पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/४१६

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(२८८ ) यह चित्र बड़े बड़े कार्यों, किरीट और कुंडल से युक्त है. यह साम्राज्यभोगी हिंदुत्व का चित्र है और इसमें गुप्तों की महत्ता के दृश्य के सामने से परदा हटा दिया गया है। परंतु क्या अपनी जाति के प्राचीन काल के महत्त्व का और गुप्त अलौकिक पुरुषों का यह चित्र अंकित करते ही उसका कर्तव्य समाप्त हो जाता है ? वह जब तक गुप्तों के बाद के उन हिदुओं के संबंध में भी अपना निर्णय न दे दे जो गुप्त साम्राज्य-वाद का सिंहावलोकन करते थे और शांत भाव से उसका विश्लेषण करते थे, तब तक उसका कर्तव्य समाप्त नहीं होता । विष्णुपुराण में हिंदू इतिहासज्ञ. इस विषय का कुछ और ही मूल्य निर्धारित करता है । इन सब बातों का वर्णन करके अंत में उसने जो कुछ कहा है। उसका संक्षेप इस प्रकार हो सकता है "मैंने यह इतिहास दे दिया है। इन राजाओं का अस्तित्व आगे चलकर विवाद और संदेह का विषय बन जायगा, जिस प्रकार स्वयं राम और दूसरे सरे सम्राटों का अस्तित्व आज-कल संदेह और कल्पना का विषय बन गया है। समय के प्रवाह में पड़कर सम्राट् लोग केवल पौराणिक उपाख्यान के विषय बन जाते हैं और विशेषतः वे सम्राट जो यह १. देखो विष्णुपुराण ४, २४ श्लोक ६४-७७ । साथ ही मिलानो पृथिवीगीता, श्लोक ५५-६३ । २. इत्येषः कथितः सम्यङ् मनोवंशो मया तव ।। ६४ ।। श्रुत्वैवमखिलं वंशं प्रशस्तं शशिसूर्ययोः ॥ ६७ ।। इक्ष्वाकु जह्व मान्धातृ-सगराविक्षितान् रघून् ॥६८॥