्वितीय ने भी स्कंदवर्मन् प्रथम का उल्लेख इसी प्रकार विना "शिव" शब्द के ही किया है । सिंहवर्मन द्वितीय ने वीरवर्मन् तक की वंशावली दी है, परंतु वीरवर्मन् का नाम इसके बाद और किसी वंशावली में नहीं दोहराया गया है। ये दोनों शाखाएँ वास्तव में एक में ही मिली हुई थीं और दोनों के ही राजा निरंतर एक के बाद एक करके शासन करते थे। विष्णुगोप का दानपत्र (इं० ए०, ५, १५४ ) उसके बड़े भाई के शासन-काल का है; और जब आगे चलकर उसके बड़े भाई के वंश में कोई नहीं रह गया, तब जान पड़ता है कि विष्णुगोप का लड़का राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था। परंतु अभी स्कंदवर्मन् द्वितीय के वंशजों की एक और छोटी शाखा बची हुई थी। इस शाखा का पता दो ताम्रलेखों से लगता है ( एपि० इ०८, १४३ और एपि० इं०८, २३३)। इनमें से पहला तो ब्रिटिश म्यूजियम वाला ताम्रलेख है जो युवमहाराज बुद्धवर्मन् की पत्नी चारुदेवी ने विजयस्कंदवर्मन् १. जैसा कि हम चुटुओंवाले प्रकरण (६१६१) में बतला चुके हैं, "शिव" केवल एक सम्मान-सूचक शब्द था जो नामों के आगे लगा दिया जाता था । इस वंश के नामों के साथ जो "विष्णु' शब्द मिलता है, उसका संबंध कदाचित् विष्णुवृद्ध के नाम के साथ है, जो इनके श्रारंभिक पूर्वजों ( भारद्वाजों ) में से एक था और जिसका वाकाटकों ने विशेष रूप से वर्णन किया है। यदि यह बात न हो तो फिर इस बात का और कोई अर्थ ही नहीं निकलता कि नामों के साथ "विष्णु" शब्द क्यों लगा दिया जाता था, क्योंकि यह बात परम निश्चित ही है कि इस वंशवाले शैव थे।