अजातशत्र । जीवक-"चुप रहो, यको मत, सुम्हारे ऐसे मूनों ने ही तो समा को विगाद रक्सा है। जब देखो परिहास । घसन्तक- परिहास नहीं अट्टहास । उसके यिनाक्या लोगों का अन्न पचता है। क्या यल है तुम्हारी यूटी में । अरे। जो मैं सभा को पनाऊँ तो क्या अपने को विगा और फिर मार लेफर पृथ्वी देवता को मोरछल करता फिरूँ? देखो न अपना मुख भादर्श में। चले थे समा यनाने, राजा को सुधारने । इस समय सो " ___ जीवक-" तो इससे क्या ? हम अपना कर्तव्य पालन करते हैं, दुख से हम विचलित तो होते नहीं- जोम सुख का नहीं, न तो उर है। प्राण फर्तव्य पर निपर है ॥ बसन्तफ-"वो इससे क्या ? हम भी अपना पेट पालन करते हैं, अपनी मर्यादा बढ़ाये रहते हैं, किसी और के दुख से हम भी । टस से मस नहीं होते। एफ घाल भर भी नहीं,सममा। और काम, कितना सम पर और सुरीला करते हैं सो भी जानते हो ? जहाँ । उन्होंने भामा दी कि “इसे मारो" हम तत्काल ही सम पर मुरीले स्वर में बोलते हैं कि "रोsss , जीयर्क-"जाधो रोत्रो !" वसन्तक- क्या तुम्हारे नाम को १ भरे रोएँ सुम्हार से। __ परोपकारी, जो राजा को समझाया पाइवे हैं। घंटों वकवाद करके .. सुम्हें मी वा करना और अपने मुख्य को कष्ट देना। मो जीम
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