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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/११०

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अजातशत्रु। मल्लिका-"मुझे विदित है महाराज ! प्रजा के साय आप इसना छल प्रवचना और कपट व्यवहार रखते हैं ? धन्य हैं।" प्रसेन०-"मुझे धिकार दो-मुझे शाप दो-मतिका । तुम्हारे मुखमण्डल पर तो ईर्पा और प्रतिहिसा का चिन्ह भी नहीं है । जो तुम्हारी इच्छा हो, वह कहो, मैं उसे पूर्ण करूँगा- मल्लिका-(हाथ जोड़ कर ) कुछ नहीं, महाराज ! आशा दीजिये फि आपके राज्य से निर्विन, चली जाऊँ । किसी शातिपूर्ण स्थान में रहूँ। ई से आपका बदय प्रीम के मध्याह का सूर्य हो रहा है, उसकी भीपणता से बचकर फिसी छाया में विभाम फरूँ। और कुछ भी मैं नहीं चाहती।" (रामा हाप जोड़ता है) सारिपुत्र-"मूर्तिमती करुणे ! तुम्हारी विजय है।" पटवरिवर्तन। kinnar दश्यटका) गहाराज विम्बसार का गृह । (पिम्पसार और वासवी) , पिम्पसार-"रात में तारामों का प्रभाव विरोप रहने से पन्द्र __ नहीं दिखाई देता है और चन्द्रमा का सेज बढ़ने से सारे सब फीके ७६