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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१०४

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अजातशत्र + --- समुद्रष्टत्त-"वह कैसी बात है, क्या मैं भी सुन सफता हूँ ! श्यामा-"आप अभी तो परदेश मे चले आ रहे हैं मुझसे काई घनिष्टता भी नहीं, तब कैसे अपना हाल कहूँ ।" समुद्रदच-"सुन्दरी । यह तुम्हारा सकोच व्यर्थ है।" श्यामा-"मेरा भाई कोई अपराध में यदी हुआ है। और दण्ठनायक ने कहा है कि यदि अभी रातभर में मेरे पास हजार मोहरें पहुँच जायें सो मैं इसे रहूँगा, नहीं तो नहीं।" (रोती है) समुद्रदत्त-'सो इममें कौन सा चिन्ता की बात है। मैं देसा हैं। इन्हें मेम दो, (म्वगत) मैं भी तो पडयन्न करने आया है इसी । सरह दो चार अन्तरङ्ग मित्र बनाना चाहिये। जिममें समय पर काम पावे। दण्डनायक से भी समम लूँगा-कोई चिन्ता नहीं। श्यामा-(मोहरों की थैली देफर ) "तो पासी पर दया करके प्रमे दे भाइये, क्योंकि मैं किस पर विश्वास करके इतना धन भेज । ५ ? और, यदि आपको पहचाने जाने की शफा हो सो में आपका भमी वेश मी पदल दे सकती हूँ।" ____ समुद्रदत्त-"प्रजी मोहरें तो मेरे पास है इनफी क्या भाष । श्यकता है।" श्यामा-"आपकी छपा है, यह भी मेरी ही है, किन्तु इन्हें हो ले जाइये, नहीं तो पाप से भी धारवनिताओं की एक चाल सममित्येगा ।