( ३८५ ) पर अब वे ठोस बनने लगे थे। पहले तो शिखरोंवाले छोटे छोटे मंदिर बनते थे, पर अब उनके स्थान पर चौकोर चट्टानों को काटकर और चट्टानों के समान मंदिर बनने लगे थे। उस समय सब जगह आत्म-विश्वास और आत्म-निर्भरता का ही भाव फैलने लगा था। हिंदुओं का स्वयं अपने आप पर विश्वास हो गया था। वाकाटक, गंग और गुप्त लोग तलवारों और तीरों के योग से अपना पुरुषोचित सौंदर्य व्यक्त करते थे। देवताओं की तुलना मनुष्यों से होती थी और मनुष्यों के हित के लिये होती थी। गुप्त विष्णु का पूरा भक्त था और वह जितने काम करता था, वह सब विष्णु को ही अर्पित करता था और अपने आपको उसने विष्णु के साथ पूरी तरह से मिलाकर तद्रूप कर दिया था। और उस विष्णु की भक्ति का प्रचार उसने भारत के समस्त राष्ट्र में तो किया ही था, पर साथ ही द्वीपस्थ भारत में भी किया था। मनुष्य और ईश्वर की यह एकता उन मूर्तियों में भी व्यक्त होतो थी, जो वे भक्तों के अनुरूप तैयार करते थे। उच्च आध्यात्मिक भावना ठीक शीर्ष-बिंदु तक जा पहुंची थी। जिस विंध्यशक्ति का बल बड़े बड़े युद्धों में बढ़ा था और जिसके बल पर देवता भी विजय नहीं प्राप्त कर सकते थे, वह इतना सब कुछ होने पर भी मनुष्य ही था और आध्यात्मिक योग्यता प्राप्त करने के लिये निरंतर प्रयत्न करता था। गंग राजाओं में से माधव प्रथम ने, जिसके संबंध में कहा गया है कि उसने अपना शरीर युद्ध-क्षेत्र के घावों से अलंकृत किया था, इस बात की घोषणा कर दी थी कि राजा का अस्तित्व केवल प्रजा के उत्तमतापूर्वक पालन करने के लिये ही होता है। अनेक बड़े बड़े यज्ञ करनेवाला शिवस्कंद बर्मन भी सब कुछ होने पर भी धर्म-महाराजाधिराज ही था। समुद्रगुप्त धर्म का रक्षक और पवित्र मंत्रों का मार्ग था और
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