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पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१५८

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अजातशह। लेना तो इसके अधिकार में नहीं था फिर आप इस अयला पर क्यों ऐसा दगम विधान करते हैं । प्रसेन०-" मैं इसका क्या सत्तर टू देवी !" शकिमती-"वह मेग ही अपराध था आर्यपुत्र ! क्या उसके लिये जमा नहीं मिलेगी- मैं अपने फत्यों पर पश्चात्ताप करती हूँ। अब मेरी मेवा मुझे मिले, उससे मैं पधित न होऊँ, यही मेरी प्रार्थना है" प्रसेन०-(मलिफा का मुह देस्यता है) मलिका-"पमा फरना ही होगा महाराज | और इसका , मोम मेरे सिर पर होगा । मुझे विश्वास है कि यह प्रार्थना निरफल न होगी। प्रसेन०-" मैं इसे कैसे अस्वीकार कर सकता हूँ । (शक्तिमाली को आप पफा कर लाता है, या सिंहासन पर पैठतोर) मल्लिका-"मैं छतज्ञ हुई सम्राट् ! समा से पदकर वण्ड नहीं है, और भापकी नीति इसी का अवलम्पन फरे मैं यही भाशीर्वाद देवी हूँ। किन्तु एक बात और भी है ? प्रसेन०-"वह क्या है ! मालिका- मैं आज अपना सर पदला थुकाना चाहती हूँ, मेरा मी कुछ अभियोग है। प्रमेन- 'बह पड़ा भयानक है । देषि, खसे तो पाप क्षमा कर चुकी है अब