(३६६) कौन सी जगह है और कहाँ है, क्योंकि कनिंघम ने अपने वर्णन में उस स्थान का यही नाम इसी रूप में ( Dareda) दिया था। मुझे सतना-निवासी अपने मित्र श्रीयुक्त शारदा प्रसादजी से मालूम हुआ कि उस गाँव का असल नाम दुरेहा है। मैं मोटर पर सवार होकर वहाँ जा पहुँचा। वह स्मृति-स्तंभ उस गाँव की कच्ची सड़क के किनारे ही है और एक बनाए हुए चबूतरे के ऊपर है। वह लिंग नहीं है, बल्कि स्तंभ है। उसका जो रुख दक्खिन की तरफ पड़ता है, वह तो खूब साफ और चिकना किया हुआ है, परंतु उसका पिछला भाग इतना खुरदुरा है कि जान पड़ता है कि उसी रूप में पहाड़ में से खोदकर निकाला गया था। जब मैं नचना से लौटकर आया था और उस अभिलेख की छाप लेने लगा था, तब दुर्भाग्यवश अँधेरा हो गया था और सब काम रोशनी जलाकर करने पड़े थे। वह लेख एक ही पंक्ति का है और उसके नीचे एक चक्र है जिसमें आठ आरे हैं। यह चक्र वैसा ही है, जैसा रुद्रसेन के सिक्के और पृथ्वीषण के गंज और नचना वाले अभिलेखों में है। कनिंघम ने इसे देखकर इसकी जो नकल तैयार की थी, उसमें उसने वह लेख चक्र के ऊपर नहीं बल्कि नीचे दिया है। जान पड़ता है कि इसका जो चित्र उसने दिया है, वह स्वयं उस स्थान पर नहीं तैयार किया गया था, बल्कि वहाँ से आने पर केवल स्मृति की सहायता से बाद में तैयार किया गया था, क्योंकि उसमें ऊपर का लेख नीचे और नीचे का चक्र ऊपर कर दिया गया है और उस पत्थर का रूप भी ठीक-ठीक नहीं अंकित किया गया है। वह पत्थर गोल नहीं है। १. देखो प्लेट ४ ।
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