सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दृश्यनवका स्थान-महाराज सिमसार का कुटीर । (म. पिम्पसार रे हुए।) (नेपथ्य से गान) स्रोत का उद्गम था अवरुद, जिलदबज रुका पपन था स्तम्प मिले जीमन कैस ! हा प्याप्त । खेज में पके-बैठकर-होकर परम उदास ॥ विश्ष में मेरा है, तो कौन ! प्रश्न होता रहता था मौन, । परीक्षा में होगा. उपहास । इसी से सब पर या विश्वास || विम्बसार-(छठ फर भापही प्राप) "मन्न्या का समीर ऐसा पलरहा है जैसे दिन मर का सपाहुमा उनिग्न संसार एफ शीतल निधास छोड़ कर अपना प्राण धारण कर रहा है। प्रकृति की । शान्तिमयीमति निश्चल होकर भी उस मधुर मोके से हिन नाती है। मनुष्य-उदय भी एक रहस्य है, एक पहेली है । जिसपर कोप से भैरव हार करता है उसी पर स्नेह का अभिषेक करने के