पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/४१४

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(३८६) इस योग्य था कि सब लोग उसके कार्यों का अनुशीलन करें, और वह अपने राजकीय कर्तव्यों का इस प्रकार पालन करता था कि जिससे उसे इस बात का संतोष हो गया था कि मैंने अपने लिये स्वर्ग को भी जीत लिया है-मैं स्वर्ग प्राप्त करने का अधिकारी हो गया हूँ। मनुष्य तो समाज के लिये बनाया गया था, परंतु वह अपने कर्तव्यों का पालन करके स्वर्ग के राज्य पर भी विजय प्राप्त कर रहा था। पुनरुद्धार करनेवाली भक्ति ने इस प्रकार राजनीति को भी आध्यात्मिक रूप दे दिया था। और यहाँ तक कि विजय को भी उसी आध्यात्मिकता के रंग में रँग दिया था और पुनरुद्धार काल से पहले की निष्क्रिय भक्ति और अक्रिय शांतिवाद को बिलकुल निरर्थक करके पीछे छोड़ दिया था। बौद्ध लोग जो प्रव्रज्या ग्रहण करके ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने लगे थे, जिसके कारण स्त्रियों की मर्यादा बहुत कुछ घट गई थी। परंतु अब फिर स्त्रियाँ उच्च सम्मान की अधिकारिणी बन गई थीं और राजनीतिक कार्यों में योग देने लग गई थीं। सिक्कों और शिलालेखों आदि में उन्हें बराबरी की जगह दी गई है। समुद्रगुप्त अपनी पत्नी दत्तदेवी का जितना अधिक सम्मान करता था, उतना अधिक सम्मान उससे पहले किसी पत्नी को प्राप्त नहीं हुआ। एरन में अपनी विजय के सर्वोत्कृष्ट समय में सारे भारत के सम्राट ने गर्वपूर्वक अपनी सहधर्मिणी और अपने विवाह के उस दिन का स्मरण किया था, जिस दिन दहेज में उसकी पत्नी को अपने पति का केवल पुरुषत्व प्राप्त हुआ था और जिसकी शोभा अब इतनी बढ़ गई थी कि वह एक आदर्श हिंदू-स्त्री बन गई थी-एक ऐसी कुलवधू और हिंदू-माता बन गई थी जो अपने पुत्रों और पौत्रों से घिरी हुई थी। ६ २०६. इस प्रकार पूर्ण मनुष्यत्व और वैभव, विजय