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अजातशत्रु।
सिक रहते हैं लेकिन अपने आचार व्यवहार से वे वर्त्तमान काल के मनुष्य—सो भी स्वदेश के नहीं पश्चिम के—जान पड़ते हैं।
किन्तु, 'प्रसाद' जी इस दोष से प्राय बिलकुल बचे हैं। अभी तक हमारे पूर्वजों के सामाजिक जीवन को बहुत ही थोड़ी खोज हुई है। जो कुछ हुई है 'प्रसाद' जी अपने नाटकों में उसका पूर्ण उपयोग करने के भागी हैं।
काशी
२०-११-२२
कृष्णदास
ऊ