पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खातशत्र। श्यपाचवा) स्थान--सेनापति बन्धुल का गृह । (मक्षिका और दासी) मल्लिका-"संमार में नियों के लिये पति ही सब कुछ है, किन्तु हाय ! आज मैं उसी सोहाग मे वश्चित होगई हैं। एय थरथरा रहा है, फण्ठ भरा पाता है एक निर्दय चेतना, सब इन्द्रियों को अचेतन और शिथिल बनाये दे रही है। आह ! (उहर कर और निश्वास लेकर) हे प्रमु! मुझे यल दो-विपत्तियों को सहन करने के लिये-बल दो। मुझे विश्वास हो कि तुम्हारी शरण आने पर कोई भय नहीं रहता। विपत्ति और दुःख उस भानन्द के दास बन जाते हैं, फिर सांसारिक आतङ्क उसे नहीं खरा सकते हैं। मैं जानती हूँ फि मानव हदय अपनी दुर्बलताओं में ही सवल होने का स्वाँग बनाता है किन्तु मुझे उस बनावट से एस धम्म से पषा लो। शान्ति के लिये साहस दो । सन् के लिये पल दो " दासी-"स्वामिनी धेर्य धारण कीजिये !" मल्लिका-सरला! धैर्य्य न होता वो अब तक यह सवय फट माता-यह शरीर निस्पन्द हो जाता सब भी यह वैधव्य दुम्स्त्र नारी जाति के लिये कैसा कठोर अभिशाप है वह किसी स्त्री को अनु. मव न करना हो, यही प्रार्थना है।"