पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/६७

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(४१) उपाधियाँ लिखने की प्रथा थी, उसका वीरसेन ने यहाँ भी परित्याग किया है और अपने यहाँ की प्राचीन पारिभाषिक उपाधि ही दी है। एक तो ये सिक्के बहुत दूर दूर तक पाए जाते हैं; और दूसरे इस तरह की कुछ और भी बातें हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वीरसेन ने मथुरा के आस-पास के समस्त स्थानों और गंगा तथा यमुना के बीच के सारे दोआब से, जो सब मिलाकर आधु- निक संयुक्तप्रांत है, कुशनों को निकाल दिया था। कुशनों के शिलालेखों, सिक्कों के समय और वीरसेन के शिलालेखों से यह बात निश्चित रूप से सिद्ध हो जाती है कि कुशनसंवत्ह के थोड़े ही दिनों बाद वीरसेन ने मथुरा पर अधिकार कर लिया था और यह समय सन् १८० ई० के लगभग हो सकता है। अंतः जानखट- वाला शिलालेख संभवतः सन् १८०-८५ के लगभग का होगा । वीरसेन ने कुछ अधिक दिनों तक राज्य किया था। जनरल कनिंघम ने उसके एक सिक्के का जो चित्र दिया है, उस पर मेरी समझ से उसका राज्यारोहण संवत् ३४ है यदि उसका शासन- काल चालीस वर्प मान लें तो हम कह सकते हैं कि वह सन् १७० से २१० ई. तक कुशनों के स्थान में सम्राट् पद पर था । उससे पहले इस वंश का जो राजा नव नाग उसका पूर्वाधि- कारी था, वह वासुदेव के शासन-काल में संयुक्तप्रांत के पूर्वी भाग में एक स्वतंत्र शासक की भाँति राज्य करता रहा होगा; और वीरसेन के शासन का दसवाँ या तेरहवां वर्ष वासुदेव के अंतिम समय में पड़ा होगा। इस प्रकार वह सन् १७० ई० के लगभग सिंहासन पर बैठा होगा। वीरसेन के सिक्कों और असंदिग्ध भार-शिव राजाओं के