(६६। रसेनस पढ़ा है। इसमें की वाली मात्रा को वे संदिग्ध समझते हैं और यद्यपि वे इसे वीरसेन का ही मानते हैं, पर फिर भी कहते हैं कि यह वीरसेन के प्रारंभिक सिक्कों के बाद का है। समय के विचार से उन्होंने इन दोनों सिक्कों में जो अंतर समझा है और जो यह निर्णय किया है कि यह किसी दूसरे और बाद के राजा का सिक्का है, वह तो ठीक है, परंतु उस पर के नाम को वीरसेन पढ़ने में उन्होंने भूल की है। इस सिक्के पर के लेख को मैं प्रवरसेनस (स्य) मानता हूँ और सिक्के में बाई और नीचेवाले कोने में लेख का जो पहला अक्षर है, उसे 'प्र' पढ़ता हूँ । नामके नीचे मैं ७६ (७०, ६) भी पढ़ता हूँ। सिक्के पर सामने की ओर एक ओर बैठी हुई स्त्री की मूर्ति है जिसके दाहिने हाथ में एक घड़ा है, जिससे सूचित होता है कि यह गंगा की मूर्ति है ( देखो ६५७)२ । नीचे की ओर दाहिने कोने पर वाकाटक चक्र भी है जो हमें नचना और जासो में भी मिलता है (देखो अंतिम परिशिष्ट)। ६३१. गणपति नाग के वंश के इतिहास का पता मिथिला के १. C. I. M. पृ० १६२ और पृ० १६७ की दूसरी पाद-टिप्पणी । २. इस मूर्ति के सिर पर ऐसा मुकुट नहीं है जिसमें से प्रकाश की किरणें चारों ओर निकलकर फैल रही हों, जैसा कि C. I. M. पृ. १६७ में कहा गया है, बल्कि वह छत्र है जो सिंहासन में लगा हुआ है । साथ ही अागे वाकाटक सिक्कों के संबंध में देखो ६६१ ।
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